ई-मुलाकात@फेसबुक.कॉम
– अलका सिन्हा
20 अगस्त, 2013
याद नहीं रखा तो भूल भी नहीं पाई कि आज की ही तारीख को रात नौ बजे का समय मुलाकात के लिए तय किया गया था। फेसबुक के प्रति मेरी अकारण अनिच्छा से मैं इसे बहुत गंभीरता से नहीं ले रही थी, फिर भी, इस संदेश में एक प्रकार का आकर्षण तो था ही कि आज रात नौ बजे, केन्द्रीय विद्यालय, आर के पुरम, नई दिल्ली, 1982 बैच के सभी स्टूडेंट्स एक साथ फेसबुक पर उतरने वाले थे। एक अजीब-सी उत्सुकता थी। हरीश ने अपने प्रयासों और दोस्तों की मदद से पुराने साथियों के संपर्क हासिल किए थे और कोई पंद्रह-बीस दिन पहले हर किसी को फेसबुक के जरिये सामूहिक मुलाकात के लिए आमंत्रित किया था। तारीख और समय तय करने से पहले हरीश ने सभी की उपलब्धता इस प्रकार सुनिश्चित की थी गोया हम कहीं बाहर मिलने वाले हों। मैं ठीक-ठीक आकलन नहीं कर पा रही थी कि आभासी दुनिया की ये पार्टी क्या वास्तव में कोई सूरत अख्तियार कर पाएगी?
हरीश फेसबुक पर सक्रिय तो था ही, उसका तकनीकी ज्ञान भी काफी अच्छा था। उसीने पहल करते हुए हम सभी दोस्तों को एकजुट किया था। अपनी अनंत व्यस्तताओं के बावजूद, वह लगातार कुछ न कुछ पोस्ट भेजता रहता था और बीते कल को आने वाले कल से जोड़े रखता था। उसने सभी मित्रों से अपने आगमन की सुनिश्चितता व्यक्त करने का आग्रह किया था ताकि वह उसी मुताबिक हॉल, डिनर इत्यादि की व्यवस्था कर सके।
ये क्या बात हुई? फेसबुक की मुलाकात और हॉल एवं डिनर की व्यवस्था? मेरी समझ में कुछ साफ तो नहीं आ रहा था मगर इतना तय था कि हरीश की प्लानिंग में भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं थी। आखिर ‘डेयर डेविल’ जो ठहरा। हरीश बारहवीं के बाद ही एनडीए में चुन लिया गया था और उसने आर्मी ज्वाइन कर ली थी। आर्मी के पैराट्रूपर्स को ‘डेयर डेविल’ के नाम से भी संबोधित किया जाता है क्योंकि वे घोर आपदा में फंसे लोगों के लिए जान की बाजी लगाकर सहायता प्रदान करते हैं। हरीश का जीवन ऐसी कई घटनाओं से समृद्ध है और कुछ अनूठा कर गुजरने का जज्बा उसकी प्रकृति का हिस्सा बन चुका है। उसकी उसी प्रकृति के अनुसार मैं देख रही थी कि उल्टी गिनती शुरू हो चुकी थी और कुछ ही देर में पार्टी हॉल का द्वार खुलने वाला था।
मैंने इंटरनेट ऑन किया… चार… तीन… दो… एक…
‘री-यूनियन – के वी एस, आर के पुरम-1982 बैच’, वेन्यू-पार्टी हॉल, समय-ठीक नौ बजे
खूबसूरत निमंत्रण-पत्र आंखों के सामने खुला था। मैंने उत्सुकता के साथ पार्टी हॉल पर क्लिक किया।
देखते ही देखते कंप्यूटर का स्क्रीन जादुई नीले रंग में बदलने लगा। पार्श्व में हिेंदुस्तानी और पाश्चात्य वाद्य यंत्रों के मेल से बना कोई खूबसूरत संगीत बज रहा था… सुरीले संगीत के साथ यह वीडियो मुझे पूरे पार्टी हॉल का मुआयना करा रही थी कि मैं अपनी पसंद की जगह चुन लूं। जलाशयनुमा यह रमणीक स्थान इस धरती पर कहीं तो जरूर ही होगा, क्योंकि ये कैमरे से ली गई तस्वीरें थीं, न कि किसी कवि की कल्पना का चित्र। जल में थिरकती रोशनियों का प्रतिबिंब और बत्तियों की जगमगाहट के बीच, गुलाबी रंग के झीने परदों की ओट से झांकती खाली कुरसियां जैसे हमारा इंतजार ही कर रही थीं… एक संगीतात्मक प्रतीक्षा… बरसों पीछे छूट गए हमजोलियों का कोरस… मासूम बचपन के शरारती लम्हों की शायरी… जिम्मेदारियों की भीड़ में गुम हो चुकी सच्ची दोस्तियों की अनूठी दास्तान… भीड़ में चेहरा तलाशते कहे-अनकहे संबंधों की पाकीजा कहानियां… कोई स्वप्नलोक मेरी राह में पसरा हुआ था…
‘हलो दोस्तो,’ मैंने हौले से दस्तक दी।
‘तुम्हारा स्वागत है अलका।’
हरीश पथरिया के साथ-साथ राजीव ठाकुर, राजेन्द्र कुमार चंदर, अनुराधा पोपली, हारिल शुक्ला और नीलू सोंधी के संदेश थे। टपाटप! टपाटप! तेजी से संदेश बरस रहे थे जबकि मैं लगभग तीस बरस पुरानी यादों की गठरी बगल में दबाए भूल चुकी गलियों में टोहते कदमों से, धीमे-धीमे पीछे को लौट रही थी।
इस तेजी से मैं थोड़ा हड़बड़ा गई। डर गई कि जल्दबाजी में मेरे ख्वाब हाथों से छिटक कर कहीं टूट न जाएं… खैर, इस हकीकत से भी कैसे किनारा कर लूं कि कंप्यूटर पर मेरा हाथ जरा तंग है और इतनी तेजी से मैं प्रतिक्रिया दर्ज नहीं कर पाती।
“कम से कम सबको लाइक तो कर दो,” बच्चों की सलाह ने मार्ग सुझाया। इस लुभावने आमंत्रण पर बच्चे और मनु भी मेरे साथ चले आए थे। या कहो, मैं ही यहां तक पहुंचने के लिए बच्चों की उंगली थामे हुई थी। मनु भी बराबर की उत्सुकता के साथ शरीक थे।
मैंने जल्दी से सभी को लाइक किया। लगा, जैसे मुस्करा कर सबके अभिवादन का जवाब दिया हो, मगर इतने लंबे अंतराल के बाद हुई इस मूल्यवान मुलाकात पर केवल मुस्कान के साथ मिलना मेरी गर्मजोशी को व्यक्त कर पाने में नाकाम था, लिहाजा मैं कुछ लिखना चाहती थी, कुछ जोड़ी शब्द जिनसे बचपन की यादें ताजा हो जातीं और मैं साबित कर देती कि समय के अंतराल से फीके पड़ जाने वाले नहीं होते बचपन के अनमोल रंग… मैं कुछ कहती जिसे शाद्वल अपनी तेज रफ्तार से टाइप करती, तब तक राजीव ठाकुर का संदेश चित्र सहित आ चुका था, “तुम्हारे लिए पिज्जा ऑर्डर किया है, अलका।”
“राजीव, तुमने कैसे जान ली मेरी पसंद?”
हर संदेश के साथ नाम का उल्लेख जरूरी था क्योंकि वॉल पर एक साथ कई साथियों से बात हो रही थी जो हम सभी को दिखाई पड़ रही थी।
एक ओर मादक पेय के साथ नॉन वेज स्नैक्स की आकर्षक सजावट थी तो दूसरी ओर सॉफ्ट ड्रिंक्स और सूप के साथ वेज स्नैक्स के विकल्प सजे थे।
राजेन्द्र ने ड्रिंक की इच्छा को स्थगित करते हुए बताया कि सावन की पूर्णिमा होने के कारण वह ड्रिंक नहीं लेगा, उसने फ्रूट जूस की इच्छा रखी।
स्क्रीन पर एक-से-एक चाइनीज, मुगलई, अमेरिकी डिश शाही अंदाज के साथ उभरते जा रहे थे। रंगीन कटोरियों में परोसे रायता और भल्लों पर कत्थई और हरी चटनी की सजावट मुंह में चटकारे भर रही थी। वैसे भी खाने का समय तो हो ही चुका था। जिसे जो खाना हो, वह उस पर क्लिक कर सकता था। बच्चे तो अति उत्साहित थे, सभी कुछ अजूबे की तरह लग रहा था। शाद्वल ने चाइनीज पर क्लिक किया तो प्राची ने ‘कॉंन्टिनेंटल’ पर।
हर किसी की पसंद और संदर्भ के मुताबिक चित्र वॉल पर स्क्रोल होते जा रहे थे।
“अरे, इस तरह तुम लोग भी खाने लगोगे तो हरीश का एस्टीमेट गड़बड़ा जाएगा,” मनु ने चुटकी लेते हुए इसे और भी स्वाभाविक पुट दे डाला। एक पल को तो मैं कन्फ्यूज़ ही हो गई मगर फिर हंस पड़ी।
“हलो अलका, मुझे पहचाना?” कुछ उत्सुक संदेश परिचित-अ-परिचित के मध्य खड़े थे।
‘हां’ कह नहीं सकती थी कि पहचान नहीं पा रही थी और ‘नहीं’ कहा नहीं जा सकता था। अधनींदी-सी खुमारी… कुछ ख्वाब, कुछ ख्याल में उभरते चेहरे…
मैं क्यों नहीं पहचान पा रही इन्हें, जबकि स्कूल की जिंदगी का हर लम्हा मेरी यादों में सुरक्षित रखा था। “लगता है, पिछले जनम की यादें हैं…” मैंने अपनी कवितात्मकता का सहारा लिया और हां-नहीं जैसे दुनियावी जवाबों से बाहर निकल आई।
वैसे बात भी सही थी, लगभग तीस साल बाद हम एक-दूसरे से मुखातिब थे। आवाजें सुनाई नहीं दे रही थीं, चेहरे बहुत बदल गए थे, कुछ तो बड़ी-बड़ी हस्तियां बन गए थे, जबकि यादों की किताब में फक्कड़ और मस्त तस्वीरों के साथ उनके नाम चस्पा थे। बहुत पीछे छूट चुके दिन थे…
स्कूल के धूल भरे दिन… तब वहां सीमेंट नहीं कराया गया था, बस उस चौरस स्थान को पक्का कराया हुआ था जहां प्रार्थना करवाने वाले बच्चे खड़े होते थे। प्रार्थना के बाद जब तक किसी का भाषण चलता, हम लोग जमीन पर बैठ जाते। फिर चलता शरारतों का सृजनात्मक दौर। बिना जबान हिलाए भी कितनी तरह की शरारतें की जा सकती हैं, इसकी गुदगुदी अभी तक महसूस करती हूं। मिट्टी पर उंगली से लिख-लिख कर, अपने आगे-पीछे वाले साथियों से लंबी बातें करना, कभी कोई चित्र उकेरना और कभी अपने आगे बैठी सहेली का रिबन खोल देना तो कभी पता नहीं क्या-क्या… ऐसी चुहलबाजियों में असेम्बली लम्बी होने के बावजूद बोझिल नहीं लगती। उर्मिला की मुझे खूब याद आती है। वह दूसरे सेक्शन की थी मगर वह मेरी साथ वाली लाइन में हुआ करती थी। जब भाषणबाजी चल रही होती तो अक्सर वह जमीन पर कोई पंक्ति लिख कर मुझे देती कि मैं उसे कविता के रूप में आगे बढ़ाऊं। उसका पहला मिसरा प्रायः बड़ा ऊटपटांग और मजाकिया किस्म का हुआ करता, कई बार तो हंसी रोकना मुश्किल हो जाता और अगर किसी टीचर की निगाह पड़ जाती तो मुझे ही डांट सुननी पड़ती, वह तो इतनी गंभीर बन जाती जैसे उसने कुछ किया ही न हो। गंगल सर की असेम्बली मुझे बहुत पसंद थी। वे प्रोत्साहित करने वाली घटनाएं बताया करते थे। उन्होंने ही लंच के समय म्यूजिक चलाने का सिस्टम चलाया था। मुझे खूब याद है, वे हरदम सफेद सफारी पहने होते। उन्हें देख कर कई शऱारती लड़के गुनगुनाया करते, “अरे दीवानो, मुझे पहचानो… मैं हूं डॉन…” जहां तक मुझे याद है कि गंगल सर लंदन से लौटे थे और उनका स्कूल को कंट्रोल करने का तरीका सबसे हटकर था। उन्होंने बच्चों में अपना विश्वास व्यक्त किया था और वे उन्हें कुछ हद तक छूट देने के पक्ष में थे। अपने शिक्षकों के प्रति आदर और आभार का भाव लिये जब तक मैं अपनी स्मृतियों से बाहर निकली तब तक कई संदेश आ चुके थे।
“मुझे कहां पहुंचना है? रास्ता समझ नहीं आ रहा…” प्रज्ञा का सवाल था।
प्रज्ञा कौन? वही न, जो पहले संगीता किसान के नाम से जानी जाती थी, बाद में उसने नाम बदल लिया था और प्रज्ञा किसान हो गई थी? हालांकि हम उसे तब भी संगीता ही पुकारते थे मगर स्कूल रजिस्टर में तो उसका नाम बदल ही गया था। वह रजनी किसान मैडम की बेटी थी। रजनी किसान मेरी सबसे प्रिय मैडम थीं, बल्कि कहना चाहिए कि हिंदी साहित्य में मेरी रुचि इन्हीं के कारण हुई थी। मैं उनकी नियमित स्टूडेंट नहीं थी मगर एक बार वे किसी टीचर की अनुपस्थिति में हमारी क्लास में आई थीं और उन्होंने हमें अलंकार पढ़ाया था। उनका पढ़ाया अलंकार मुझे आज भी उदाहरण सहित याद है।
“अनुराधा तुम्हें वेन्यू तक लाने में मदद करेगी।” हरीश ने संगीता की समस्या हल कर दी थी और संगीता जैसे अनुराधा का हाथ पकड़े धीरे-धीरे पार्टी हॉल की तरफ बढ़ रही थी।
कमाल है, सब कुछ कितना स्वाभाविक और जीवन्त लग रहा है!
इसी बीच वॉल पर स्कूल के दिनों की एक तस्वीर उभरी, क्लास पांच की ग्रुप फोटो। मैं ललक कर देखने लगी। आर डी शर्मा सर, हमारे प्रिंसिपल और क्लास टीचर मैम, जिनका नाम ठीक से ध्यान नहीं आ रहा। छात्रों में रेनु शर्मा को पहचान रही हूं, इसका मेरा तो कॉलेज तक साथ रहा। पूनम भनोट को भी पहचान रही हूं। हम उसे लेडी डायना कहा करते थे। उन दिनों प्रिंस चार्ल्स और डायना की प्रेम कहानी बहुत चर्चा में थी। शायद ये दसवीं-ग्यारहवीं की बात होगी जबकि ये तस्वीर पांचवी क्लास की है। फिर भी, पूनम का गोरा रंग और भूरी-चमकीली आंखें इस चित्र में भी उसकी साफ पहचान करा रही हैं।
“ये तो ए सेक्शन की तस्वीर है, मैं इसमें नहीं हूं। मैं वापस जा रहा हूं हरीश।” राजीव ठाकुर ने अपना रोष प्रगट किया।
“अरे ध्यान से देख, तू दूसरी रो में तीसरे नंबर पर है… राजीव।”
“अरे हां, मैं तो यहां हूं।” राजीव ने तसल्ली बख्शी।
मैंने फोटो को ध्यान से देखा। हां, राजीव दूसरी रो में तीसरे नंबर पर दिखाई दिया। तस्वीर में कई चेहरे अनचीन्हे थे। मैंने खुद को पहचानने की कोशिश की मगर कहीं कुछ टटोल नहीं पाई। मैं तो सब कुछ भूल चुकी हूं। मैं कहीं अपनी याददाश्त तो नहीं गंवा बैठी?
मुझे हैरानी थी कि जिन्हें मैं पूरे भरोसे से पहचान रही थी, उनकी तरफ से कोई संवाद नहीं आ रहा था जबकि अन्य साथी उत्सुकता से मुझे पहचान पा रहे थे। पूनम भी फेसबुक पर काफी सक्रिय है। हरीश जब भी कोई पोस्ट भेजता है, उसकी प्रतिक्रिया अक्सर पहले नंबर पर होती है। पता नहीं, पूनम कहां है, उसकी तरफ से अभी तक कोई संवाद नहीं आया है।
“पूनम अभी तक पार्टी में नहीं पहुंची क्या?” मैंने हरीश से जानना चाहा। मगर मेरा सवाल हरीश तक पहुंच नहीं पाया। नेट की संपर्कता बाधित हो रही थी।
इससे पहले भी मैंने पूनम की किसी तस्वीर को लाइक करना चाहा तो वह एक्सेप्ट नहीं हो पाया था। मैंने दोबारा अपना संदेश भेजने की कोशिश की मगर सफल नहीं हुई। कंप्यूटर बार-बार हैंग हो रहा था। सभी पूरी रफ्तार के साथ संवाद कर रहे थे, जैसे क्लास में मैडम के पहुंचने तक सभी सम्मिलित स्वर में अपने-अपने दोस्तों से बातें किया करते थे। आवाज सभी की सुनाई पड़ती थी मगर बात किसी की समझ नहीं आती थी। बस वैसा ही माहौल था। खटाखट संदेश आए जा रहे थे। कोई किसी से संबोधित था तो कोई किसी से।
“हरीश, मैं कहां हूं इस तस्वीर में? मुझे खुद को पहचानने में मदद करो।” आखिर मैंने जबान खोली।
“अलका प्रसाद ए सेक्शन में नहीं थी हरीश।” अनुराधा ने हरीश को याद दिलाया। (विवाह के पहले मैं अलका प्रसाद हुआ करती थी।)
शायद अनुराधा ठीक कह रही है, इसीलिए मैं बहुत कम को पहचान पा रही हूं। थोड़ी तसल्ली हुई। मगर राजीव, अजय और रेनु ये सब तो मेरे सेक्शन के ही थे न? फिर ऐसा कैसे कि वो यहां हैं जबकि मैं नहीं हूं। मेरा कौन-सा सेक्शन था? मुझे याद नहीं आ रहा। इस दौरान मॉर्निंग असेम्बली में प्रेयर करते हुए, नाटक में भाग लेते हुए, खेलों के पुरस्कार ग्रहण करते हुए कुछ और भी तस्वीरें वॉल पर पोस्ट की जा चुकी थीं। सबसे ऊपर की पंक्ति में हरीश के बचपन का चेहरा पहचान में आ रहा है।
मुझे ध्यान है, जब हरीश ने पहली बार फेसबुक पर दस्तक दी थी तो मैं उसे भी पहचान नहीं पाई थी। मैंने दोस्ती कुबूल करते हुए पूछा था कि क्या वह हमारे ही सेक्शन में था। हरीश को मेरा सवाल अच्छा तो नहीं लगा होगा, मगर उसने बड़ी उदारता के साथ हमारी क्लास के कई साथियों का नाम लेते हुए याद दिलाया था कि वह भी उसी क्लास में था। हो सकता है कुछ साथी दसवीं तक साथ रहे होंगे जबकि कुछ दसवीं के बाद शामिल हुए होंगे। दसवीं के बाद मैने गणित के साथ अर्थशास्त्र ले लिया था और उसी मुताबिक मेरा सेक्शन बदल गया होगा।
ऋतुराज की तस्वीर उभरी तो तुरंत ही पहचान ली। एअर फोर्स में जाने तक भी उससे संपर्क बना रहा। वह अक्सर जोखिम और साहस भरी ट्रेनिंग का जिक्र किया करता था। धीरे-धीरे हमारी मसरूफियतें हावी होती चली गईं और संवाद का स्वर मद्धिम पड़ता चला गया। उससे दोबारा मिलना भी कितना अविश्वसनीय संयोग था। मैंने हरीश को इस बारे में बताया तो उसने इसे भी वॉल पर शेयर कर दिया…
ये 26 जनवरी, 2006 की बात है। मैं राजपथ से गणतंत्र दिवस की परेड का आंखों देखा हाल सुना रही थी। जानकारी संबंधी पुस्तक भी इतने विलंब से मिली थी कि उसे पहले से पढ़ा नहीं जा सकता था। लिहाजा मैं उससे जानकारी पढ़ते हुए दर्शकों को आसमान में उड़ान भरते हुए विमानों के करतब के बारे में बता रही थी। निगाह कभी आकाश की तरफ तो कभी हाथ में खुली किताब पर ‘अप-डाउन’ कर रही थी। मैंने ऊपर की ओर इशारा करते हुए दर्शकों को बताया कि विमान की कमान संभाले हैं विंग कमांडर ऋतुराज त्या…गी… मेरी जबान लड़खड़ाई, ऋतु? क्या अपनी क्लास वाला ऋतु? हां, और कौन होगा? इस अप्रत्याशित मुलाकात पर मैं अपने उल्लास को बांध नहीं पाई और अपने साथी कमेन्टेटर को कमेन्टरी जारी रखने का इशारा देकर बूथ से बाहर निकल आई। ऊंचे आसमान में वर्टिकल चार्ली बनाते विमान आंखों से ओझल हो गए मगर मेरा हाथ देर तक उसके अभिनंदन में हिलता रहा।
बाद में मैंने एअर हेडक्वार्टर्स में फोन मिलाया, “विंग कमांडर ऋतुराज त्यागी से बात हो सकती है?”
उसने मेरे बारे में तहकीकात करते हुए मेरा फोन नंबर ले लिया कि वे मेरा संदेश ऋतु तक पहुंचा देंगे। फोन बस काटा ही था कि मोबाइल पर अनजान नम्बर आवाज दे रहा था। उसके बाद से ऋतु से संपर्क बना हुआ है।
किसी नरेन्द्र सोंधी का संदेश आया है, सभी दोस्त अनौपचारिक हो चुके हैं।
एक नरेन्द्र की मुझे याद है, जो अक्सर नरेन्द्र चंचल का यह गीत सुनाया करता था, ‘यारा ओ यारा, इश्क ने मारा…’ फिलहाल फेसबुक पर जो नरेन्द्र है, क्या ये वही नरेन्द्र है?
नरेन्द्र ने अपनी तस्वीर नहीं लगा रखी है इसलिए पहचानने में दिक्कत हो रही है। कुछ और भी ऐसे नाम और चेहरे हैं जिन्हें कुछ-कुछ पहचान रही हूं मगर दावे से नहीं कह सकती। अपने आप से मायूसी हो रही है, कहां तो अभी तक सपनों में अपना स्कूल देखती हूं, कहां कितनों को पहचान तक नहीं रही। थरथराते हाथों से टेंट वाले स्कूल में परीक्षा देते हुए तो कितनी ही बार देखा है सपनों में खुद को। याद है जब दिसंबर में होने वाली अर्धवार्षिक परीक्षाओं में ठिठुरते हाथों से पेन नहीं पकड़ा जाता था और चौकीदार बहादुर ढेर सारी लकड़ियां जलाकर हमारे हाथ सेंकने की तैयारी कर रखता था। स्कूल के अहाते में घुसते ही बाईं तरफ बहादुर का परिवार रहता था। उसका प्यारा सा बेटा हिम कितना गोरा था, बिलकुल बर्फ जैसा। सुशोभिता, सुतपा, शोभा… ये मेरी पक्की सहेलियां थीं। गीतांजलि से भी मेरा एक आत्मीय लगाव था।
कहां हैं ये लोग?
ये फेसबुक पर क्यों नहीं आए?
क्या हमारी टीम इन्हें लोकेट नहीं कर पाई?
एक अजीब सी खामोशी है। संदेशों की बारिश भी थम-सी गई लगती है।
“मम्मी, नोटिफिकेशन खोलो न, देखो कितने मैसेज दिखा रहा है।” बच्चों ने चेताया तो मैंने जल्दी से वहां क्लिक किया।
अरे, यहां तो दनादन ओले पड़ रहे हैं। संगीता किसान की शादी की तस्वीरें हैं, जो शायद हरीश ने पोस्ट की हैं। अनुराधा पोपली की जन्म दिन की तस्वीरें हैं… सब एक-दूसरे से उत्साह से मिल रहे हैं, एक-दूसरे की तस्वीरें लाइक कर रहे हैं। मुझे लगा, मैं पीछे रह गई हूं, मजमा आगे बढ़ चुका है।
मन कुछ उदास हुआ, क्या मैं अकेला महसूस कर रही हूं? अभी तो सभी वॉल पर बातें कर रहे थे, अब नोटिफिकेशन्स पर क्यों चले गए? मैं ए सेक्शन की नहीं हूं न, शायद इसलिए।
“अलका, तुम खुद को यहां पहचान सकती हो।” हरीश ने एक फोटो पोस्ट की।
बहुत पुरानी फोटो, पीले पड़ चुके यादों के पन्ने हरे होने लगे। टेढ़ी मांग और तेल के अनुशासन में संभले हुए बाल… हां, मैं यहां हूं। खुद को पहचान पाई तो थोड़ी तसल्ली हुई वरना अभी तक तो मैं खुद को निष्कासित अनुभव कर रही थी।
“प्रेपरेशन इनक्लोजर में एलबम पर क्लिक करो, अलका।”
मैंने हरीश के निर्देशानुसार एलबम पर क्लिक किया। अरे वाह! मैं उल्लास से चहक पड़ी। यहां तो कितने ही चेहरे मेरी पहचान को पुख्ता कर रहे थे। हर किसी के बारे में स्कूली जिंदगी से आज तक के सफर का संक्षित परिचय चित्र सहित वहां दिया हुआ था। पूनम भनोट, नम्रता, संघमित्रा… नरेन्द्र, हारिल शुक्ला, ऋतुराज त्यागी… सभी के विवरण यहां पढ़ने को मिले। अब तो मेरी खोई हुई याददाश्त वापस लौट रही थी। मुझे याद आया, हारिल शुक्ला अक्सर अपनी मेज पर ‘परकार’ (कंपस) को इस प्रकार धंसा कर खड़ा कर देता था जैसे वह माइक हो और फिर उससे तरह-तरह की उद्घोषणाएं किया करता था। मैंने उत्सुकता से उसका परिचय पढा तो मन और भी उल्लास से भर गया। उसमें लिखा था कि फिल्म ‘कल हो न हो’ में जया भादुड़ी की छोटी बेटी का किरदार निभाने वाली चाइल्ड आर्टिस्ट उसकी बेटी झनक है। मैंने दोबारा पढ़ा, बच्चों का उत्साह भी देखने लायक था। झनक तो मेरी छोटी बेटी शाद्वल की ही क्लास में पढ़ती थी। यानी वह दिल्ली में ही रहता होगा, मगर यहां तो मलाड़, मुम्बई लिखा है। हो सकता है बाद में मुम्बई चला गया हो मगर यह तो मुझे अच्छी तरह याद है कि झनक को मैंने शाद्वल की क्लास में देखा है।
मेरी निगाहें तेजी से सभी की प्रोफाइल पर दौड़ती जा रही थीं कि अचानक एक झटके से एक चित्र पर जा ठहरीं। अरे, यह तो मेरी तस्वीर है!
मुझे याद आया, 15 अगस्त के रोज हरीश ने फोन किया था। दोपहर का वक्त था। मैं किसी साहित्यिक समारोह में बैठी थी।
“हरीश बोल रहा हूं… तुम फेसबुक नहीं खोलती क्या?” वह नाराजगी के साथ बता रहा था कि लगभग पिछले एक महीने से उसने प्रेपरेशन इनक्लोजर का शामियाना सजा रखा है जहां मुझे अपने बारे में जानकारी देते हुए खुद को रजिस्टर कराना है, फोटो भेजनी है।
शामियाना सजा है? क्या मतलब? ये बारातघर है क्या…? हरीश की बातें मेरी समझ से बाहर थीं।
“मैं रेग्युलर नहीं हूं फेसबुक पर, मुझे बहुत समय लग जाता है इस पर और मुझे पता भी नहीं, कैसे क्या करना है।” मैंने अपनी अल्पज्ञता व्यक्त की।
“इतने लंबे समय बाद मिलेंगे, तो जरूरी है कि हम सब के बारे में जानते हों, किसी तरह का ठहराव नहीं आना चाहिये।” हरीश मुझे समझा रहा था कि बातचीत जारी रखने के लिए अपरिचय का सिलसिला तोड़ना होगा और बीच के वक्त के बारे में जानना होगा। उसने उसी वक्त मेरा एक इन्टरव्यू-सा ले लिया। मैं हैरान थी, उस दिन की बातचीत को उसने लगभग वैसा ही शब्दबद्ध कर दिया था। मेरा फोटो भी इन्टरनेट से निकाल कर लगा दिया था। मैं सोच रही थी कि हरीश ने कितना श्रम किया होगा, हर किसी से उसके बारे में जानकारी एकत्रित करना, उसके परिवार, व्यवसाय और अन्य गतिविधियों के बारे में लिखना। ज्यादातर जानकारी उसने स्वयं ही तैयार की थी। अपनी ओर से जानकारी पोस्ट करने वाले तो बहुत ही कम थे। मगर इस श्रम का जो रंग आज निखर कर आया था वह वास्तव में देखने लायक था। इन सबके बारे में पढ़ते हुए लगा ही नहीं कि समय की कोई दूरी हमारे बीच कभी आई हो। हरीश ठीक कह रहा था कि ऑन लाइन इवेंट हो सकते हैं। उसका मानना था कि आज की तकनीकी दुनिया ने फासले कम कर दिए हैं, रन अराउंड टाइम कम कर दिया है, मगर मुलाकात की शिद्दत तो इन्सान के भीतर से उठने वाली एक जरूरी शर्त है। हरीश की शिद्दत सचमुच रेखांकित करने लायक है। उसने बताया था कि सुधा से संपर्क करने के लिए तो उसने न्यूयार्क से बेंगलूर, बेंगलूर से कनाडा तक की टेलिफोनिक यात्रा कर ली, तब जाकर वह यह जान पाया कि जिसे वह ढूंढ़ रहा था वह तो उसके शहर न्यूयार्क से करीब ही थी। यह सब याद करते हुए मैं अभिभूत हो रही थी कि किसी ने जाने की इजाज़त मांगी,
“ओके गाइज़, पार्टी बहुत अच्छी रही, अब चलता हूं…”
मैंने चौंक कर घड़ी की ओर देखा, ग्यारह बज रहे थे। पार्टी का समय नौ से ग्यारह का दिया गया था। समय का अनुशासन यह मांग कर रहा था कि अब मुझे भी विदा लेनी चाहिए।
“शानदार पार्टी के लिए बहुत-बहुत आभार हरीश।” मैंने भारी मन से विदा ली।
“शुक्रिया अलका, अपना गुलदस्ता ले जाना मत भूल जाना।”
स्क्रीन पर पीले गुलाब का मोहक-सा गुलदस्ता उभर आया था।
मेरे चेहरे पर मुस्कान उतर आई।
“जो मित्र अभी रुक सकते हैं उनके लिए पार्टी जारी है,” हरीश ने उद्घोषणा की, “जाने वाले दोस्तों को विदा करते हुए पेश-ए-खिदमत है राग भैरवी…”
हरीश ने आभार व्यक्त करते हुए सूचित किया कि आभासी दुनिया की ये पार्टी फेसबुक पर हमेशा के लिए सुरक्षित रहेगी, हम जब कभी चाहें दोबारा अपने दोस्तों से मिल सकते हैं, इस दिन का एक-एक पल यादगार रहेगा…
मैंने राग भैरवी पर क्लिक किया। पार्टी हॉल का दृश्य हल्के संगीत के साथ विदा ले रहा था… एक मधुर धुन समूचे परिदृश्य पर आच्छादित होती जा रही थी… जैसे रेत पर पड़े पैरों के निशान को समन्दर की लहरें भिगोती हुई लौटती जा रही थीं…
मैं पार्टी हॉल से बाहर निकल आई। कंप्यूटर ऑफ कर बिस्तर पर पड़ गई। आंखें मुंदी थीं मगर नींद कोसों दूर थी, यादों की महफिल में अभी भी मुलाकातों का सिलसिला जारी था…
साभार – रूहानी रात और उसके बाद (डायरी)
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