दस्तक
कौशल किशोर श्रीवास्तव
मेलबर्न शहर, वर्ष 2020 का उत्तरार्ध, कोरोना वायरस महामारी का वैश्विक प्रकोप, मृत्यु की काली छाया, लोगों में दहशत, सर्वत्र लॉकडाउन, घर से पाँच किलोमीटर से अधिक दूर जाने पर प्रतिबंध।
ऐसी ही एक रात्रि का प्रथम प्रहर, शीतकाल, सुनसान गली। सावित्री घर में अकेली थी, उसका पति सिडनी कार्यवश गया था लेकिन अप्रत्याशित लॉकडाउन के कारण वहीं फँस गया था। उन दोनों की शादी क़रीब चार वर्ष पहले हुई थी, दोनों हमउम्र थे, ज़िंदगी के तीसरे दशक में प्रवेश कर चुके थे, संतान की प्रतीक्षा थी। सावित्री की आँखें कंप्यूटर पर थी, लॉकडाउन के कारण ऑनलाइन कार्य संस्कृति का प्रचलन व्यापक हो चुका था। अभी-अभी उसने अपने पति को फ़ोन पर गुड नाइट कहा था। तभी बाहरी दरवाज़े पर दस्तक हुई।
“कौन?”
कोई उत्तर नहीं। सावित्री ने भी अनसुना कर दिया।
पुनः वही दस्तक, लेकिन थोड़ी तेज आवाज़। सावित्री ने विंडस्क्रीन उठाकर देखा, एक व्यक्ति एक मासूम लड़की के साथ बरामदे पर खड़ा था। आगंतुक के चेहरे पर चिंता की गहरी रेखा स्पष्ट दिख रही थी।
“क्या बात है? कोई इमरजेंसी?” सावित्री की आँखों में आश्चर्य था और सहानुभूति की झलक भी। “अंदर आइये।”
“मैं इसी गली में सपत्नीक रहता हूँ, डॉ भार्गव। शायद आपने आते-जाते देखा होगा।”
सावित्री ने बच्ची को चॉकलेट देते हुए उनके आने का कारण पूछा।
“मेरी पत्नी कोरोना वायरस से संक्रमित हो गयी है, अभी एम्बुलेंस वाले उसे अस्पताल ले गए हैं। उसे साँस लेने में दिक़्क़त हो रही है, जो इस महामारी का प्रमुख लक्षण है। मैंने अपना और अपनी बेटी का भी टेस्ट किया है, हम दोनों संक्रमण रहित हैं। फिर भी सावधानी की दृष्टि से मैंने मास्क पहन रखा है। मेरी बेटी की उम्र चार साल है, उसे मास्क की ज़रूरत नहीं है।”
“मुझे क्या करना है? आपकी कैसे मदद कर सकती हूँ? मुझे भी अफ़सोस है, इस महामारी से पूरा समाज भयभीत है। मेरे पति लॉकडाउन के कारण सिडनी में फँसे हुए हैं, फिर भी आप निसंकोच अपनी समस्या बतलाएँ।”
“मैं अपनी बेटी को आज रात आपके पास रखना चाहता हूँ। मेरे बुजुर्ग माता-पिता इसी शहर में रहते हैं लेकिन उन्हें सूचित करना उपयुक्त नहीं होगा, उन्हें घबराहट होगी। कल जैसा होगा, वैसा प्रबंध किया जाएगा।”
“ऐसी प्यारी बच्ची को रखने में मुझे ख़ुशी होगी, आप निश्चिंत रहें। सामाजिक रूप से यह मेरा कर्तव्य भी है।”
“धन्यवाद। मैं तुरंत अस्पताल के लिए प्रस्थान करूँगा। क्या मैं आपका फ़ोन नंबर जान सकता हूँ?”
“हाँ, क्यों नहीं? आप भी अपना फ़ोन नंबर दे दीजिए ताकि हम संपर्क में रहें।”
डॉ भार्गव चले गये। जब सावित्री ने पति को इस घटना से अवगत कराया तो उसने उसकी सूझबूझ की भरपूर प्रशंसा की। “ऐसे वक्त जीवन में कम ही आते हैं, तुमने भारतीय संस्कृति की लाज रख ली।”
दूसरे दिन डॉ भार्गव ने फ़ोन किया, “मैडम, मेरी पत्नी रातभर इमरजेंसी विभाग में थी। आज सुबह उन्हें ‘आई सी यू’ (ICU) में भर्ती किया गया है। मुझे भी वहाँ प्रवेश की अनुमति नहीं है, परेशान हूँ।”
“धैर्य रखिए, आप तो स्वयं डॉक्टर हैं। प्रयास कीजिए कि उनकी हालत की सूचना आपको मिलती रहे। आपकी बेटी मेरे साथ अच्छी तरह है, उसकी चिंता मत कीजिए। आज शनिवार है, मुझे कार्य से छुट्टी है; उसे नज़दीकी पार्क में ले जाऊँगी जहाँ प्रायः बच्चे खेलते हैं।”
“समय मिलते ही मैं आऊँगा। आपकी सौजन्यता के लिए हार्दिक धन्यवाद।”
एक घंटा के अंदर ही डॉ भार्गव को फ़ोन आया, “मैं मनीष हूँ, सावित्री का पति। मैं कल दोपहर तक पहुँच जाऊँगा। आप अपनी पत्नी का ध्यान रखें, वह अधिक ज़रूरी है। मेरा सुझाव होगा कि आज रात भी अपनी बेटी को सावित्री के साथ रहने दीजिए।”
“आपके सुझाव को ध्यान में रखूँगा। आपके अपनत्व के लिए धन्यवाद।”
डॉक्टर भार्गव दिन भर व्यस्त रहे, उनके क्लिनिक में भी कई फ़ोन आने लगे। कोरोना संक्रमण से बचने के लिए उन्होंने एक छोटा ऑडियो क्लिप तैयार किया और क्लिनिक के फ़ोन पर अपलोड कर दिया। क्लिनिक को फ़ोन करने वाले किसी भी व्यक्ति को समुचित सूचना और सुझाव देने के लिए यह एक उपयोगी साधन था।
संध्या काल समीप था जब डॉ भार्गव ने सावित्री को फ़ोन किया, “मेरी बेटी आज रात भी आपके साथ रहेगी, इस बोझ के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ।”
“बोझ कैसा? कृपया ऐसा मत सोचिए। मनीष का भी यही सुझाव था। आपकी लाड़ली बेटी खुश है, उसे किसी चीज की कमी नहीं होने दूँगी।”
“क्या मैं उससे बात कर सकता हूँ?” डॉ भार्गव भावुक हो गये।
“क्यों नहीं? फ़ोन उसके हाथों में देती हूँ।”
अगले दिन डॉ भार्गव अपने माता-पिता के घर गये और उन्हें पूरी जानकारी दी। बुजुर्ग दंपति को सदमा लगा, डॉ भार्गव ने उन्हें सांत्वना दिया। “यदि आपलोग मेरे घर चलें तो आकांक्षा को सहारा मिलेगा, दादा-दादी का प्यार उसके लिए संजीवनी का काम करेगा।” “हमलोग तो स्वयं ऐसा करते, तुमने हमारे दिल की बात कह दी। आत्मीय संबंधों में अनोखा आकर्षण होता है।”
शाम का समय था, मनीष और सावित्री चाय पी रहे थे। आकांक्षा एक सुंदर डॉल से खेल रही थी। तभी डॉ भार्गव ने प्रवेश किया। चाय की चुस्की लेते हुए उन्होंने अपने माता-पिता के आगमन की जानकारी दी और आकांक्षा को घर ले जाने की बात कही। “क्यों नहीं? आकांक्षा आपकी बेटी है। लेकिन एक निवेदन करना चाहूँगी।”
“कैसा निवेदन? खुलकर कहिए।”
“मैं आकांक्षा से कभी-कभी मिलना चाहूँगी। वह बहुत प्यारी लड़की है, उसका साथ हमें भी सुखद लगता है।” यह कहते हुए सावित्री की आँखों में ख़ुशी के आँसू निकल पड़े।
डॉ भार्गव भी भावुक हो गये। “मेरे घर का दरवाज़ा हमेशा आपके लिए खुला रहेगा। आकांक्षा आपकी बेटी के समान है, उसे भी यह दिन याद रहेगा।”
डॉ भार्गव को लगा जैसे उन्होंने एक झंझावात पार कर लिया है। उन्हें सूचना मिली : ‘आपकी पत्नी को साँस लेने में कठिनाई है, उन्हें ऑक्सीजन दिया जा रहा है, लेकिन वेंटीलेटर की ज़रूरत नहीं है। उम्मीद है उनकी स्थिति सुधरेगी किंतु स्पष्ट आश्वासन देना मुश्किल है।’ डॉ भार्गव को थोड़ी राहत मिली, लेकिन भविष्य की चिंता सता रही थी।
पत्नी को अस्पताल गए चार-पाँच दिन हुए थे तभी डॉ भार्गव को सूचना मिली कि उसे वेंटीलेटर पर रखा गया है। यह सुनते ही वे उद्विग्न हो उठे, अशुभ शंकाओं ने उन्हें घेर लिया। मानवीय कमजोरी को पराजित करना मुश्किल था ! उन्होंने भगवान को याद किया और समर्पण कर दिया। माता-पिता को जानकारी देते हुए अचानक कह बैठे “शायद उसका अंतकाल समीप है।” परिवार में निराशा की एक अज्ञात लहर दौड़ गई। दस दिन गुजर चुके थे जब उन्हें संदेश मिला : ‘आपकी पत्नी अब जीवित नहीं हैं, उनका मृत शरीर विशेष प्लास्टिक बैग में बन्द करके सीधे दाहगृह (funera। home) भेजा जाएगा और वहाँ के निदेशक अंतिम दाह संस्कार (cremation) का प्रबंध करेंगे।’ यह हृदयविदारक संवाद सुनते ही डॉ भार्गव रो पड़े, मानो उनके जीवन पर तुषारपात हो गया। शोक संतप्त परिवार को सावित्री ने सांत्वना देते हुए कहा, “जीवन में भयंकर तूफ़ान आते हैं, अपने प्रिय बिखर जाते हैं। कोरोना भी एक घातक तूफ़ान है, किसकी ज़िंदगी निगल जाएगा कोई नहीं जानता। धैर्य रखें, दुःख के समय गुजर जाएँगे।” उसने आकांक्षा को गले लगा लिया, उसके आँसू पोछ डाले।
वक्त का मरहम प्रभावी होता है, गहरे मानसिक घावों को भर देता है। डॉ भार्गव भी इसके अपवाद नहीं थे, धीरे- धीरे पुरानी दिनचर्या में व्यस्त होने लगे जिसमें रोगियों का इलाज करना भी शामिल था। दो महीना बीत चुका था, लेकिन कोरोना का क़हर फैलता रहा। संक्रमित रोगियों की बढ़ती संख्या के कारण अस्पतालों में डॉक्टर और नर्सों की माँग बढ़ गयी। बाहरी प्रदेशों से कुछ स्वास्थ्य कर्मी आने को इच्छुक थे लेकिन मुख्य समस्या थी उनके लिए आवास का प्रबंध करना। प्रशासन ने लोगों से आग्रह किया कि यदि संभव हो तो बाहर से आने वाले स्वास्थ्य कर्मियों को कुछ समय तक ‘पेइंग गेस्ट’ (paying guest) के रूप में रखें, समाज कल्याण के लिए यह योगदान प्रशंसनीय होगा। डॉ भार्गव ने भी यह सूचना पढ़ी। दूसरे ही दिन उन्होंने अपनी स्वीकृति भेज दी।
दो सप्ताह के अंदर ही यूरोप से आने वाली नर्स, नताशा, और उसकी पाँच वर्षीय बेटी को लेने डॉ भार्गव एयरपोर्ट पर मौजूद थे। “आप दोनों का स्वागत है।”
“शिष्टाचार के लिए धन्यवाद। यह मेरी बेटी रीबेका है, इसके आने की पूर्व सूचना आपको नहीं दे सकी थी।”
“अच्छा हुआ कि इसे आप साथ ले आयीं। मेरी बेटी आकांक्षा को प्रसन्नता होगी और मुझे भी है। मैं यूरोप में रह चुका हूँ, वहाँ की संस्कृति से परिचित हूँ। आपके ऊपर कोई औपचारिक बंधन नहीं है। आपके पति?”
“वे आर्मी में हैं, छुट्टी मिलने पर एक-दो सप्ताह के लिए यहाँ आयेंगे। और हाँ, आप यदि मुझे ‘तुम’ कहकर संबोधित करेंगें तो अच्छा लगेगा।”
घर पहुँचकर जब नताशा ने अपने लिए किए गये प्रबंध को देखा तो उसे ख़ुशी हुई, डॉ भार्गव को भी संतुष्टि हुई। मेलबर्न की हरियाली, स्वच्छ वायु, और अनुकूल जलवायु में नताशा को एक नयापन का बोध हुआ जो ख़ुशनुमा तथा आकर्षक था। उसने दूसरे ही दिन एक अस्पताल में अपना कार्यभार सम्भाल लिया।
नताशा ऊर्जावान थी, कार्यकुशल थी, दक्ष थी। शीघ्र ही सहकर्मियों के बीच उसने अपनी पहचान बना ली। घर के कामों में भी वह हाथ बँटाने लगी, ‘पेइंग गेस्ट’ होते हुए भी वह परिवार की एक सदस्या बन गई। डॉ भार्गव ने भी अपने प्रयास से रीबेका को उसी स्कूल में दाख़िला दिला दिया जिसमें आकांक्षा जाती थी। सप्ताहांत में मनीष और सावित्री भी प्रायः चाय-कॉफ़ी के लिए आते रहते थे; उन लोगों के बीच एक त्रिकोणात्मक मित्रवत् संबंध बन गया। ज़िंदगी सामान्य रूप से गुजरने लगी।
क़रीब तीन महीने बाद। कोरोना का प्रकोप क्षीण हो चुका था, लोगों में पुनः उत्साह का माहौल था। स्वास्थ्य कर्मियों के अथक परिश्रम और अभूतपूर्व योगदान के बिना ऐसा संभव नहीं होता। इसी क्रम में अस्पताल ने कुछ चिकित्सकों और नर्सों को पुरस्कृत करने का निर्णय किया जिनका योगदान अत्यंत सराहनीय था। आज वही दिन था, हॉल में हलचल थी, उपस्थित आगंतुकों में दो-चार मीडिया के लोग भी थे। नर्सों की श्रेणी में नताशा का नाम प्रथम था। प्रधान अधीक्षक ने पुरस्कार देते हुए कहा, “एक विदेशी नर्स की दक्षता और कार्यशैली से हम सभी प्रभावित हैं, उसने अपने ऊपर जोखिम उठाते हुए मरीज़ों की सेवा की है जो अनुकरणीय है।” तालियों की गूँज से हॉल भर उठा, मीडिया के लोगों ने नताशा की कई तस्वीरें खींची और उसका एक संक्षिप्त इंटरव्यू भी रिकॉर्ड कर लिया। दूसरे दिन अख़बारों में नताशा का सचित्र परिचय और उसके कार्य का विवरण प्रथम पृष्ट पर छपा। एक ही दिन में नताशा एक सेलिब्रिटी बन गई ! डॉ भार्गव ने उसे फूलों का एक गुच्छा देते हुए कहा, “बधाई। तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल हो।”
नताशा ने अख़बार में प्रकाशित समाचार का फोटो अपने पति को ईमेल पर भेज दिया, किंतु टेलीफोन पर बात नहीं हो सकी। ग्राहम का औपचारिक उत्तर आया ‘इस उपलब्धि के लिए बधाई’। नताशा को आश्चर्य हुआ, कि इस संदेश में प्रशंसा के दो शब्द नहीं थे, आत्मीयता की महक नहीं थी, प्रोत्साहन की झलक नहीं थी। आख़िर क्यों? क्या ग्राहम किसी चिंता में है? किसी मानसिक दबाव में है? …. वह दिन भर उदास रही, आज रात उसे नींद भी नहीं आई।
नताशा की उदासी डॉ भार्गव से छिपी नहीं थी, लेकिन उन्होंने कोई प्रश्न नहीं किया। अनावश्यक रूप से वे उसकी प्राइवेसी में दखल देना नहीं चाहते थे। फिर भी उन्होंने कह डाला, “सप्ताहांत में मेरे मित्रों ने एक डिनर पार्टी का आयोजन किया है जिसमें मनीष और सावित्री भी आयेंगे। क्या तुम भी आना पसंद करोगी?”
“यदि आप चाहते हैं तो स्वीकार है।”
डिनर टेबल पर वाइन का बोतल खोलते हुए डॉ भार्गव ने कहा, “आज का आयोजन मेरे दोस्त डॉ मोहन की तरफ़ से है, वे यहाँ के मशहूर मनोचिकित्सक हैं।” वाइन और नमकीन के साथ गपशप और थोड़ा हँसी-मज़ाक़ ने नताशा की मायूसी दूर कर दी, उसने भी अपनी ज़िंदगी के कुछ दिलचस्प पन्ने खोले। नताशा ने मानसिक रोग और इसके उपचार के विषय में जानने की जिज्ञासा की। डॉ मोहन ने कहा : “मानसिक रोग कब और कैसे होता है एक जटिल प्रश्न है, इसका कोई पैथोलॉजिकल टेस्ट नहीं है। कुछ लोग परीक्षा में फेल होने पर डिप्रेशन में चले जाते हैं; कुछ लोग नौकरी में प्रमोशन नहीं मिलने पर मानसिक संतुलन खो देते हैं; कुछ लोग पारिवारिक ईर्ष्या के शिकार हो जाते हैं। कुछ वर्षों से एक दंपति को देख रहा हूँ – पत्नी की उन्नति से पति को मानसिक वेदना होती है ! उनके बीच अलगाव की स्थिति भी आ सकती है।” अचानक नताशा के मन में प्रश्न उठा : क्या ग्राहम को उसकी उन्नति से ईर्ष्या है?
तीन सप्ताह के पश्चात। नताशा को ग्राहम का संदेश मिला : ‘मैं अमुक तारीख़ को मेलबर्न पहुँच रहा हूँ, एक होटल में बुकिंग करा लिया है, हम सभी वहाँ तीन-चार दिन साथ रहेंगे फिर सिडनी और गोल्ड कोस्ट चलेंगे। दस दिनों के बाद मैं लौट जाऊँगा। यदि तुम भी मेरे साथ लौट सको तो अच्छा होगा।’ नताशा ने लिखा : ‘तुम्हारे आने की ख़ुशी है, एक साथ छुट्टी बिताना एक टॉनिक के समान है जो संबंधों में नवीनता लाता है। लेकिन मैं तुम्हारे साथ लौट नहीं पाऊँगी क्योंकि अभी हॉस्पिटल में एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही हूँ। रीबेका का सेमेस्टर छह सप्ताह के बाद ख़त्म होगा, उसके पूर्व उसे स्कूल से हटाना उचित नहीं होगा।’
आज ग्राहम के स्वागत के लिए एयरपोर्ट पर नताशा मौजूद थी। “बहुत दिनों से तुम्हारी प्रतीक्षा थी” कहते हुए नताशा ने ग्राहम को गले लगा लिया। उनकी टैक्सी होटल की ओर चल पड़ी। लॉबी में मैनेजर ने नताशा को देखते ही कह डाला, “मैडम, आपका स्वागत है। आपसे मिलने की इच्छा थी जो आज पूरी हो गई।” नताशा ने विनम्रता पूर्वक धन्यवाद देकर अपना फ़र्ज़ निभाया। मैनेजर ने उनके लिए एक सुसज्जित कमरा आबंटित कर दिया। थोड़ी देर में एक कर्मचारी चाय कॉफ़ी और नमकीन लेकर पहुँच गया। ग्राहम को आभास हो गया कि नताशा एक सेलिब्रिटी बन चुकी है !
नताशा ने मेलबर्न से संबंधित कई बातों का ज़िक्र किया जिसमें अस्पताल, डॉ भार्गव और उनके मित्रों के आत्मीय व्यवहार की चर्चा शामिल थी। लेकिन उसे प्रतीत हुआ कि उनमें ग्राहम की दिलचस्पी का अभाव था। उसने सोचा लंबी यात्रा के कारण शायद ग्राहम को थकावट है; बायोलॉजिकल क्लॉक अनुकूल होने में एक-दो दिन लग सकता है। शयन कक्ष में भी गर्माहट की कमी थी, ग्राहम के बाहुपाश में शिथिलता थी। कई दिनों तक साथ रहने और भ्रमण के दौरान नताशा ने महसूस किया कि ग्राहम बातचीत करने में संयमित था, उसमें अंतर्मुखी होने के लक्षण दिखाई दे रहे थे। गोल्ड कोस्ट में होटल से निकलते वक्त अचानक एक युवक नताशा का ऑटोग्राफ लेने आ गया ! ग्राहम के चेहरे पर ग़ुस्सा का भाव उभर आया। नताशा के मन में पुनः वही प्रश्न उठा : क्या ग्राहम को उसकी उन्नति से ईर्ष्या है? इसकी नियति क्या होगी? चिंतित होना स्वाभाविक था।
दो महीने बाद। नताशा यूरोप लौट गयी। ग्राहम एयरपोर्ट पर मौजूद था लेकिन उसके चेहरे पर मलिनता थी। “क्या हम लोग लंच के लिए कहीं रुक सकते हैं?” “क्यों नहीं?” ग्राहम ने गाड़ी एक रेस्टोरेंट के सामने रोक दी।
“क्या खाना पसंद करोगे?” नताशा ने रेड वाइन का ग्लास ग्राहम की तरफ़ बढ़ा दिया।
“कुछ भी। जो तुम्हारी पसंद हो।”
नताशा ने बर्गर और चिप्स का ऑर्डर दे दिया। “तुम्हारे चेहरे पर उदासी है, ऑस्ट्रेलिया भ्रमण के दौरान भी मैंने ऐसा ही देखा था। क्या बात है? कोई तकलीफ़? हम लोग डॉक्टर की सलाह ले सकते हैं। मैं आ गयी हूँ, तुम्हारी देखभाल के लिए तैयार हूँ।”
“कुछ दिनों से मानसिक उलझन में हूँ, कारण मुझे स्वयं पता नहीं है। कभी-कभी स्वप्न में देखता हूँ हमारे रास्ते अलग हो रहे हैं। कल रात देखा था मैं एक ऊँचे पेड़ से गिर रहा हूँ। क्या स्वप्न सच्च होते हैं?”
“किसी मनोचिकित्सक से सलाह लेना उचित होगा। कोरोना के बाद अनेक लोगों के मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट हुई है, तुम भी एक बार संक्रमित हो गये थे। चिंता की कोई बात नहीं है, प्रसन्न रहने की कोशिश करो। तीन-चार सप्ताह में डॉ विल्सन से अपॉइंटमेंट मिल जाएगा।”
दो सप्ताह बाद। स्थानीय नर्सों के संगठन ने नताशा को सम्मानित करने के लिए एक आयोजन किया। उसमें कुछ अन्य गणमान्य व्यक्ति भी मौजूद थे। संगठन के प्रधान ने नताशा को सम्मान पत्र देते हुए कहा, “तुम कार्यकुशलता और लगन की प्रतीक हो, तुमने इस देश की ख्याति बढ़ाई है। तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल हो।” इसी बीच कोई बोल उठा “नताशा को इस संगठन में एक सम्मानित पद दिया जाए।” तालियों की गूँज से सभागार भर गया। उसे उप-सचिव बनाने का प्रस्ताव अनुमोदित हो गया। नताशा राष्ट्रीय स्तर की एक नायिका बन गयी ! शाम के टेलीविज़न समाचार का यह एक मुख्य विषय था। ग्राहम ने भी यह देखा, उसका मानसिक उत्पीड़न बढ़ गया !
एक सप्ताह के पश्चात नताशा ने ग्राहम को लिखा : “मेरे उतरदायित्व का दायरा बढ़ गया है, दो दिन पहले मुझे उच्च सरकारी अधिकारियों से बातचीत करने का अवसर मिला जो उत्साहवर्धक था। उम्मीद है कि स्वास्थ्य सेवा में सुधार के लिए मेरे कुछ सुझाव स्वीकार्य होंगे। मुझे अपनी प्रतिभा का स्वयं अनुभव नहीं था, अब इसकी तस्वीर देख रही हूँ। जीवन में बदलाव आते हैं, इसमें तुम्हारा साहचर्य चाहिए। तुम्हारी कृतज्ञ रहूँगी।
डॉ विल्सन ने दो महीनों के बाद तुम्हारे लिए अपॉइंटमेंट दिया है। एक वर्ष के अंदर तुम्हारी नौकरी या पारिवारिक जीवन में जो कुछ अप्रत्याशित हुआ है उसका विवरण उन्हें चाहिए। मानसिक गुत्थी को सुलझाने में यह सहायक होगा।”
ग्राहम ने इस संदेश को बार-बार पढ़ा, इसकी विवेचना करता रहा। कुछ संदर्भ स्पष्ट थे, कुछ अमूर्त थे। वह नताशा से मिलना चाहता था, लेकिन क्यों? इसका उत्तर उसके पास नहीं था। इसी उधेड़-बुन में एक महीना बीत गया। नताशा का दूसरा संदेश आ पहुँचा, वह ग्राहम की चुप्पी पर हैरान थी। अंत में ग्राहम ने लिख डाला : “मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि तुम सेलिब्रिटी बन चुकी हो, तुम्हारे क़द के सामने मैं बौना बन गया हूँ, स्वाभिमान खोने लगा हूँ, तुम्हारे साथ कहीं जाने में अपमानित महसूस करता हूँ। वस्तुतः तुम्हारी उन्नति मेरे मन में ईर्ष्या पैदा करती है ! मैं स्वयं नहीं जानता क्यों? यह एक मानसिक विकार हो सकता है जो मेरी लाचारी है। किसी भी निर्णय में दिल और दिमाग़ दोनों की सहमति चाहिए। यदि हम दोनों एक-दो वर्ष अलग रहें तो मुझे शांति मिलेगी और तुम्हारी प्रतिभा को भी उभरने का अवसर मिलेगा। हम दोस्त की तरह रह सकते हैं, दुश्मन की तरह नहीं। रीबेका की पढ़ाई का खर्च मैं वहन करूँगा, छुट्टियों में उससे मिलता रहूँगा। किसी भी दुर्गम परिस्थिति में मैं तुम्हारी सहायता के लिए हमेशा तत्पर हूँ।”
ग्राहम ने फिर लिखा, “मैं अपनी दवा ख़ुद हूँ, किसी डॉक्टर की सलाह लेना व्यर्थ है।”
तीन वर्षों के बाद।
शाम के समय डॉ भार्गव चाय पी रहे थे। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई।
“कौन?”
कोई उत्तर नहीं, दरवाज़े पर फिर वही दस्तक।
डॉ भार्गव ने दरवाज़ा खोला, सामने नताशा खड़ी थी। “तुम यहाँ? कैसे? अचानक?” डॉ भार्गव विस्मित थे।
“क्या अंदर आने की अनुमति है?”
“हाँ, क्यों नहीं? तुम्हारा स्वागत है।” अंदर आकर नताशा सोफ़ा पर बैठ गयी। डॉ भार्गव ने चाय बनाकर उसके सामने टेबुल पर रख दिया। उनके आँखों में वही प्रश्न थे, “यहाँ कैसे? अचानक?”
नताशा ने गंभीरता पूर्वक उन सभी बातों का ज़िक्र किया जिसका संबंध उसके जीवन से था, जिसमें ग्राहम के साथ हुए पत्राचार भी शामिल थे। कहते-कहते उसकी आँखों में आँसू आ गये, वह भावुक हो गयी।
“यह लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण का युग है। यह युग-प्रवाह का प्रतीक और भविष्य की राह है। मेरी सहानुभूति तुम्हारे साथ है,” डॉ भार्गव ने सांत्वना देते हुए कहा।
“मैंने यहाँ एक स्वयंसेवी संस्था में मुख्य प्रशासनिक अधिकारी का पद सँभाल लिया है, रीबेका को एक बोर्डिंग स्कूल में दाख़िला मिल गया है। मैं एक सप्ताह से होटल में हूँ, आवास खोज रही हूँ। यदि इसी मुहल्ले में मिल जाए तो उत्तम होगा।”
कुछ सोचते हुए डॉ भार्गव ने कहा, “तुम पुनः यहाँ ‘पेइंग गेस्ट’ की तरह रह सकती हो, लेकिन एक शर्त है।”
“कैसी शर्त?”
“मैं मकान का किराया नहीं लूँगा। बदले में शाम की चाय !”
नताशा अनायास हँस पड़ी। “मंज़ूर है !”
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