हाँ, मैं अमृता हूँ

हाँ, मैं अमृता हूँ
हाँ, मैंने मोहब्बत की इबादत में बग़ावत की है
हाँ, मैंने ख़ुद की खोज में अपनी ही पहचान छोड़ी है
हाँ, मैं वी आख़दी आँ वारिस शाह नूँ
हाँ मैं, जो तैनूँ फिर मिलाँगी
हाँ मैं, जो तेरी कुछ नहीं लगदी
हाँ, मैंने प्यार में सब कुछ खोया है,
ख़ुद को खोए बिना

हाँ, मैं अमृता हूँ
पर ये अमृता इमरोज़ नहीं ढूँढ रही
इस अमृता में ही छुपा एक इमरोज़ भी है
हाँ मैं, एक अमृता, किसी की साथी बनना चाहती हूँ

किसी को एक खुला आसमाँ देना चाहती हूँ
वो जिस से प्रेम करे,
उसे उससे प्रेम करने की आज़ादी देना चाहती हूँ
जो अपने आँसुओं से अपनी ज़िंदगी सींचे,
उसके दर्द को पी लेना चाहती हूँ
जो समाज से अपने लिये लड़ने की शक्ति रखे,
उसकी ताक़त में हिस्सेदार होना चाहती हूँ
जो अपने लिये लड़ने की हिम्मत ना कर पाये,
उसकी आवाज़ होना चाहती हूँ
जो रंग-धर्म-जाति -पैसे से ऊपर उठे,
उस समाज की क्रांति होना चाहती हूँ

जो अपने अंदर की कला को पंख दे,
उसकी उड़ान होना चाहती हूँ
जो ख़ुद जल कर दूसरों की राह रोशन करे,
उस दीपक की लौ होना चाहती हूँ
जो मोहब्बत की आग में जले,
उस सिगरेट का धुआँ होना चाहती हूँ
जो इंद्रियों के भोग में रस जाए,
उस प्रेमी का महकता जिस्म होना चाहती हूँ
जो कृष्ण को प्रेम करे,
उस मीरा की भक्ति होना चाहती हूँ

जो आज और अभी में जीए,
उसका वो जीवंत क्षण होना चाहती हूँ
जो अकारण ही झूमे,
उसका वो बेपरवाह नाच होना चाहती हूँ
जो दीवाना बन भटके,
उस बंजारे की मस्ती होना चाहती हूँ
जो बेख़ुदी में ख़ुदा को खोजे,
उस सूफ़ी की नज़्म होना चाहती हूँ
जो शब्दों में छुपे रहस्य ढूँढे,
उसकी वो गहरी कविता होना चाहती हूँ
जो मौन की बेख़्याली में लीन हो जाए,
उस बुद्ध का ध्यान होना चाहती हूँ

हाँ, मैं अमृता हूँ
और मैं तैनूँ फिर मिलाँगी
एक आज़ाद रूह की झलक में

*****

-कनिका वर्मा

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