आतंक और आकांक्षा
मेरी पुण्य धरती को किसने चुराया
कैसा अँधेरा है कैसा है साया।
यहाँ बह रही हैं प्रलय की हवाएँ
क्रन्दन मचा है जलती चितायें।
ले क्रोध की लौ मानव सुलगता
आतंक संहार का नृत्य करता।
यहाँ रक्त रंजित है संतप्त धरती
यहाँ शव पड़े हैं दिशायें तड़पती।
यहाँ बाल सहमे हैं विक्षुब्ध जननी
प्रिय से बिछुड़ के विह्वल है सजनी।
लौटा दो मेरी वो धरती विधाता
जहाँ स्वप्न साकार हों मेरे दाता।
जहाँ खेत खलिहान में फ़सल झूमे
बहकती हवाएँ फूलों को चूमे।
जहाँ चाँदनी का वसन हो निशा पर
सुबह की लाली हो पूरब दिशा पर।
जहाँ गुनगुनाती निर्झर की कलकल
कोई धुन अनोखी कोई गीत कोमल।
जहाँ मुक्त नभ में पक्षी विचरते
श्रम से घरौंदों का निर्माण करते।
जहाँ सान्ध्य वेला में स्वर बाँसुरी का
देता हवाओं को नग़मा ख़ुशी का।
जहाँ बाल करते हों स्वच्छन्द कलकल
जहाँ माँ को मिलता हो ममता का संबल।
जहाँ प्रियतमा के अधर मुस्कराते
प्रिय से मिलन के मधुर गीत गाते।
जहाँ रोज़ पूजा के स्वर गूँजते हों
जहाँ शंखनादों के सुर रीझते हों।
जहाँ मंदिरों में घंटे हों बजते
जहाँ पुण्य मंत्रों के स्वर हों उभरते।
जहाँ वाद्य बजते हों बजते मंझीरे
घर घर में, आँगन में, नदिया के तीरे।
जहाँ दीप माला हो घर घर दीवाली
जहाँ रंग भीनी हो होली निराली।
जहाँ शिल्पियों की निपुण उँगलियों ने
पाषाण में थे सजग प्राण फूँके।
जहाँ तूलिका ने मधुर चित्र खींचे
जहाँ काव्य धारा ने मन प्राण सींचे।
घुँघरू की छनछन, पैरों की थिरकन
जहाँ नृत्य मुद्रा में चंचल सी चितवन।
जहाँ प्रेम की बस बहे स्निग्ध धारा
नहीं क्रोध की हो कभी अंधकारा।
लौटा दो मेरी वो धरती विधाता
जहाँ स्वप्न साकार हों मेरे दाता।
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-जगमोहन हूमर