हिन्दी से जुड़े मेरे सपने
-अतिला कोतलावल
मैं भी उन स्वप्नदर्शियों में से एक हूँ जो अक्सर सपने देखा करते हैं और उनके साकार होने तक उन्हीं सपनों में विलीन रहते हैं। मैंने कई सपने देखे हैं और उनमें से कुछ साकार भी हुए।
बचपन से हिन्दी गानों और चलचित्रों के प्रति बड़ा आकर्षण था। तब हिन्दी का अक्षरमात्र भी पता नहीं था। हिन्दी गाने सुन सुनकर सिंहली अक्षरों में लिखा करती थी। मुझे एक बार की घटना याद आ रही है। तब मैं दसवीं कक्षा में पढ़ रही थी। मेरी स्कूली परीक्षा भी एकदम निकट थी। पिताजी के कई बार माना करने पर भी चोरी चुपके एक हिन्दी चलचित्र देख रही थी जो दूरदर्शन में चल रही थी। दीवार की आड़ में पिताजी के रंगों हाथ पकड़ी जाने के कारण उस दिन मेरी पिटाई भी हुई।
इस प्रकार हिन्दी के साथ-साथ भारत के प्रति भी बड़ा लगाव हो गया। मन में हिन्दी भाषा सीखने की इच्छा जागृत हुई। मुझे लगा केवल मनोरंजन के लिए ही क्यों, यदि भाषा सीखूँ तो भारत, भारतीय संस्कृति को भी निकट से जान सकूँगी। मैं उस समय कोलम्बो से लगभग 120 कि.मी. दूरी पर के कुलियापिटिय नामक शहर के एक स्कूल में पढ़ाई कर रही थी। बारहवीं कक्षा के लिए विषय धारा का चयन करना था। मैंने भाषाध्ययन करने का दृढ़ निर्णय लिया। लेकिन मेरी पाठशाला में भाषाध्ययन का विभाग नहीं था। अत: मुझे कोलम्बो के स्कूल में प्रविष्ट होना पड़ा। बहुत प्रयत्नों के पश्चात मुझे कोलम्बो के एक प्रतिष्ठित स्कूल में प्रवेश मिला। मैं भाषाएँ सीखनी लगी। जापानी, फ्रेंच, सिंहली…..। पर वहाँ हिन्दी सीखने की कोई सुविधा नहीं थी। स्कूल की प्रधानाध्यापिका से बहुत विनती की। लेकिन सारे प्रयत्न व्यर्थ! पर मैंने कोशिश जारी रखी। मेरे बार-बार के आग्रह पर अंत में गुस्से में आकार प्रधानाध्यापिका ने बाहर के किसी अध्यापक से पढ़कर स्कूल में हिन्दी की परीक्षा देने की अनुमति दे ही दी पर चुनौती के साथ। क्योंकि परीक्षा में केवल छह महीने रह गये थे। मेरी खुशी का पारावार न रहा था। मन ही मन किसी भी तरह हिन्दी सीखने का बीड़ा उठाया। एक तरह से प्रधानाध्यापिका की चुनौती को भी स्वीकार कर लिया।
सन् 1998 की बात है। वस दनादन हिन्दी गुरु की तलाश शुरू हुई। उस समय मैं अपने मामा के यहाँ रहकर स्कूल जाया करती थी। मामी भी गुस्से में थी कि परीक्षा के एकदम 5,6 रह जाने पर नए विषय का चयन कैसे हुआ। मामी ने पास के एक विश्वविद्यालयीय आचार्या से मेरी भेंट करायी। श्रीमती विजेतुंग जी जो जपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी शिक्षण देती थीं। उनके घर में हिन्दी शिक्षण देती थीं उनके घर में हिन्दी का श्रीगणेश हुआ। बस दो तीन कक्षाओं के बाद उनहोंने कहा “मैं A/L (+12) की अध्यापिका नहीं हूँ। उसके लिए एक अच्छे अध्यापक हैं। तुम उनके पास जाओ।”
श्री लंका हिन्दी निकेतन के परम पूज्य शरण गुप्त जी एवं गुरुमता पद्मा जी से इस प्रकार मेरी मुलाक़ात हुई। हिन्दी निकेतन में मेरी हिन्दी कक्षाएँ शुरू हुईं। तब परीक्षा के लिए केवल 3, 4 महीने रह गये थे। वहाँ पर सुबह-शाम हिन्दी की पढ़ाई हुई। किसी तरह पाठ्यक्रम पूरा हुआ और परीक्षा में भी बैठी। तीन महीने में पूरे दो साल का पाठ्यक्रम करने पर “C” पास मिला। मन को संतुष्टि नहीं मिली। “C” पास से क्या? दुबारा परीक्षा के लिए उद्यत होने लगी। साथ में दक्षिण भारत की हिन्दी परीक्षाएँ देने की तैयारी चल रही थी। दिन-रात हिन्दी ही हिन्दी।
एक दिन गुरुजी के यहाँ पढ़ाई चल रही थी। दिन भर हिन्दी में लगे रहने के कारण नींद सी आ रही थी। पता नहीं चला कि मैं कब वहाँ की किसी कुर्सी पर वैसे सो गयी और नींद में बड़बड़ाने लगी। संयोग से गुरूजी की नज़र मुझ पर पड़ी। वे पास में आकर शायद सुनने लगे कि में क्या बड़बड़ा रही हूँ। मैं हिन्दी में कुछ बोल रही थी। गुरुजी की खुशी का टिकाना न रहा। उनहोंने गुरुमाता को भी बुला लिया और मुझे भी उठाकर बोलने लगे। “अतिला अब सचमुच तुम हिन्दी जानने लगी। तुममें हिन्दी समा गयी। मुझे बड़ी खुशी हैं।” इस तरह कहते हुए गुरूजी खुशी से चिल्लाये। यह सुनकर मैं भी आसमान पर उड़ रही थी। मन में हिन्दी को और सुदृढ़ बनाने की इच्छा जगी।
इस प्रकार मैं हिन्दी की और कुछ परीक्षाओं में बड़ी अव्वल श्रेणी में उत्तीर्ण भी हुई। गुरूजी के घर कभी-कभी भारतीय विद्वानों का आना-जाना लगा रहता था तो उनके संपर्क में आकार मुझे भी हिन्दी में अच्छी तरह बात करने की इच्छा होती। घर के किसी कोने में बैठकर फिल्मी संवाद रटना उस ज़माने में मेरा शौक भी था।
हिन्दी निकेतन में पढ़ते समय कभी-कभी मैं अपने गुरूजी और गुरुमाता के संग भारतीय सांस्कृतिक केंद्र में जाती थी। जब वे भारतीय सांस्कृतिक केंद्र के अंदर प्रवेश करते तो गुरूजी मुझे वहाँ के आँगन में रुकने की सलाह देकर अंदर जाते तो मैं आस-पास देखती रहती। बड़ा-सा सुंदर भवन, कभी कोई अध्यापक अंदर जाते तो कोई बाहर निकलते, कभी विद्यार्थी। ये सब देखते-देखते मेरे अंदर यह भावना उत्पन्न हुई कि अरे, किसी दिन यदि मुझे भी इस संस्थान में पढ़ाने का अवसर मिल जाए तो…… फिर दिन रात मैं जागते सोते वही सपना देखती रहती। भारतीय सांस्कृतिक केंद्र की अध्यापिका…. मैं किस तरह वरूँ, कैसे विद्यार्थियों को पढ़ाऊ। ये सोचते हुए मैं आगे की पढ़ाई में अपना और अधिक परिश्रम करने लगती क्योंकि मैं अभी तक छात्रा जो ठहरी।
सन् 1999 में +12 परीक्षा के उपरांत मैंने कुलियापिटिय के अपने पैतृक निवास में ही अपनी बहनों को हिन्दी पढ़ाना आरंभ कर दिया। धीरे-धीरे गाँव के ही तीन-चार बच्चे एकत्र हो गए। उनको पढ़ाते हुए मेरी आत्मा को थोड़ी-सी संतुष्टि मिलने लगी।
सन् 2000 की बात है। मुझे भारतीय दूतावास द्वारा केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा में उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु छात्रवृत्ति प्राप्त हुई। इस तरह पहली बार भारत माँ के दर्शन करने का भाग्य पाकर मेरे आनंद की सीमा न रही। केंद्रीय हिन्दी संस्थान की प्रवेश परीक्षा में स्नातकोत्तर हिन्दी डिप्लोमा (400) के लिए मेरा चुनाव हो गया। पाठ्यक्रम पर्याप्त कठिन था। अत: मेरा पूरा ध्यान पढ़ाई पर रहा। हर सप्ताहांत में और छुट्टी में जब बाकी सब विद्यार्थी भारत दर्शन के लिए निकलते तब भी मैं छात्रावास में अपनी पढ़ाई में व्यस्त होती। सारे प्रयत्नों के फलस्वरूप अंतिम परीक्षा में अपने 400 स्तर का प्रथम स्थान प्राप्त करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ और प्रसन्नचित्त मैं श्री लंका वापस चली आई।
भारत से लोटने के तुरंत बाद मेरे परम पूज्य गुरूजी, श्री लंका हिन्दी निकेतन के अध्यक्ष श्री शरण गुप्त जी ने मुझे यह सूचना दी कि कुरुनेगला शहर की कुछ छात्राएँ A/L परीक्षा के लिए अतिरिक्त कक्षाओं हेतु कोलम्बो में आ रही हैं, क्योंकि कुरुनेगला में कोई अच्छे हिन्दी अध्यापक नहीं है। वहाँ पर अच्छे हिन्दी अध्यापक की आवश्यकता है। लगभग 100 कि.मी. तय करके कुरुनेगला से कोलम्बो आना-जाना उन स्कूली बच्चियों के लिए बड़ा काष्ठप्रद कार्य था। गुरूजी ने मुझसे पूछा “तुम उनके लिए कक्षाएँ कुरुनेगला शहर में आरंभ क्यों नहीं कर देती?” साथ में कहे गए गुरुजी के ये शब्द अभी भी मेरे कानों में गूँज रहे हैं। “अतिला, अब हिन्दी का दान करो। पर याद रखना यह आसान कार्य नहीं हे। बहुत कठिनाइयों का, बाधाओं का सामना करना पड़ेगा। अनल किरीट पहन लो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।” वहीं पर मेरे मन में एक संकल्प जागा था कि हिन्दी भाषा के प्रति प्रेम रखनेवालों के लिए यदि कुछ कर सकूँ तो तभी मेरे हिन्दी ज्ञान का कुछ मतलब होगा। इसी संकल्प और गुरूजी के अशीवाद के साथ ही हिन्दी संस्थान-श्री लंका का बीजारोपण हो गया। गुरुजी के उपदेशों का पालन करते हुए मैंने सर्वप्रथम A/L (+12) स्तर की तेरह छात्राओं के लिए हिन्दी की कक्षाएँ आरंभ कर दीं। कभी वे लोग मेरे शहर कुलियापिटिय में आती, कभी मैं कुरुनेगला शहर जा कर उनको पढ़ाती। जहाँ कहीं भी हो हिन्दी का वातावरण बना रहता। हिन्दी अध्यापिका बनने का मेरा सपना भी पूरा हो गया।
हिन्दी अध्यापिका के रूप में काम करने के दौरान मैंने हिन्दी में अपनी पढ़ाई जारी रखी। कुछ ही वर्षों में मुझे BA-हिन्दी उपाधि – केलणिय विश्वविद्यालय से प्राप्त हुई। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के विशारद और प्रवीण परीक्षाएँ मेंने उत्तीर्ण कीं और अंतिम पांचों परीक्षाओं में अव्वल अंक प्राप्त करके श्री लंका में सर्वप्रथम होने का सौभाग्य मिला। दुसरी बार भी भारतीय दूतावास द्वारा केंद्रीय हिन्दी संस्थान के शोध पाठ्यक्रम (500) के लिए छात्रवृत्ति मिली। उसमे भी मैं अपने स्तर की सर्वप्रथम विद्यार्थी बन गई। यह बड़े हर्ष की बात है कि श्री लंका में 500 परीक्षा उत्तीर्ण दोनों व्यक्तियों में से मैं भी एक हूँ। इसी प्रकार मेरी पढ़ाई अभी जारी है। हिन्दी में MA और PHD पूरा करना मेरा अगला स्वप्न है।
हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार में श्री लंका हिन्दी निकेतन के मेरे पूज्य गुरूजी, गुरुमाता, मेरे सहपाठी तथा मेरे परिवार का सहयोग मुझे लगातार मिलता गया। उनके मार्गदर्शन में सन् 2002 में मैंने अपने शहर, कुलियापिटिय में हिन्दी भाषा के महत्व पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया। शायद वह हमारे शहर में हिन्दी के लिए चलाई गई पहली संगोष्ठी थी। उसके बाद एक-एक करके विद्यार्थी मेरे पास पढ़ने हेतु एकत्रित होने लगे। कुलियापिटिय नामक छोटे से उपनगर में आरंभ किया गया यह छोटा सा प्रतिष्ठान आज एक वाट वृक्ष बनकर एक संस्थान के रूप में विकसित हो गया है।
असलियत तो यह है कि हिन्दी संस्थान श्री लंका की शुरूआत सुगम नहीं थी। अनेक बाधाओं का सामना करते हुए, अनेक कष्टों से जूझते हुए यहाँ तक का सफर पूरा हुआ। पहले विद्यार्थियों को एक जगह से दूसरी जगह पर, फिर दूसरी से तीसरी जगह पर बार-बार स्थान को बदलना पड़ा। दूसरों की कक्षा पर भाड़ा देकर कबतक हिन्दी का वातावरण बनाये रखूँ……. यह समस्या बार-बार मेरे समक्ष खड़ी होती रही। बहुत प्रयत्नों के बाद हिन्दी संस्थान के लिए अलग-से एक स्थान किराये पर मिल गया। लेकिन केवल खाली जगह मिली। न कोई कुर्सी, न कोई मेज़….. पहले विद्यार्थियों को चटाइयों पर बैठकर हिन्दी सिखनी पड़ी। किसी भी तरह के अनुदान के लिए कई बार भारतीय दूतावास की में इधर-उधर चक्कर काटने पड़े। बहुत प्रयत्नों के बाद भारत-श्री लंका प्रतिष्ठान द्वारा कुर्सियों, किताबों के अलमारी और श्वेत पट्ट के लिए अनुदान मिला वह हमारे छोटे-से संस्थान के लिए अमूल्य निधि समान था। उनके लिए मैं भारत सरकार तथा भारतीय दूतावास की आभारी हूँ जिनके कारण हिन्दी संस्थान के विद्यार्थियों को अपनी पढ़ाई में सुविधा प्राप्त हुई।
जहां हिन्दी संस्थान-श्री लंका हिन्दी के लिए अपना दायित्व निभाने कागा वहाँ भारतीय संस्कृतिक केंद्र से तीन शिक्षकों के लिए विज्ञापन निकला। सालों पहले से मेरे अंदर धधकती हुई आग की तरह यह इच्छा समायी थी कि मैं भारतीय संस्कृतिक केंद्र की अध्यापिका बनूँ। मेरी आशाओं की पूर्ति के लिए एक तरह से रोशनी दिख गयी। मैंने भी उन सैकड़ों लोगों की तरह ICC की शिक्षिका के पद पर आवेदन पत्र भरा। फलस्वरूप भारतीय दूतावास के कुछ मनीषियों के सम्मुख साक्षात्कार हुआ। बस कुछ हफ्ते के उपरांत मुझे ICC द्वारा यह खुश-खबरी मिली कि मैं ICC शिक्षिका के रूप में चुनी गयी हूँ। अपना सपना साकार होते देख मैं आसमान पर उड़ान भर रही थी। सन् 2006 से आज तक मैं अपने संस्थान के अलावा ICC में भी शिक्षिका के पद पर हिन्दी के लिए काम कर रही हूँ और मैं ICC के अब के सात हिन्दी शिक्षकों में सबसे पुरानी हिन्दी शिक्षिका भी हूँ।
प्रतिवर्ष भारत जाना और वाहा वहाँ के मेरे अदरणीय गुरुजनों व हिन्दी के विदवानों से परामर्श करना, हिन्दी पुस्तकों का संग्रह एकत्रित करना मेरा शौक बन गया। कम से कम वर्ष में एक बार भारत जाना नियम-सा बन गया। वहाँ पर कई कवि सम्मेलन और अन्य हिन्दी कार्यक्रमों में भाग लेने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ।
कालांतर में मेरा पुस्तकों का संग्रह भी पर्याप्त मात्र में बढ़ गया और एक निजी पुस्तकालय घर पर ही बन गया। मेरे अपने विद्यार्थियों को पुस्तकें पढ़ने हेतु मैं देने लगी। वे भी बार बार पुस्तकें माँगने लगे। तब मेरे अंदर एक और सपना जाग उठा कि मैं उन सारे श्री लंका के हिन्दी प्रेमियों के लिए एक सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना क्यों न करूँ? जहाँ पर श्री लंका के किसी भी कोने से आनेवाले पाठकों का स्वागत हो। क्योंकि श्री लंका में ऐसे सार्वजनिक पुस्तकालय की स्थापना तब तक कहीं नहीं हुई थी। अब दिन-रात पुस्तकालय के सपने में खोई रहती हूँ। अपने कुछ विद्यार्थियों के संग मैंने अपने पुस्तकों के संग्रह को पुस्तकालय का रूप देने का कार्य आरंभ कर दिया। मैं बड़ी भाग्यशाली हूँ कि सन् 2014 में श्री लंका का सर्वप्रथम सार्वजनिक हिन्दी पुस्तकालय का उद्घाटन हो गया। श्री लंका के किसी भी हिन्दी प्रेमी को इस पुस्तकालय में कोई भी पाबंदी नहीं है। यहाँ के अनेक विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी अपने अनुसंधान कार्यों के लिए इस पुस्तकालय का लाभ उठाते हैं।
हिन्दी सार्वजनिक पुस्तकालय में ही बैठकर मैंने एक हिन्दी-सिंहली-अंग्रेज़ी शब्द कोश का भी निर्माण किया और एकाध छोटी-छोटी व्याकरण पुस्तकों का भी। पर अभी उनको प्रकाशन में लाने का सामर्थ्य न होने के कारण उनका काम अधूरा रह गया है। जिस दिन उनका लोकार्पण हो जाएगा, उस दिन हिन्दी-सिंहली लेखिका के रूप में अपना अस्तित्व बनाए रखने का मेरा और एक सपना पूरा हो जाएगा।
हिन्दी की बदौलत मुझे बहुत कुछ मिला। भारतीय विद्वानों से संपर्क बढाने का और उनसे अपने विचार व्यक्त करने का मौका मिला। श्री लंका में आये 600 से अधिक पर्यटकों के मार्गदर्शक के रूप में काम भी किया। केवल इतना ही नहीं, हिन्दी में बहुत सारे कार्य करने का सुअवसर मिला। समय-समय पर दूरदर्शन पर चलनेवाले हिन्दी चलचित्रों का सिंहली में अनुवाद करना और हिन्दी धारावाहिकों के सिंहली उपशीर्षक लिखना, मासिक सिंहली पत्रिका में बालीवुड गपशप आदि का लेख लिखना, दूरदर्शन के कुछ कार्यक्रमों का Script तैयार करना, उद्घोषक के रूप में काम करना, मंचीय हिन्दी संगीत कार्यक्रमों में उद्घोषक की भूमिका निभाना, ICC और हिन्दी संस्थान के हिन्दी कार्यक्रमों में सूत्रधार बनना आदि कार्य संपन्न करने का सौभाग्य मिला।
इनके अलावा हिन्दी ने कई पहुंचे हुए महा पुरुषों से मेरी भेंट भी करायी। इनमें से भारत के प्रसिद्ध संगीतकार रवि शंकर शर्मा एवं मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री श्री शिवराज चौहान जी के श्री लंका आगमन के दौरान उनके समक्षा दुभाषिया बनकर काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ये सब हिन्दी के प्रति मेरे प्रेम को प्रोत्साहन देने के किए भगवान का प्रसाद मानती हूँ।
समय के साथ-साथ जीवन में भी कुछ परिवर्तन हुए। मेरा विवाह हो गया। मैं दो बच्चों के माँ भी बन गयी। हिन्दी के साथ-साथ घर का दायित्व भी संभालना पड़ा। घर गृहस्थी में काम बढ़ने पर भी हिन्दी के प्रति लगाव भी बढ़ता जा रहा है। दिन प्रति दिन यह सोचती हूँ कि श्री लंका में हिन्दी के उज्जवल भविष्य के लिए मैं क्या कर सकती हूँ। हिन्दी संस्थान और पुस्तकालय की वृद्धि किस प्रकार हो! तो मैं कुरुनेगल के हिन्दी संस्थान-श्री लंका और कोलंबो के भारतीय संस्कृतिक केंद्र दोनों स्थलों पर कार्यरत हूँ। दोनों स्थलों की लगभग 100 के की दूरी को मिटाने का प्रयत्न कर रही हूँ।
हमारे संस्थान की कक्षाओं में इस समय लगभग 150 छात्र-छात्राएँ हिन्दी सीख रहे हैं और भारत की विभिन्न संस्थाओं द्वारा आयोजित परीक्षाओं में बैठकर हिन्दी में अपना सामर्थ्य प्रकट करने का प्रयास कर रहे हैं। इन संस्थाओं में प्रमुख हैं केंद्रीय हिन्दी संस्थान-आगरा, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा-मद्रास आदि। इनके अलावा हमारे विद्यार्थी प्रति वर्ष श्री लंका की सरकार द्वारा आयोजित O/L (+10 परीक्षा), A/L (+12 परीक्षा) आदि परीक्षाओं में हिन्दी विषय का भी चयन करते हैं और अव्वल श्रेणी में उत्तीर्ण भी होते हैं। हिन्दी संस्थान द्वारा प्रशिक्षित विद्यार्थी श्री लंका के अनेक विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने में सफल हुए हैं और संप्रति पूर्ण स्नातक-स्नातिकाएँ बने हुए हैं। इस प्रकार विगत पंद्रह सालों में हमारे संस्थान ने लगभग 800 विद्यार्थियों को हिन्दी की शिक्षा से लाभान्वित किया है।
हमारे संस्थान द्वारा प्रतिवर्ष कुछ विद्यार्थी केंद्रीय हिन्दी संस्थान की छात्रवृत्ति के लिए चुने जाते हैं। अब तक 50 से अधिक मेरे विद्यार्थी मेरे ही मानिंद भारत के शिक्षा समाप्त करके श्री लंका लौटे हैं उनमें से कुछ लोग श्री लंका के विश्वविद्यालयों में प्राध्यापक के रूमें शिक्षण कार्य में लगे हुए हैं और कुछ विद्यार्थी श्री लंका की सरकारी पाठशालाओं में हिन्दी के शिक्षकों के पद पर विराजमान हैं। कुछ लोग हवाई अड्डे में और कुछ गाईड के रूप में हिन्दी से जुड़े कुछ काम कर रहे हैं।
उपरोक्त विवातण से यह विदित होगा कि हिन्दी संस्थान-श्री लंका अपने देश में हिन्दी प्रचार-प्रसार कार्य में अग्रगामी है। अनेक कठिनाइयों से जूझते हुए हिन्दी प्रचार-प्रसार के कँटीले रास्ते पर आगे बढ़ते जा रहा है। अभी भी हिन्दी से झुड़े मेरे सपने पूरे नहीं हुए। मेरा सबसे बड़ा सपना जो हिन्दी संस्थान के लिए अलग भवन का निर्माण हो, यह अब तक अधूरा है। मेरी एक मात्र अभिलाषा यह है कि हमारा संस्थान श्री लंका तथा भारत के हजारों वर्षों से चले आ रहे अटूट संबंध को सुदृढ बनाने की एक कड़ी हो। यहाँ पर हिन्दी के साथ-साथ भारतीय संस्कृति से जुड़ी बाकी विद्याएँ भी सिखाई जाएँ। यह छोटा-सा संस्थान एक वट वृक्ष की तरह और विकसित हो, जिसमें भारत से शिक्षित अच्छे विद्यार्थियों को शेक्षकों के रूप में जुडने का अवसर मिले! भारत से समय समय पर हिन्दी विद्वानों का आना-जाना बना रहे! श्री लंका में ही लघु भारत का वातावरण हिन्दी संस्थान-श्री लंका परिसर में उपलब्ध हो। काश मेरा यह सपना भी जल्दी से साकार हो!
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