पीपल, पुरखे और पुरानी हवेली

– अलका सिन्हा

चैटर्जी लेन का यह सबसे पुराना, दो तल्ला मकान होगा जिसे समय के साथ नया नहीं कराया गया। नीचे-ऊपर मिला कर लगभग दर्जन भर कमरे। रसोई, बरामदा अलग। और सबसे बड़ी तो यह पिछवाड़े की बाड़ी…

मेरे होठों पर हल्की मुस्कान उभर आई। हां, ये लोग इसे बाड़ी ही कहते हैं। जब नई-नई ब्याह कर आई थी और पहली बार ये शब्द सुना तो बहुत अचरज हुआ।

“बाड़ी? ये क्या होता है?”

तब राघव मुझे पीछे वाली सीढ़ियों से नीचे ले गए,“ये है बाड़ी।”

“अरे बाप रे, ये जंगल?”

“कम-से-कम जंगल तो मत कहो!” राघव ने आपत्ति जताई थी।

अच्छी-खासी जगह थी, पांच-छः कमरों लायक। बहुत तरह की लताएं एक-दूसरे से लिपटी पड़ी थीं। एक तरफ आम तो दूसरी तरफ अमरूद के पेड़ लगे थे। पेड़ पर लटकता हुआ कटहल तो मैंने पहली बार ही देखा था।

“जंगल शब्द से आपत्ति है, तो सघन वन कह सकते हैं।” मैंने उनकी नाराजगी का लुत्फ उठाते हुए कहा था।

“हूं… कल बुलाता हूं, घास काटने वाले को।” उन्होंने पैरों के नीचे उग आई घास को देखते हुए कहा। घास सचमुच काफी बढ़ी हुई थी, हालांकि मेरा आशय घने पेड़ों से था, न कि बेतरतीब घास से।

“चलो, तुम्हें जंगल भी दिखा ही दूं…,” कहते हुए वे मुझे बाईं तरफ ले गए, “ये देखो।”

मैंने हैरानी से देखा, सीढ़ी की ओट में सटा वहां एक कुआं था। मैं दिल्ली में पली-बढ़ी थी और इस तरह खुला कुआं मैंने कभी देखा नहीं था। फिल्मों-विल्मों में जरूर देखा होगा मगर किसी के घर पर तो हरगिज नहीं देखा था। मैंने भीतर झांक कर देखा, नीचे जाता सुरंग-सा अंधेरा। मगर कुछ ही देर में पानी की सतह दिखाई देने लगी थी। पानी की हल्की हलचल भी सुनाई दे रही थी। मेरे लिए बहुत अद्भुत था यह सब। कुएं को लेकर मेरी जिज्ञासा राघव को बहुत उत्साहित कर रही थी। मैं कुएं में झांक रही थी कि अचानक छप्प की आवाज से कुछ ऊपर को छिटका। मैं चौंक कर पीछे हटी और घबराहट में लपक कर, सामने पीपल की छाया में जा पहुंची। मुझे डरा हुआ पाकर राघव भी मेरे पीछे-पीछे आ गए।

“क्या है उसमें?” मेरी आवाज में अभी भी घबराहट थी।

“मछलियां होंगी, मेंढक या सां….?” सांप कहते-कहते राघव रुक गए, “पानी में रहने वाले जीव तो पानी में ही रहेंगे न?”

“तो घर में कुआं बनना क्या जरूरी था?” मैं अभी भी उस अनदेखे जीव के भय से मुक्त नहीं हो पाई थी।

मगर राघव की नजर में इतना हैरान होने की कोई बात नहीं थी। गांव-घरों में कुएं-बावड़ी बनवाई ही जाती थी। प्याऊ बनवाना और लोगों के लिए पानी सुलभ कराना तो सदा से लोकहित का काम रहा है।

“हमारे भी पुरखों ने बनवाई थीं ऐसी बावड़ियां,” उन्होंने याद दिलाया, “घंटाघर रोड पर जो हौदी है न, वह भी बड़े बाबा ने ही बनवाई थी, गांव वालों के लिए।”

राघव अपने दादा को बड़े बाबा और पिता को बाबा कहते थे। राघव तब बहुत छोटे थे जब बाबा गुजर गए। मां ने अकेले ही राघव को पाला। मां का पढ़ना-लिखना काम आया और उन्हें बाबा के स्थान पर नौकरी मिल गई, मगर उस जमाने में औरतें घर से बाहर कम ही निकलती थीं। मां घर से ही अपना दफ्तर संभाल लेतीं। कोई अर्दली घर पर फाइलें लेकर आता और मां से दस्तखत करा के ले जाता।

राघव मां के प्रति बहुत संवेदनशील थे। पहली मुलाकात में ही तय कर दिया था, “तुम्हारी सब शर्तें मंजूर, मेरी बस एक शर्त है। मां को तुम्हारे व्यवहार से कभी चोट न पहुंचे।” 

मैं धीरे-धीरे स्थितप्रज्ञ हो रही थी। पीपल की ठंडी-ठंडी छांव भली लग रही थी। मैं वहां बैठने के लिए कोई ईंट वगैरह तलाशने लगी, तब तक राघव उसकी जड़ पर बनी गोलाकार पक्की जमीन पर बैठ गए। मैं भी वहीं जा धंसी।

“इसकी चौड़ाई थोड़ी और होती तो…” मैंने धीरे से कहा।

“मिस्त्री को भी बुलाता हूं कल, इसे थोड़ा और ऊंचा भी करवा देंगे।”

अगले दिन घास तो कट गई मगर मिस्त्री नहीं आया। पीपल के नीचे का ये पाट आज भी वैसा ही है।

अपने ख्यालों में गुम मैं पीपल के नीचे जा पहुंची थी और जैसा मेरा अनुमान था, पीयूष वहीं बैठा था, उसी गोलाकार जमीन पर।

“पीयूष, पापा बुला रहे हैं। जल्दी जाओ।”

मेरी ही तरह पीयूष को भी यहां बैठना बहुत पसंद है। मुझे पता है, जब दो आवाज लगाने पर भी इसकी तरफ से कोई जवाब न आए, तो समझ लो कि ये यहां बैठा है, पीपल के नीचे। उसे तो भेज दिया मगर खुद पीपल की सघन स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पाई। कुछ देर वहीं जा टिकी, सीमेंट के उसी गोलाकार फर्श पर।

हां, तो अगले दिन घसियारा आया था। बाड़ी की घास काट कर बराबर कर गया। माली बुलवा कर बेतरतीब बढ़े पेड़ों की छंटनी भी करा दी गई थी। सूरज की रोशनी भीतर तक आने लगी थी। बहुत अच्छा लग रहा था। मजे की बात यह थी कि पीपल का पेड़ ऐसी जगह लगा था कि वहां सर्दियों में अच्छी धूप आती जबकि गर्मियों में सुबह दस बजे के बाद सूरज उस तरफ झांकता भी नहीं। यानी मौसम कोई भी हो, यहां बारहों महीने बैठा जा सकता था। लेकिन नीचे बैठने में मैं थोड़ा असहज थी। दिक्कत कोई नहीं थी, बस, मैं इस तरह जमीन पर कभी बैठी जो नहीं थी। मैंने जब राघव से मिस्त्री के बारे में पूछा तो उन्होंने मुंह पर उंगली रखते हुए मना कर दिया, “मां नहीं चाहतीं।”

मैं खामोश हो गई। मां ने शायद ही हमारी किसी बात में रोक-टोक की हो। मां बहुत ही शांत और संयत स्वभाव की थीं। मैं कई बार सोचती कि काश, वे मुझे अपनी बेटी मानकर मेरे सामने अपना मन उलीच देतीं। मगर लगातार चुप रहने की आदत उनके स्वभाव का हिस्सा बन चुकी थी।

पिछले कुछ समय से या कहो, अपनी रिटायरमेंट के बाद से उन्होंने अपनी कुर्सी और मेज ऊपर वाले कमरे में मंगवा ली थी। यह वही कुरसी थी जिस पर बैठ कर मां दफ्तर की अहम् फाइलें देखा करती थीं। पहले यह कुरसी निचली मंजिल पर बने ऑफिस वाले कमरे में रहती थी। मुख्य द्वार के साथ लगा यह कमरा ऑफिस कहलाता था। जब दफ्तर का मुलाजिम फाइलें लिए घर आता तब यही कमरा खुलवा दिया जाता। नीचे चाय, बिस्कुट भेज दी जाती। उसके बाद मां नीचे जातीं और इसी कुरसी पर बैठ कर फाइलें देखतीं। कहीं कुछ शंका होती तो पूछतीं वरना दस मिनट में फाइलें निपटा कर ऊपर लौट आतीं। रिटायर होने के बाद यह कमरा लगभग बंद ही हो गया।

समझ सकती हूं, बाबा के जाने के बाद से मां घर में अकेली औरत रह गईं। छोटे से बच्चे के साथ उम्र का लंबा दौर काटना कोई कम बड़ी चुनौती न रहा होगा। ये ऑफिस वाला कमरा बहुत तरह से मां के लिए ढाल का काम करता था। वे खुद ऊपर की मंजिल पर रहती थीं। नीचे के कमरों में घर-परिवार वाले कुछ किराएदार रहते थे। कमरे भले खाली रहें मगर कभी किसी अकेले लड़के-लपाड़े को नहीं रखा। उन्होंने खुद को कछुए की कठोर खोल के भीतर सहेज लिया था। बेहद नियंत्रित और स्वतः संचालित। उन्हें कभी खुश नहीं देखा तो कभी बिफर कर टूटते भी नहीं देखा। एक तटस्थता उनके व्यक्तित्व का हिस्सा थी।

रिटायरमेंट के बाद उन्होंने अपनी कुरसी ऊपर के ही कमरे में रखवा ली। खिड़की से सटी उस मेज के सामने रखी उस कुरसी पर वह घंटों बैठी रहतीं। कभी खिड़की से बाहर देखतीं तो कभी वहां रखे लंबे रजिस्टर में कुछ लिखा करतीं। पहले सोचा कि ऑफिस का हिसाब-किताब निपटाती होंगी पर जब ये सिलसिला लंबा चलता रहा तब उत्सुकता बढ़ने लगी।

“कोई कहानी लिख रही हैं क्या मां?” आखिर मैंने पूछ ही लिया एक दिन। जवाब में मां मुस्करा भर दीं।

मैं साहित्य की विद्यार्थी रही थी और फिक्शन में मेरी भी दिलचस्पी थी। वह लंबा रजिस्टर मुझे आकर्षित करने लगा। जब तक ये टेबल कुर्सी नीचे ऑफिस वाले कमरे में थी, तब तक तो मैंने कभी नोटिस नहीं लिया मगर अब मैं जब भी कमरे की साफ-सफाई करने आती तो खिड़की से सटी यह कुरसी मुझे आमंत्रित करती मालूम पड़ती। मैं ललक कर उस ओर जाती मगर उस कुरसी में कुछ ऐसा था कि जो मां के पद की गरिमा से जुड़ा था, मैं उस पर बैठ नहीं पाती, ठिठक कर खड़ी रह जाती। ऐसा लगता, कोई मुझे पिछले जन्म के संबंध-सा उस ओर खींचता था। हां, वह था लंबा रजिस्टर जिसके भीतर से दबी हुई आहटें मुझे आवाज देती थीं।

एक दिन मैं मां का बिस्तर झाड़ रही थी। मां बाथरूम में थीं। जाने किस आकर्षण से मैं मेज के सामने खड़ी हो खिड़की से बाहर देखने लगी। सामने बाड़ी में खड़ा पीपल का पेड़ लहरा रहा था। बहुत मोहक अनुभूति हो रही थी। पता ही न चला, मैं वहां कब तक खड़ी रही। कब मेरे हाथ मेज पर रखे रजिस्टर को सहलाने लगे और मैं उसके पन्ने पलटने लगी… उन पन्नों में झांकती कहानी की उंगली थाम मैं जैसे अंधेरे कुएं में प्रवेश करती जा रही थी… छप्प की आवाज़ जो उस दिन कुएं से आई थी, वैसी कई अनजान आवाजें मुझे अपरिचय से परिचय की ओर ले जाने को बेताब थीं… अनसुलझी पहेलियों से जुड़े रजिस्टर के शब्द धीमी-अनसुनी आहटों के साथ मुझे बीते समय की अंतर्गुफाओं में लिए जा रहे थे…

…बाबा मां से लगभग दस साल बड़े थे। मां बाबा की दूसरी पत्नी थीं। मां को पढ़ने का बहुत शौक था। इसी चक्कर में उन्होंने देर तक शादी नहीं की। उस जमाने में बीस से ऊपर की लड़की कुवांरी रह जाए तो दस बातें होती थीं कि जाने क्या खोट होगा जो अब तक शादी नहीं हुई। मां का भी ऐसा ही था। वो बाइस पूरे कर चुकी थीं और अब लड़का मिलने में दिक्कत हो रही थी। आखिर नानाजी ने यहीं रिश्ता पक्का कर दिया। बाबा दुहाजू तो थे मगर पहली पत्नी से कोई संतान नहीं थी और उस पत्नी को गुजरे भी चार-पांच साल बीत चुके थे। बाबा का घर काफी संपन्न और पढ़ा-लिखा था…

अब मुझे रजिस्टर को पढ़ने का चस्का लग गया था। मैं अकसर तब इस कमरे में आती जब मां नहाने गई होतीं। धीरे-धीरे उस थोड़े से समय में एक जीवन खुलता जा रहा था। वह मन मेरे सामने उभरता जा रहा था जिसे अक्षर-अक्षर पढ़ने की चाह पहले दिन से मेरे मन में थी…

…बाइस वर्ष की मां जब ब्याह कर इस घर में आईं तो बहुत खुश थीं। बाबा के रूप में उन्हें समान सोच वाला साथी मिल गया था। उम्र का फासला आड़े न आया, वे एक दूसरे के साथ खूब बतियाते। वे दोनों बाड़ी में कुएं से सटी सीढ़ियों की ओट में घंटों बैठे रहते और कनेर की मदमाती गंध अपनी सांसों में भरते। मां को कनेर की महक बहुत भाती थी। बाड़ी में एक भी कनेर खिला होता तो उसकी सुगंध ऊपर तक आ पहुंचती। पूजा-पाठ में मां कनेर का फूल जरूर चढ़ातीं। पूरा घर गमगमाता रहता। एक रोज बाड़ी में पानी पटाते हुए मां ने थक कर कहा, “कितनी बड़ी है यह बाड़ी, पानी पटाते-पटाते ही प्राण निकल जाएं।”

बाबा ने झट मां के मुंह पर हाथ रख दिया, “फिर कभी ऐसी बात न कहना, मैं बाड़ी ही हटा दूंगा।”

“मेरा वो मतलब नहीं था…” मां ने बहुतेरा समझाया कि बाड़ी में तो प्राण बसते हैं उनके। तब कहीं जाकर बाबा ने बाड़ी हटाने का निश्चय वापस लिया। मगर उन्होंने कुएं से जोड़ते हुए जमीन के भीतर-ही-भीतर कुछ इस तरह से पाइप की फिटिंग कराई कि न केवल पूरी बाड़ी में बल्कि ऊपर वाले गुसलखाने में भी अपने आप ही पानी पहुंचने लगा। अब वहां पानी पटाने के लिए कुएं से बाल्टी खींचने की जरूरत नहीं थी।

बाबा मां का बहुत ध्यान रखते थे, उन्हें किसी तरह का कष्ट नहीं होने देते। एक तो कि वे अपनी पहली पत्नी को खो चुके थे दूसरा कि वे मां को बहुत प्यार करते थे। बाबा की तरह मां को भी साहित्य, संगीत में बहुत रुचि थी।

मां को गाने का शौक था। संगीत सिखाने गुरु जी घर पर आया करते। मुख्य द्वार की सीढ़ी के साथ, पहली मंजिल पर बना, कोने का कमरा मां का संगीत कक्ष था। किसी बाहरी व्यक्ति को ऊपर आने की छूट नहीं थी, मगर मां की सुविधा और गुरु जी के आदर स्वरूप सीढ़ी के साथ लगा पहला कमरा संगीत के लिए सुरक्षित कर दिया गया था। बाहरी व्यक्तियों में बस गुरु जी ही थे जो ऊपर तक आते, मगर बस, पहले कमरे तक, भीतर नहीं। मां रोज एक-से-एक बंदिश लेकर गुरु जी के पास हाजिर होतीं जिसे गुरु जी सुर में बांधते और वे बड़े शौक से गाया करतीं।


एक दिन गुरु जी ने पूछ लिया कि ये खूबसूरत शब्दावली किसकी है तो मां ने बताया था कि ये पद बाबा का लिखा था। बस, फिर क्या था। गुरु जी ने बाबा को भी साथ बिठा लिया। उनके लिए तबला-डुग्गी लाया गया। फिर तो संगत बैठने लगी। तीनों के मिलने से मंडली पूरी हो गई। मां सितार बजातीं और गातीं, बाबा तबले पर थाप देते और गुरु जी हारमोनियम पर संगत करते।

उस दिन मां दिन भर गुनगुनाती रहीं – ना कह पाया मन की बात, बीत गई सखि सारी रात…

गाने में मगन मां खाना बना रही थीं कि अचानक बाबा दरवाजे की ओट से गीत सुनते हुए पकड़े गए।

“अच्छा जी, चोरी से सुनते हैं मेरा गीत?” मां ने उलाहना दिया।

“चोरी तो तुमने की है मेरे गीतों की…”बाबा तुनक कर बोले थे।
“अच्छा कौन-सी बात है जो कह न पाए अब तक?” मां ने इसरार से पूछा था और वह रात तारों जड़े आसमान के नीचे बातों में कट गई।

जब भोर का पंछी चहका तो दोनों का ध्यान टूटा।

“ना कह पाया मन की बात, बीत गई सखि सारी रात…” बाबा ने भोर का तारा देखते हुए दोहराया था।


उस रोज भी बाबा ने एक और गीत लिखा था, वह भी अधूरी बात और मुलाकात का था। मां लिखती हैं कि शायद उन्हें भान हो गया था कि उनके पास समय कम है।

इतना सब पढ़ने के बाद मैं खुद को रोक नहीं पाई और एक रोज चुपके से मैंने सीढ़ी के साथ वाला कमरा खोल दिया… जरीदार साड़ी में लिपटा सितार अलमारी के साथ लगी दीवार से सटा पड़ा था, जिसकी बगल में तबला-डुग्गी ढका था। सामने की तरफ हारमोनियम रखा था… सभी वाद्य मां की रेशमी साड़ियों से ढके थे। सुंदर जड़ाऊ, रेशमी साड़ियां, जो मां उन दिनों पहना करती होंगी। लगा जैसे हारमोनियम पर गुरुजी बैठे हैं, दूसरी तरफ तबले पर बाबा और उनकी बगल में दुल्हन-सी सजी मां हाथ में सितार थामे मधुर तान में गा रही हैं। मेरे पांव सितार की तरफ खिंचते चले गए। मैंने उत्सुकता से उस पर पड़ी साड़ी को उघाड़ा तो जैसे ‘झन्न’ की आवाज से कमरा झंकृत कर उठा हो। घबरा कर मैं पीछे को पलटी। जल्दी से कमरा बंद कर बाहर आ गई।

मेरा पूरा शरीर तरंगित था। पिछवाड़े की सीढ़ी पार कर मैं कुएं के पास जा पहुंची। कुएं के तल का पानी झिलमिला रहा था, धुंधले-धुंधले दृश्य उभर रहे थे… छन्न-छन्न की ध्वनि के साथ जड़ाऊ साड़ी में लिपटी मां की झलक दिखाई दे रही थी… मोहक तान में डूबी मैं बाड़ी में टहलने लगी। गुड़हल, कनेर और चांदनी के फूलों से लदी समूची बाड़ी मेरे साथ थिरकने लगी… पीपल भी जैसे मेरे भीतर चल रहे संगीत पर झूमने लगा… हवा भी जैसे लयबद्ध हो कर बह रही थी…

‘कह ना पाया मन की बात, गुजर गई सखि सारी रात…’ मेरे होंठ फड़कते हैं, धुन टटोलते हैं, मैं गाने की कोशिश कर रही हूं कि कोई टोकता है – ‘कह ना पाया’ नहीं, ‘ना कह पाया’ और ‘गुजर’ की जगह ‘बीत’ कहो।

“क्या अंतर है दोनों में?” मैं हैरानी से पूछती हूं।

“ना कह पाया, में जो मलाल है, वह कह ना पाया, में नहीं।” अंतर्मन में कोई समझाता है, “यानी बातें तो बहुत-सी कीं पर मन की बात फिर भी न कह पाने का मलाल रह ही गया…”

“अच्छा।”

मैं मान लेती हूं, “मगर गुजर गई और बीत गई, तो एक ही बात है?”

“शब्दावली का अंतर है…” पीपल का एक सुनहला पत्ता ठीक मेरे सर पर टपका। जैसे बाबा ने प्यार से थपकाया हो, “ये बंदिश देसज शब्दों की है, यहां गुजरना शब्द सटीक नहीं बैठता…”

“बात तो सही है!”

मैं पीपल की छाया में बैठ गई। एक अनसुनी धुन मन में गूंजने लगी।

हालांकि, इससे पहले मैंने कभी शास्त्रीय संगीत को ध्यान से सुना भी नहीं था। हां, राघव के जन्मदिन पर हम जरूर होटल सुर-सरगम जाया करते जहां खाने के साथ संगीत भी सुना जाता। वहां देखा था मां को आंखें मूंदकर संगीत में विभोर होते हुए। मैं तब भी संगीत तो नहीं पता कितना समझ पाती थी मगर मां की तल्लीनता का सुख जरूर उठाया करती। बाबा के बाद बाकी तो सब खत्म हो गया मगर मां ने यहां आना नहीं छोड़ा। वर्ष भर का बस यही एक दिन होता जब मैं मां को थोड़ा-सा खुलते हुए देखती।

रजिस्टर मेरे हमराज-सा मुझ से बहुत कुछ साझा करने लगा था…

जब लंबे समय तक मां की गोद नहीं भरी तो पास-पड़ोस में बातें होने लगीं कि पिछली पत्नी का श्राप लगा है, इनका वंश आगे न बढ़ेगा… मां-बाबा इन बातों पर ध्यान देने के बदले संगीत में खोए रहते।

एक दिन संगीत की आवाज सुनकर पिछवाड़े के जोगिया टोले से माधव नाम का एक नवयुवक बाबा के पास आया। उसने बताया कि वह संगीत के दम पर कुछ करना चाहता है जबकि उसके पिता ढाबा चलाते थे और उससे भी यही उम्मीद करते थे। बाबा ने बीच का रास्ता निकाला और सलाह दी कि वह एक ऐसा रेस्तरां खोले जहां भोजन के साथ लाइव गीत-संगीत भी चलता हो। ‘सुर-सरगम’ नाम भी बाबा का ही दिया था। नए कॉन्सेप्ट का यह रेस्तरां सचमुच चल निकला। माधव के पिता ने बाबा को लाखों आशीषें दीं। यह उनका आशीष ही समझो कि इस घटना के साल भर के अंदर ही राघव का जन्म हुआ और उधर यह रेस्तरां सुविधा संपन्न होटल में बदलने लगा। मां ने राघव को माधव के पिता का आशीर्वाद माना और माधव की तर्ज पर ही इनका नाम राघव रखा।

मां के जीवन में बहुत संघर्ष रहा पर मां ने कभी शिकायत नहीं की। बाबा के साथ बिताए थोड़े समय को उन्होंने लंबी यात्रा से बढ़कर माना और भाग्य की विडंबना को ईश्वर के दिए प्रसाद की तरह स्वीकारती रहीं।

हां, अब वे गाती नहीं थीं, बाड़ी की तरफ आना बिलकुल ही बंद हो गया, कनेर के फूल बेरौनक हो गए। वे ऊपर बने बाथरूम का इस्तेमाल करने लगीं और ये कुआं और बाड़ी उपेक्षित-से पड़ गए।

बाड़ी से निकल कर मैं ऊपरी तल्ले के आंगन में चली आई। कुएं से सटी सीढ़ियों पर देखा, कबूतर का एक जोड़ा एक-दूसरे के साथ चुहल कर रहा है। एक गिलहरी कुएं की जगत पर दौड़ लगा रही है। सूखे पत्तों की चरमराहट से ठिठक पड़ती गिलहरी सहम कर दाएं-बाएं देखती, फिर दौड़ लगाने लगती। पता नहीं, उसे कहां जाना है। वह कुएं से पीपल और फिर पीपल से कुएं की तरफ गश्त लगा रही है। मैं अपने भीतर अजीब-सी बेचैनी महसूस कर रही हूं।

मां का स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा है। मेरे भीतर कोई कह रहा है कि उनका साथ बहुत दूर तक का नहीं रहा है। मां की उम्र तो साठ से कुछ ही ऊपर है मगर चेहरे पर असमय पड़ी लकीरों में सुदीर्घ यात्रा की कितनी कहानियां दफ्न हैं।

मेरी निगाह मां के कमरे की तरफ आ टिकी है। खिड़की का पल्ला फट्-फट् कर रहा है। मैं आगे बढ़कर खिड़की का पल्ला टिकाना चाहती हूं तो पाती हूं कि उसकी एक तरफ की चिटकनी टूट गई है। खट्खट् की यह आवाज बेहद नागवार है। नीचे पड़ा छोटा-सा पत्थर उठा कर मैंने खिड़की के पल्ले में अटका दिया। आवाज थम गई। पल्ला स्थिर हो गया। खिड़की से दिखाई पड़ती लकड़ी की मेज और कुरसी कितने बेबस मालूम पड़ रहे हैं।

रजिस्टर के पन्ने, खिड़की से आती हवा में फड़फड़ा रहे हैं। ओह, मैंने आज रजिस्टर खुला छोड़ दिया क्या? ऐसी भूल कैसे हो गई? हवा के झोंके तेजी से रजिस्टर के पन्ने पलटते जा रहे हैं। गश्त लगाती गिलहरी ऊपर आंगन में आ पहुंची है और इधर से उधर भटक रही है… शांत रहने वाला पीपल भी आज बेचैन-सी आवाज कर रहा है। जैसे कोई किवाड़ तोड़ कर अंदर आना चाहता हो…

“वृंदा….” राघव ने असहाय स्वर में मुझे आवाज दी।

किसी अनहोनी की आशंका से दौड़ती हुई मैं मां के कमरे में दाखिल हुई।

“कुछ जरूरी बात कहनी है,” मां का स्वर हांफ रहा था।

“जरूर कहिएगा, मगर थोड़ी सांस तो ले लें,” मैं उनका सिर दबाने लगी।

“नहीं दुल्हन, सांसे पूरी हो रही हैं। इतने में ही बात भी पूरी करनी है मुझे…”

‘ना कह पाया मन की बात, बीत गई सखि सारी रात…’ कहीं दूर किसीने तान भरी हो जैसे…

मां ने बताया कि वे नहीं चाहतीं कि मरने के बाद उनके अंतिम संस्कार पर लकड़ियों के गठ्ठे बरबाद किए जाएं। उन्होंने इच्छा रखी कि उनके शरीर को विद्युत् शवदाह गृह को सौंप दिया जाए और अस्थि-कलश नदी में विसर्जित न किया जाए।

मैं हैरानी से देख रही थी कि अपनी जिंदगी की सांझ का दिया वे अपनी तरह से बुझाना चाहती थीं। कुछ इस तरह कि बुझने के बाद भी कहीं कालिख न रहे। मन को संयत रखते हुए हम उनकी वसीयत सुन रहे थे जो वह अपनी आने वाली पीढ़ियों के नाम छोड़े जा रही थीं।

“सुनो, मेरी राख भी वहीं पीछे बाड़ी में पीपल के नीचे ही दबा देना…” उन्होंने राघव की ओर कातर निगाहों से देखा, “फिर पीपल का पाट चौड़ा भी करा देना और ऊंचा भी”

मैं स्तब्ध थी, “तो क्या बाबा भी…?”

मेरे शरीर में झुरझुरी उतर आई।

“तुम्हारे बाबा की राख को नदियों में बहा कर जल को प्रदूषित नहीं किया मैंने।” मां कह रही थीं, “उस राख को वहां बाड़ी में दबा कर उस पर पीपल का पेड़ लगाया जिसकी हवा तुम सभी को बहुत भाती है।”

हम सभी अविश्वास से उनकी ओर देख रहे थे।

हवा ने एक खास लय में हामी भरी… जैसे वह अपना आभार प्रकट कर रही हो!

हुनहुना रे… हुनहुना… हुनहुना रे… हुनहुना… हवा गा रही थी…

…जैसे डोली उठाते समय कहार गाते हैं!

खिड़की के पार पीपल उन्मत्त झूम रहा था।

धितंग… धितंग… खिड़की का पल्ला फिर बजने लगा था, उसके पल्ले में अटकाया पत्थर वहां से निकल गया था।

मां के होठ अस्फुट स्वर में फड़फड़ा रहे थे… वो क्या कह रही थीं, हम नहीं समझ पा रहे थे। मैंने आगे बढ़कर खिड़की का पल्ला बंद करना चाहा कि अचानक निकली हिचकी की ध्वनि ने मुझे दो कदम पीछे धकेल दिया, ठीक वैसी ही ध्वनि जैसी उस रोज कूएं से निकली थी और मैं सिहर गई थी… बिलकुल वैसी ही सिहरन जो मैंने संगीत कक्ष में सितार पर ढकी साड़ी उघाड़ते समय महसूस की थी…

पीपल के पत्तों से तबले की थाप सुनाई दे रही थी… और हवा से उड़ कर कोई जरीदार चूनर पीपल के पेड़ पर आ टंकी थी…

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