शिक्षक की परीक्षा
कौशल किशोर श्रीवास्तव
आज शिक्षक दिवस का पुनीत अवसर था। एक ऐसा दिन जब सारा समाज शिक्षकों के प्रति सम्मान व्यक्त करता है, बच्चों में ज्ञान और नैतिकता का बीजारोपण करने का दायित्व उनके ऊपर होता है। सुयोग्य और कर्मठ शिक्षक देश की रीढ़ होते हैं, भावी पीढ़ी के पथप्रदर्शक होते हैं। निश्चित ही शिक्षकों के व्यक्तित्व, विशेषकर उनकी ईमानदारी, पर समाज की पैनी नजर रहती है; समाज यह नहीं देखता कि उनकी न्यूनतम सुख-सुविधा के लिए समयानुकूल मापदण्ड के अनुसार पारिश्रमिक मिलता है या नहीं। लेकिन एक शिक्षक और विद्यार्थी के बीच जो भावनात्मक सम्बन्ध होता है वह धन-दौलत की चमक-दमक से ऊपर होता है, समय-समय पर यह अदृश्य बन्धन मुखर हो उठता है जो भारतीय संस्कृति की अमूल्य विरासत है। जब एक उच्च पदाधिकारी, विद्वान, धनवान या नेता अपने शिक्षक को झुककर प्रणाम करता है तब विरासत की वह रोशनी प्रखर हो जाती है, दूर-दूर तक फैल जाती है।
श्री अनमोल चन्द्र आज के दिन विद्यालय से लौट रहे थे। वे मन-ही-मन प्रसन्न थे, कई विद्यार्थियों ने खुले मंच से उनके शिक्षण और आडम्बर-रहित प्रेरणादायक दिनचर्या की प्रशंसा की थी। एक विद्यार्थी ने उनके कार्यालय में आकर उन्हें एक नया ‘पेन’ गिफ्ट किया था। उस समय जो बातें हुई वे सजीव हो रही थीं।
“नहीं मैं कोई तोहफ़ा नहीं लेता, यह मेरी कार्यशैली के विरुद्ध है; तुम्हारा स्नेह ही सबसे बड़ा तोहफ़ा है।”
“मैं कई दिनों से देख रहा था आपकी कलम से रोशनाई निकल रही थी, आपकी अंगुली में दाग लग जाते थे; मेरी कॉपी पर भी जब जाँच के पश्चात आप कुछ टिपण्णी लिखते थे।”
“तुम्हारी सद्भावना के लिए धन्यवाद, किन्तु मुझे यह कलम नहीं चाहिए। समझ लो मैंने इसे ले लिया और फिर तुम्हारी शैक्षिक प्रवीणता से खुश होकर इनाम में दे दिया। पुरस्कार देना वर्जित नहीं है।”
“आपसे शास्त्रार्थ करना मेरे लिए सम्भव नहीं है, आप पूज्य हैं। किन्तु आज मेरा अधिकार है – आज शिक्षक दिवस है। मेरी इच्छा का सम्मान करना शायद आपके लिए भी वांछनीय है।”
“क्या कहा? अधिकार? यह कैसे?”
“केवल आज के दिन। बाद में नहीं। हमारी परम्परा भी यही कहती है, तोहफ़ा और आदर-स्वरुप कुछ अर्पित करने में अन्तर है। शिक्षक को भगवान के तुल्य कहा गया है।”
थोड़ी देर सोचने के बाद उन्होंने कहा था, “तुम्हारे तर्क के सामने मैं अनुत्तर हो गया। ठीक है, मैं स्वीकार कर लूँगा। लेकिन कीमती होगी, तो नहीं।”
“यह केवल दस रुपये की है, मैं कभी आपसे झूठ नहीं बोल सकता।”
शिक्षक अनमोल चन्द्र अपने घर लौट रहे थे लेकिन उनके दिमाग में विद्यार्थी के साथ हुआ संवाद चक्कर काट रहा था; यह पहला अवसर था जब किसी ने अपने तर्क से उन्हें पराजित किया था। उन्हें ख़ुशी थी कि पराजित करने वाला उनका अपना विद्यार्थी था ! रास्ते में एक पेड़ की छाया में वे बैठ गए और अपनी पुस्तिका में उस संवाद को अंकित करने लगे, कागज़ उनका था कलम विद्यार्थी की थी। उस संवाद को वे भूलना नहीं चाहते थे – उसमें एक नयी सोच थी, एक नयी ऊर्जा थी। इसी बीच उन्हें लघुशंका के लिए जाना पड़ा, पुस्तिका और कलम को उन्होंने पेड़ के नीचे ही छोड़ दिया। जगह सुनसान थी, किसी के आने की आशंका नहीं थी। उनकी दृष्टि में ‘किताब और कलम’ में सरस्वती का निवास होता है, इसलिए इसे अशुद्ध स्थान पर ले जाना वर्जित था।
अचानक उन्होंने देखा कि एक बन्दर कहीं से आ टपका और उनकी कलम लेकर पेड़ पर चला गया। शायद बन्दर को कलम की चमक में कुछ नयापन दिखा और उत्सुकता वश उसने ऐसा किया। शिक्षक जी दौड़े लेकिन तबतक देर हो चुकी थी। वहाँ कई पेड़ थे, बन्दर छालंग लगाकर उनकी डालियों पर भागता रहा, शीघ्र ही नज़रों से दूर हो गया। वे देर तक बगीचे में कलम खोजते रहे किन्तु असफल रहे। संभावना यह भी थी कि कलम किसी पेड़ की डाली पर अटक गयी हो या चिड़ियों के घोंसला में फँस गयी हो। शिक्षक महोदय दुःखी मन से बैठ गए, उनकी आँखों से आँसू निकल पड़े।
तभी उन्होंने सामने आते एक भैंसा को देखा जिसपर आभूषण-जड़ित सुन्दर परिधान में एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति सवार था। वह कौन हो सकता है? वे सतर्क हो गए। भैंसा से उतर कर उस व्यक्ति ने पूछा, “हे पथिक, तुम कौन हो? क्यों दुःखी हो? तुम्हारी आँखों से अश्रु की धारा निकल रही है, कैसा विषाद है?”
“आप कौन हैं? इस सुनसान जगह में? कृपया अपना परिचय दीजिए। किसी अपिचित के साथ अपना दुःख-दर्द साझा करना अशोभनीय है।”
“मैं यमराज हूँ, लोग मुझे मृत्यु देवता भी कहते हैं। भैंसा मेरी सवारी है, शायद तुम जानते होगे। मैं भ्रमण करता रहता हूँ, ताकि मृत्यु पश्चात लोगों के प्राण को मैं ब्रह्मलोक तक पहुँचा सकूँ। उन्हें अगले जन्म में भेजना सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का दायित्व है।”
यमराज ने शिक्षक से पुनः कहा, “तुम्हारी उम्र लम्बी है, मुझसे मत डरो। अपने विषाद का कारण बतलाओ, शायद मैं कुछ मदद कर सकूँ।”
“हे यमराज, आपको कोटि-कोटि प्रणाम। आपके साक्षात दर्शन दुर्लभ हैं, फिर आपसे कुछ छिपाना मूर्खता है। मैं एक शिक्षक हूँ, इसी जीविका पर पूर्ण रूप से निर्भर हूँ।” इसके बाद शिक्षक ने कलम खोने की दु:खद घटना का वर्णन किया। “कलम सस्ती थी, किन्तु उसमें विवेक की रोशनाई थी।”
“मैं आपकी कलम खोजने की कोशिश करता हूँ,” कहते हुए यमराज अंतर्धान हो गए।
थोड़ी देर में प्रकट होते हुए उन्होंने कहा, “देखिए, आपकी कलम मिल गयी।” उनके हाथ में एक चमचमाती हुई सुन्दर कलम थी।
“नहीं महाराज, यह मेरी कलम नहीं है। यह अष्टधातु की बनी महँगी कलम है, ऐसी ही एक कलम शादी के उपरान्त मुझे ससुराल से मिली थी जिस पर पत्नी ने अधिकार जमा लिया। उस कलम से कभी लिखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। मैं यह कलम नहीं ले सकता।”
“ठीक है, मैं पुनः प्रयास करता हूँ,” कहते हुए यमराज अंतर्धान हो गए।
थोड़ी देर बाद प्रकट होकर बोले, “यह दूसरी कलम अवश्य आपकी होगी।”
“यह स्वर्ण से बनी और रत्नों से जड़ित कलम जरुर किसी राजा-महाराजा की होगी। मैं एक शिक्षक हूँ, ऐसी कलम रखना मेरी औकात के बाहर है। मैं इस कलम को लेने का अपराध नहीं कर सकता। कृपया क्षमा करें।” शिक्षक ने विनम्रता पूर्वक उत्तर दिया।
“अच्छा, एक अन्तिम प्रयास फिर करता हूँ,” कहते हुए यमराज विलुप्त हो गए। जब प्रकट हुए तो उनके हाथ में एक साधारण कलम थी।
शिक्षक ने उल्लासपूर्वक कहा, “यही मेरी कलम है। इसे खोजने के लिए मैं सदैव आपका आभारी रहूँगा।”
“मैं आपकी ईमानदारी के सामने नतमस्तक हूँ। मैंने सुना है पृथ्वीलोक पर लोभ, रिश्वत, और बेईमानी का साम्राज्य है; लेकिन आप जैसे लोग भी हैं। कृपया आप तीनों कलम रख लें – एक आपकी अपनी है और दो मेरी तरफ से पुरस्कार।”
“जैसी आपकी आज्ञा। मैं आपको वचन देता हूँ कि पुरस्कार में प्राप्त कलम को अर्थ कमाने के लिए कभी नहीं बेचूँगा। वे मेरे लिए आराध्य हैं।”
“हे शिक्षक महोदय, मैं आपको एक वरदान भी देता हूँ। किसी भी विपदा की स्थिति में मुझे सच्चे भाव से स्मरण करें – मैं उपस्थित रहूँगा।” यमराज अपने भैंसा पर सवार होकर तेज गति से आकाश मार्ग पर चल पड़े।
अनमोल चन्द्र जब घर पहुँचे तो पत्नी ने दरवाजे पर ही प्रश्न किया : “आज लौटने में इतनी देरी क्यों हुई? क्या शिक्षक दिवस की मिठाई अभी नहीं पची हैं? या प्रमोशन मिल गया है? बहुत खुश दिख रहे हो, क्या कारण है?”
“प्रिये, आज जो घटना घटी है वह अद्भुत है। अन्दर चलो, पूरी कहानी सुनाता हूँ।”
कहानी सुनकर शिक्षक महोदय की पत्नी स्तब्ध रह गयी। उसने यमराज से प्राप्त दोनों कीमती कलम को पूजा-पटल पर रखा, गंगाजल से प्रक्षालन किया, और पुष्प अर्पित किया। “मुझे भी प्रभु के आशीष का फल मिलेगा – मैं तुम्हारी अर्धांगिनी हूँ।” “क्यों नहीं? यही तो हमारी परम्परा है।”
आज की रात दोनों के लिए अर्थपूर्ण थी। एक तरफ शिक्षक असीम शांति महसूस कर रहे थे, तो दूसरी तरफ उनकी पत्नी इस अनहोनी घटना के सम्भावित प्रभाव से आशंकित थी और वह रात भर करवट बदलती रही। उन्होंने पत्नी से कहा, “त्रिवेणी संगम की पवित्र धारा में स्नान करने से तुम्हें शांति मिलेगी; वहाँ गंगा, यमुना, और सरस्वती का मिलन स्थल है। हमलोग चल सकते हैं, तैयारी में एक दिन लगेगा।” “सुझाव अच्छा है, मेरी सहमति है।”
आज दोनों व्यक्ति त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाकर आनन्दित महसूस कर रहे थे। सुबह की शीतल स्वच्छ वायु और उगते सूरज की लालिमा सुखदायक थी। पूर्ण स्नान के बाद दोनों किनारे लौट रहे थे, तभी जल की एक ऊर्जित लहर ने दोनों को अस्थिर कर दिया। शिक्षक तो प्रयास करके बाहर निकल गए, लेकिन उनकी पत्नी पानी के भीतर गुम हो गयी। अगल-बगल के कुछ तैराकों ने उन्हें खोजने की कोशिश की किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। शिक्षक जोर-जोर से रोने लगे, उनके जीवन की शक्ति विलुप्त हो रही थी। तभी उन्होंने भक्तिभाव से यमराज का स्मरण किया। अपने वादा के अनुसार वे प्रकट हो गए। “हे आदरणीय शिक्षक, आज कौन सी विपत्ति आ गयी?”
“मेरी पत्नी स्नान के दौरान में गुम हो गयी है। वह मेरे जीवन की संजीवनी थी, उसके बिना मेरा जीवन व्यर्थ हो जाएगा।”
“धैर्य रखिए, मैं खोजता हूँ।” इतना कहते हुए यमराज गंगा की धारा में प्रवेश कर गए।
जब प्रकट हुए तो उनके साथ एक कामिनी थी। उन्होंने शिक्षक से कहा, “आपकी पत्नी मिल गयी है, इन्हें घर ले जाईये।”
शिक्षक उस सुन्दरी को देखते रहे, उनके दिमाग में जटिल द्वंद्व चल रहा था। फिर उन्होंने हिम्मत करके कहा, “हाँ, यही मेरी पत्नी है।”
इतना सुनते ही यमराज गुस्से में बोल उठे, “शैतान शिक्षक, तुम्हें शर्म आनी चाहिए। किसी अपरिचित सुन्दरी को पत्नी कहते हो ! मैं अभी तुम्हें श्राप देता हूँ।”
“हे प्रभु, इसमें मेरी कोई गलती नहीं है। यदि मैं कहता कि यह मेरी पत्नी नहीं है तो आप दूसरी बार डुबकी लगाते और किसी उर्वशी को खोज लाते। मैं पुनः अस्वीकार करता तो आप तीसरी बार प्रयास करते और मेरी पत्नी को खोज लाते। उसके पश्चात तीनों को मुझे सौंप देते। मैं एक गरीब शिक्षक हूँ, कभी-कभी दो-तीन महीनों तक वेतन भी नहीं मिलता है। तीन पत्नी रखना मेरे सामर्थ्य के बाहर है; इसीलिए मैंने प्रथम कामिनी को ही पत्नी मान लिया। आप ही बताईये मैं क्या करता? बार-बार आपको बुलाना पड़ता जिससे आपका जीवन भी अशान्त हो जाता।”
शिक्षक का तर्क सुनकर यमराज गहरी परेशानी में पड़ गए। उनकी इज्जत भी खतरे में थी; पहली बार उन्हें एक विवेकपूर्ण ईमानदार शिक्षक से सामना हुआ था। “हे गुरुवर, मैंने जो अपशब्द कहे हैं उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। कल मैं पुनः इसी जगह आऊँगा, तब तक आप कामिनी को शरण दीजिए।”
“जैसी आपकी आज्ञा।”
यमराज चले गए। शिक्षक की मानसिक शांति को भी ग्रहण लग गया। “यमराज ने मुझे ‘गुरुवर’ कहकर संबोधित किया है, इससे बड़ा सम्मान क्या हो सकता है? उनकी इज्जत की रक्षा करना भी मेरा नैतिक दायित्व है। संभवतः यमराज मेरी परीक्षा ले रहे थे, लेकिन अपने ही जाल में फँस गए। मेरा विश्वास है कि मेरी पत्नी जीवित है, यदि नहीं भी होगी तो इसमें यमराज का क्या दोष? मैं पत्नी-वियोग सहन कर लूँगा, लेकिन अपने जमीर को कलुषित नहीं होने दूँगा। मुझे सुन्दरी से बात करनी चाहिए।”
कामिनी भी सोचमग्न थी : “इस व्यक्ति के शरण में एक दिन कैसे बीतेगा? बिलकुल अनजान, आदर्शवादी, विपन्न, और अनाकर्षक ! इसके साथ रहना तो अति कष्टदायक होगा। किन्तु यमराज का निर्देश कैसे टालूँ? उनकी प्रतीक्षा करनी होगी।”
“कामिनी, क्या सोच रही हो?” यह शिक्षक की आवाज थी।
“कुछ खास नहीं। आपको मैं किस तरह सम्बोधित करूँ?”
“मेरा नाम अनमोल चन्द्र है – इसी नाम से। एक दोस्त की तरह।”
“जब यमराज ने आपको ‘गुरुवर’ कहा है तो मैं भी … “
“नहीं, कोई औपचारिकता नहीं। फिर हम खुलकर बात नहीं कर सकते। यदि एक दिन से अधिक साथ रहना पड़े तो हम पुनः विचार करेंगे।”
“हम आज रात कहाँ बिताएँगे? यह चिन्ता मुझे खाए जा रही है।” कामिनी के स्वर में घबड़ाहट थी, अधीरता थी।
“मुझे तुम्हारी स्वाभाविक चिन्ता का आभास था। मेरा गाँव दूर है, वहाँ जाना मुश्किल है। यहाँ किसी धर्मशाला में जाने पर हमारे बीच के सम्बन्ध का खुलासा करना होगा, जिसका उत्तर हमारे पास नहीं है। क्या तुमने कुछ सोचा है?”
“नहीं, मेरी समझ से बाहर है। यमराज हम दोनों की परीक्षा ले रहे हैं ! आप शिक्षक हैं, विवेकशील हैं, आप ही कोई रास्ता बताईये।” कामिनी ने समर्पण कर दिया।
थोड़ी देर मनन के पश्चात शिक्षक ने संयमित भाव से कहा : “मेरी पत्नी कुछ पोशाक और खाने-पीने का सामान लाई थी, वह दो-तीन दिन यहाँ शहर में व्यतीत करना चाहती थी। तुम उनका इस्तेमाल कर सकती हो, ग्रामीण परिधान में तुम एक सामान्य महिला लगोगी और लोगों की तीखी नजरें तुमसे दूर रहेंगी। दिन का समय हमलोग सैलानी की तरह बिता देंगे। देखो, देश-विदेश के कितने पर्यटक इस मनोरम स्थान का भ्रमण कर रहे हैं। रात में एक वृक्ष के नीचे दीप जलाकर रामायण का पाठ करेंगे, यहाँ अनेकों साधु-संत ऐसा करते नजर आते हैं। गर्मी का मौसम है; धरती की गोद में अम्बर की चादर के नीचे विश्राम कर लेंगे। कल सुबह यमराज के आने का समय है, वे जरुर आयेंगे।”
“बहुत सुन्दर। रामकथा सुनने में मेरी भी रूचि है। आपकी वाणी मधुर है, कभी-कभी मैं भी सहयोग कर दूँगी। एक बात ….”
“तुम कुछ कहते-कहते रुक गयी। निःसंकोच कह डालो, मन का बोझ हल्का हो जाएगा।”
“कल क्या होगा मैं नहीं जानती। किन्तु मेरे मन में एक दुविधा उठती है। यमराज ने मुझे आपकी पत्नी के रूप में लाया और आपने स्वीकार कर लिया – कारण कुछ भी रहा हो। किन्तु मैंने अभी तक कुछ नहीं कहा है। मेरी श्रद्धा आपके प्रति है, लेकिन श्रद्धा और प्रेम में अन्तर है। क्या नारी की सहमति के बिना पति-पत्नी का सम्बन्ध बनाना न्यायोचित है?”
“मुझे सोचने का समय दो, तुम्हारा प्रश्न जटिल है। तैयार होकर अल्पाहार कर लो। भ्रमण पर निकलने का वक्त हो रहा है।”
संगम के किनारे टहलते हुए दोनों दूर तक निकल गए। सूरज की गर्मी बढ़ रही थी, संगम में स्नान करने वालों की संख्या घट रही थी। कुछ श्रद्धालु गायत्री मन्त्र पाठ करते हुए पूजा में संलग्न थे, गंगा की आराधना कर रहे थे। “अब लौट चलें, मैं थक गयी हूँ।” “क्यों नहीं? थोड़ी दूर पर एक घना वृक्ष दिख रहा है, उसकी छाया में थकावट दूर हो जाएगी।” वृक्ष की शीतल छाया और मंद पवन के प्रभाव से शीघ्र ही उनकी थकान दूर हो गयी।
“कामिनी, यमराज से तुम्हारी कहाँ मुलाक़ात हुई? किस अवस्था में तुम उनके साथ आने को तैयार हो गयी? क्या उन्होंने तुम्हें लाने का प्रयोजन बताया था?”
“मुझे कुछ याद नहीं है। मैं कौन हूँ? कहाँ से आयी हूँ? यह यमराज ही बताएँगे।”
शिक्षक के मन में जो आशंका थी, वह बलवती हो गयी। एक मृत शरीर को प्राण देकर यमराज ने जीवित कर दिया है, और मेरी परीक्षा के लिए उसे ले आये हैं। यदि ऐसा है तो मेरी पत्नी भी उनकी कृपा से जीवित होगी।
“क्या तुम स्वस्थ हो? क्या तुम्हारी याददाश्त ठीक है? तुम्हारे प्रश्न का समाधान मिल गया है, क्या सुनना चाहोगी?”
“मैं स्वस्थ हूँ, सचेत हूँ। आपके साथ हुई सभी बातें याद है। मैंने अपने मन में उठती दुविधा के बारे में आपसे प्रश्न किया था।” कामिनी बिना रुकावट के बोल गयी।
“तब ध्यान से सुनो। धार्मिक प्रवृति के लोग यमराज को भगवान का दूत मानते हैं, इसलिए उनके किसी भी आदेश को शिरोधार्य करने के लिए तत्पर रहते हैं। लेकिन मैं वैसे लोगों में नहीं हूँ, मैं किसी वस्तुस्थिति को अपने ज्ञान और विवेक की कसौटी पर तौलता हूँ। यही एक शिक्षक का कर्तव्य है और यही शिक्षा मैं विद्यार्थियों को देता हूँ। तुम्हें भी मैं यही सलाह देता हूँ। मेरी दृष्टि में पति चुनना नारी का निजी मामला है, और वही अधिकार पुरुष को भी है।” इसके साथ ही उन्होंने यमराज के साथ हुई अपनी पहली मुलाक़ात का वर्णन भी कर डाला।
“यदि मैं आपको अस्वीकार कर दूँ, तो क्या आपको दुःख होगा? क्या यमराज क्रोधित होंगे?”
“मुझे कोई दुःख नहीं होगा। मेरे अनुमान में यमराज भी क्रोधित नहीं होंगे, उन्हें पृथ्वीलोक का लोकाचार मालूम है।”
“अब मैं स्वतन्त्र हूँ।” कामिनी के स्वर में उल्लास था।
दूसरे दिन सुबह जब भगवान भास्कर क्षितिज पर उदय हो रहे थे, शिक्षक महोदय संगम में स्नान करने के लिए प्रस्थान कर रहे थे। कामिनी भी साथ हो गयी। स्नान के पश्चात वे आँखे बन्द कर ध्यान कर रहे थे, बगल में कामिनी ध्यानमुद्रा में खड़ी थी। जब उन्होंने अपनी आँखें खोली तो देखा बगल में उनकी पत्नी खड़ी थी; कामिनी गायब थी। तभी यमराज प्रकट होकर बोल पड़े “हे गुरुवर, आप ज्ञान, विवेक और नैतिक आचरण के प्रतीक हैं। आप परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए, मैं पराजित हो गया। आपकी आयु लम्बी हो।”
“आपको शत-शत प्रणाम !”
यमराज अंतर्धान हो गए। शिक्षक महोदय ने पत्नी को गले लगा लिया।
(संकेत : शिक्षक दिवस, 5 सितंबर, को समर्पित)