चाय और वो
सुनो— ये दो चाय इधर भिजवाना
ज़रा जल्दी!
मैं जल्दी में था,
आख़िर बाल श्रम पे राष्ट्रीय गोष्ठी थी शहर में
मेरी कविताओं पे चर्चा भी थी
इस लिए जल्दी में था
’चाय’ कहते हुए उसने पोंछा पसीना अपनी
फटी कमीज़ से
और छोटे-छोटे बाज़ुओं से साफ़ कर दी
अनगिनत निशानों वाली मेज़
और ठीक वहीं मेरी किताब:
’बच्चे ग़रीब के’
हलके स्वर में उसकी आवाज़ आयी:
सर, और कुछ लाऊँ क्या?
गर्दन उठा के देखे बग़ैर
मैं ने ’न’ में गर्दन हिलायी
मैं तब भी पढ़ रहा था
शब्द नए ढूँढ़ रहा था,
कविता में दम होना चाहिए
आख़िर मैं जल्दी में था . . .
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-अम्बिका शर्मा