अपने ही घर में माया चूहे सी चुपचाप घुसी और सीधे अपने शयनकक्ष में जाकर बिस्तर पर बैठ गई; स्तब्ध। जीवन में आज पहली बार मानो सोच के घोड़ों की लगाम उसके हाथ से छूट गई थी। आराम का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था; अब समय ही कहां बचा था कि वह सदा की भांति सोफ़े पर बैठकर टेलिविज़न पर कोई रहस्यपूर्ण टी वी धारावाहिक देखते हुऐ चाय की चुस्कियां लेती? हर पल कीमती था; तीन दिन के अंदर भला कोई अपने जीवन को कैसे समेट सकता है? पचपन वर्षों के संबंध, जी जान से बनाया यह घर, ये सारा ताम झाम, और बस केवल तीन दिन? मज़ाक है क्या? वह झल्ला उठी किंतु समय व्यर्थ गंवाने का क्या लाभ? डाक्टर ने उसे केवल तीन दिन की मोहलत दी थी; ढाई या सीढ़े तीन दिन की क्यों नहीं? उसने तो यह भी नहीं पूछा। माया प्रश्न नहीं पूछती, बस जुट जाती है तन मन धन से किसी भी आयोजन की तैयारी में; युद्ध स्तर पर।
बेटी महक यहां होती तो कहती, ‘ममा, ‘स्लो डाउन।’ जीवन में माया ने अपने को सदैव मुस्तैद रखा कि न जाने कब कोई ऐसी-वैसी स्थिति का सामना करना पड़ जाऐ। ख़ैर, तीन दिन बहुत होते हैं। एक हफ़्ते में तो भगवान ने पूरी दुनिया रच डाली थी; बिगाड़ने के लिए तो एक तिहाई समय भी बहुत होना चाहिए। किंतु उसे बिगाड़ कर नहीं ये घर संवार के छोड़ना है; सम्पत्ति को ऐसे बांटना है कि किसी को यह महसूस न हो कि अंधा बांटे रेवड़ी, भर अपने को दे। संसार से यूं विदा लेनी है कि लोग याद करें; कमर कस कर वह उठ खड़ी हुई।
शयनकक्ष में लगी तीनों अल्मारियों के पलड़े खोलकर माया लगी अपनी भारी साड़ियों, सूटों और गर्म कपड़ों को पलंग पर फेंकने; जैसे उस ढेर में दबा डालेगी अपनी दुश्चिंता। छोटे बेटे वरुण की शादी को अभी एक साल भी तो नहीं हुआ; कितना सामान ख़रीद डाला था माया ने; जैसे अपनी सारी इच्छाओं को वह एक ही झटके में पूरा कर लेना चाहती हो। ‘हे भगवान, अब क्या होगा इन सबका?’ समय होता तो वह भारत जाके बहन-भाभियों में बांट देती। ऑक्सफैम में जाने लायक नहीं हैं ये कीमती साड़ियां; उसकी बहुओं और बेटी को ‘इंडियन’ पहनावे से क्या लेना देना?
रुपहली नैट की गुलाबी साड़ी को चेहरे से लगाऐ माया सोच रही थी कि इसे पहनने के लिए उसने अपना पूरा पांच किलो वज़न घटाया था। मुंह मांगे दाम पर खरीदी थी यह साड़ी उसने रितु कुमार से। छोटी बहन तो बस दीवानी हो गई थी, ‘जीजी, इस साड़ी से जब आपका दिल भर जाऐ तो हमें दे दीजिएगा, प्लीज़।’ उसे तब ही दे देती तो छोटी कितनी ख़ुश हो जाती पर तब उसने सोचा था कि इसे पहन कर पहले वह अपने लंदन और योरोप के मित्रों की चर्चा का विषय बन जाऐ, फिर दे देगी। एकाएक उसे एक तरकीब सूझी; क्यों न वह इसे छोटी को पार्सल कर दे और साथ में ही भेज दे इसका मैचिंग कुंदन का सैट भी? कुंदन के सैट के नाम पर उसका दिल मानो सिकुड़ कर रह गया; बड़ी बहु उषा को पता लगेगा कि सास ने साढ़े तीन लाख का सैट छोटी को दे दिया तो वह उसे जीवन भर कोसेगी। हालांकि छोटी जैसी क़द्र भला बहुओं और बेटी महक को कहां होगी? माया चाहे कितना कहे कि वह किसी से नहीं डरती पर सच तो यह है कि वह मन ही मन सबसे ही डरती है; अपने बच्चों से लेकर सड़क पर चलते राहगीरों तक से कि वे कि वे उसके विषय में क्या सोचते होंगे। अब वह वही करेगी जो उसका मन चाहेगा। वैसे भी, बच्चे अपने-अपने घरों में सुख से हैं; न भी हों तो उसने फ़ैसला कर ही लिया था कि वह अब कभी उनके घरेलु मामलों में दखलअंदाज़ी नहीं करेगी। उसके सगे-संबंधी और मित्रों को भी उसकी अंतिम इच्छा का सम्मान करना चाहिए।
न चाहते हुऐ भी माया फिर भी दूसरों के लिए ही सोच रही है; अपने लिये सोचने को रखा ही क्या है? मंदिर जाये, गिड़गिड़ाये कि भगवान बचा लो। जिंदगी के इस आख़िरी पड़ाव पर क्यूं अपने लिये कुछ मांगे और मांगने से क्या कुछ मिल जाऐगा? मनुष्य की हवस का तो कोई अंत ही नहीं है। अमेरिका में तो सुना है कि लोगों ने मरणोपरांत अपने शवों के प्रतिरक्षण का प्रबंध करवा लिया है ताकि भविष्य में टैक्नौलोजी के विकसित होने पर उन्हें जिला लिया जाऐ। माया को यह समझ नहीं आता कि ऐसा क्या है मानव शरीर में कि उसे सदा जीवित रखा जाऐ। गांधी, मदर टेरेसा या मार्टन लूथर किंग जैसों महानुभावों को सुरक्षित रख पाते तो और बात थी। अच्छी से अच्छी प्लास्टिक सर्जरी के उपलब्ध होने पर भी एलिज़ाबेथ टेलर जैसी करोड़पति सुंदरी भी कुरूप दिखती है और वो माइकेल जैक्सन, उसने तो अपनी ज़िंदगी ही बर्बाद कर डाली। प्रकृति से टक्कर लेकर भला क्या लाभ?
माया एक अजीब सी मनःस्थिति से गुज़र रही है; उसे लगता है कि कहीं कुछ अप्राकृतिक अवश्य है। वह परेशान है कि उसे मौत से डर क्यों नहीं लग रहा? हो सकता है कि वह अत्यधिक भयभीत हो, जिसके कारण उसके मस्तिष्क ने भय को ‘ब्लॉक’ कर दिया हो। जो भी हो, अच्छा ही है। अन्यथा भयवश वह ठीक से सोच भी नहीं पाती। बच्चों को बताने का कोई औचित्य नहीं; बेकार परेशान होंगे और उसकी नाक में दम कर डालेंगे। पिछले महीने ही की तो बात है जब उसे फ़्लू हो गया था; दुर्भाग्यवश वरुण और विधि उन दिनों घर पर थे। उन्होंने तीमारदारी कर करके माया की ऐसी की तैसी कर दी थी; उसे आराम से सोने भी नहीं देते थे; कभी दवाई का समय हो जाता तो कभी खिचड़ी का, कभी गरम पानी की बोतल बदलनी होती तो कभी गीली पट्टी। नहीं नहीं, चुपचाप मर जाना बेहतर होगा। जब लोग कहेंगे कि माया बड़ी भली आत्मा रही होगी कि नींद में चल बसी तो बच्चों को भी अच्छा लगेगा। वैसे कह भर देने से ही कितनी तसल्ली हो जाती है; शायद दिल को समझा लेना आसान हो जाता होगा। मनुष्य के पास और चारा भी क्या है; जीवन के हल में सीधे जुत जो जाना होता है। आजकल तो लोग तेरहवीं तक भी घर में नहीं रुकते; छुट्टियां ही कहां बचती हैं? साल में एक बार भारत जाना होता है; फिर परिवार और मित्रों के साथ दो या तीन बार योरोप की यात्रा पर भी निकलना पड़ता है। माया तो हारी-बीमारी में भी उठकर दफ्तर चली जाती थी कि एक छुट्टी बचे तो मंडे-बैंक-हौलिडे के साथ जोड़ कर कहीं आस पास ही हो आऐ। इंग्लैंड की तनाव भरी जलवायु से जब तब निकल भागना आवश्यक है; वैसे भी मानसिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों के बीच रहना क्या आसान बात है? जिसे देखिऐ वही ‘स्ट्रैस्ड’ है।
माया भी ‘टैन्स्ड’ है; उंगलियों में उंगलियां उलझाऐ और अपने अंगूठे नचाती हुई वह सोच रही है कि पर्दों को धो डाले और घर की झाड़-पोंछ भी कर ले। मातमपुर्सी को आऐ लोग कहीं यह न कहें कि दूसरों को सफ़ाई पर भाषण देने वाली मायी स्वयं इतने गंदे घर में रहती थी। आज तो केवल बुधवार है और घर की सफ़ाई करने वाली ममता शनिवार को ही आती है, जब वे दोनों मिलकर घर की ख़ूब सफ़ाई करती हैं। फिर दोपहर को वे एक नई हिंदी फ़िल्म देखने जाती हैं और शाम का खाना भी बाहर ही होता है। रात को ममता को उसके घर छोड़कर जब माया वापिस आती है तो अपने साफ़ सुथरे फ़्लैट में ख़ुश्बुदार बिस्तर पर पसर जाना उसे बहुत अच्छा लगता है। कभी-कभी तो इस संवेदना के रहते, वह सो भी नहीं पाती।
माया के मना करने के बावजूद ममता उसे ‘मैडम’ कहकर ही पुकारती है जबकि माया उसे अपने परिवार का ही एक सदस्य मानती है। बच्चों को लगता है कि उसने ममता को सिर पर चढ़ा रखा है। कर्मठ, इमानदार और निष्ठावान है ममता; बिल्कुल माया की तरह; शायद इसीलिये माया उसे पसंद करती है। उसकी सहेलियां भी उसके इस बर्ताव पर नाक-भौं चढ़ाती रहतीं हैं; चढ़ाया करें।
इन दिनों ममता अपने इकलौते बेटे नारायण को लेकर कुछ अधिक ही परेशान है, जो बुरी संगत में पड़ कर पटना के एक गुंडों के गिरोह में आजकल ड्राईवरी कर रहा है; वे उसे किसी हालत में छोड़ने को तैय्यार नहीं हैं। ममता की इच्छा है कि उसके प्रवास के दौरान नारायण एक बार लंदन घूमने आ जाऐ। माया ने दिल्ली में अपने भाई पारस के ज़रिऐ नारायण का पासपोर्ट बनवा दिया है और उसे आशा है कि वीज़ा भी लग ही जाएगा। ममता के इसरार पर माया ने पटना के मुख्य-मंत्री को याचिका भेजी थी जिसमें नारायण को ग़ुंडों से छुड़ाए जाने की प्रार्थना की गई थी। किंतु वहां से आज तक कोई जवाब नहीं आया। हर शनिवार को ममता बड़ी आस लिए आती है, ‘मैडम कोई चिट्ठी-पत्री आई क्या?’ ‘न’ में सिर हिलाती माया सोचती है कि उसका अपना बेटा होता तो क्या वह चुप बैठ जाती? उसका मन कई बार होता है कि बारक्लेज़ बैंक के पांच हज़ार पाऊंडस के बौंडस ममता को दे दे ताकि वह नारायण को उन गुंडों से बचा सके किंतु फिर वही दुविधा कि मेहनत से कमाये उसके धन को सीधी-सादी ममता कहीं गंवा न दे।
बच्चों को क्या किसी और को भी यदि यह पता लग गया कि उन्होंने इतनी बड़ी रकम ममता को दे दी तो वे उसे पागल समझेंगे किंतु धन का इससे अच्छा उपयोग भला क्या हो सकता है? महक होती तो कहती, ‘ममा, डू व्हाट यू लाईक, इटज़ यौर मनी आफ़्टर ऑल।’ अरुण कहता रहता है कि माया को पैसे की कोई क़द्र नहीं और यह भी कि यदि वह चाहे तो उसका पैसा वह किसी अच्छी जगह इन्वैस्ट कर सकता है। उसकी मृत्यु के बाद कहीं उसके बच्चे बेचारी ममता पर मुकदमा ही न ठोक दें; दुनिया में क्या नहीं होता?
बस अब और नहीं सोचेगी माया; अभी जाकर वह बौंडस भुनवा लेगी और शनिवार को ममता को नकद दे देगी; कहीं वह शुक्रवार को ही स्वर्ग सिधार गई तो? यदि वह शुक्रवार की शाम को मरे तो बच्चों और सगे-संबंधियों को बेकार में एक छुट्टी नहीं लेनी पड़ेगी। इस सप्ताहंत पर ही स्विटज़रलैंड से वरुण और विधि भी छुट्टियां मना कर लौट आऐंगे; आते ही उन्हें यह बुरी ख़बर मिलेगी पर किया क्या जा सकता है?
बैंक जाते समय माया सोच रही थी कि एक मरणासन्न व्यक्ति के लिए सबसे ज़रूरी क्या हो सकता है? क्यों वह सीधे कपड़ों और गहनों की तरफ़ भागी? क्या ये मामूली चीज़ें उसके लिये इतना महत्व रखती हैं? आज तक तो वह यही सोचती आई है कि उसके मरने के बाद बेटे-बहु उसका तमाम बोरिया-बिस्तर काले थैलों में भर कर ऑक्सफ़ैम या किसी और चैरिटी को दे आयेंगे। समय के अभाव में शायद उसका सामान वे कूड़ेदान में ही न फेंक दें। भारत में कई परिवार इन चीज़ों से अपने बहुत से तीज-त्योहार मना सकते हैं। ऑक्सफ़ैम वाले क्या समझेंगे भारतीय पहनावे को? वे इन्हें ‘रीसाइकिलिंग’ के लिए कहीं दाहित्र में ही न डाल दें। ख़ैर, यह सब सोचकर क्या वह अपना अमूल्य समय व्यर्थ नहीं गंवा रही?
पिछले दो वर्षों में ही माया ने दो मौतें देखीं थीं और दोनों ही मृतकों ने कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी। अभी अर्थी भी नहीं उठी थी कि बच्चों ने घर सिर पर उठा लिया। ख़ैर, उसने अपनी जायदाद, गहने और शेयर इत्यादि सब बांट दिये हैं सिवा इन कपड़ों और कुछ पारिवारिक गहनों के; इन्हीं की वजह से वह कल रात ठीक से सो भी नहीं पाई; इन भौतिक चीज़ों में मृत्यु जैसी विशेष बात भी डूब के रह गई थी। आज की रात उसे अच्छे से सोना बहुत ज़रूरी है; कल बहुत से काम हैं; उसने सोने की एक गोली खा ली और अपनी आँखें मूँद लीं।
सुबह उठते ही नहा-धोकर माया बैठ गई आईने के सामने। बिना मेक-अप के उसका चेहरा कैसा बेरंग लग रहा था; अर्बी जैसी त्वचा पर करेले जैसी झुर्रियां और अर्बी सा रंग। जीवन में जिसने बहुत दुख झेलें हों, केवल वही एक अच्छा विदूषक हो सकता है; ठंड की गुनगुनी धूप सी मुस्कुराहट उसके चेहरे पर फैल गई। जब लोग बक्से में रखे उसके पार्थिव शरीर के चारों ओर घूम-घूमकर श्रृद्धांजलि अर्पित करेंगे तो उन्हें उसका झुर्रियों भरा चेहरा कैसा लगेगा? माया को आकर्षक लगना चाहिये और यह मेक-अप आर्टिस्ट पर निर्भर करेगा कि वह कैसी दिखाई दे। गोरे गोरियों का मेकअप तो ये लोग अच्छे से करते हैं किंतु सभी एशियंस को वे एक ही तराज़ू में तोलते हैं। उसने अंत्येष्टि निदेशक का नम्बर घुमाया।
‘हेलो हाउ में आइ हेल्प यू?’ मीठी आवाज़ में स्वागती ने पूछा।
‘सौरी टु बौदर यू, आइ हैड बुक्ड ए कौफ़िन फ़ॉर माइसेल्फ अंडर थे नेम ऑफ़ माया गोल्ड, येस। आइ वंडर इफ़ समवन वुड टेक केयर ऑफ़ माई मेकअप वंस आई एम डेड…’ माया ने झिझकते हुऐ पूछा।
‘ऑफ़ कोर्स, मैडम, यौर विश इज़ अवर कमांड,’ स्वागती की वरदायनी अदा पर माया मुस्कराने लगी; वह मेकअप आर्टिस्ट को अपना भरा पूरा वैनिटि-केस ही दे देगी ताकि कई अन्य बहुत सी भारतीय महिला-मृतकों का भी उद्धार हो जाए। मेक-अप का इंतज़ाम करने के बाद उसने सोचा कि से अपने बाल भी ट्रिम करवा लेने चाहिएं। पिछले तीन दशकों में माया का अपने हेयर-ड्रेसर के साथ अच्छा ताल-मेल बैठ गया है; वह जानता है कि कब उसके बालों को पर्म करना है, कब रंगना है या कब सिर्फ़ ट्रिम करना है। कभी माया उल्टी सीधी मांग कर भी बैठे तो वह साफ़ इन्कार कर देता है, ‘नहीं, यह आप पर अच्छा नहीं लगेगा,’ अथवा ‘अपनी ज़रा उम्र तो देखो, माया।’ हालांकि माया को आज भी लगता है कि उसे एक बार अपने बालों को किसी सुर्ख़ रंग में रंगवा लेना चाहिए था; उसकी यह इच्छा अब अगले जन्म में ही पूरी होगी।
माया झट से उठी और कार में बैठकर चल दी वैम्बली हाई रोड की ओर। कार को दाईं ओर मोड़ा ही था कि उसने सोचा कि पहले उसे अपने होंठ के ऊपर उग आऐ बालों को ब्लीच करवा लेना चाहिये। यदि कोई पुलिस वाला उसे ख़तरनाक यू-टर्न मारते देख लेता तो उसे ‘ऑन दि स्पौट फ़ाईन’ फ़ाइन देना पड़ जाता किंतु अब डर किस बात का और ये पैसे भी किस काम के? उसने निर्णय लिया कि चाहे कितने भी पाउंडस लगें, वह रीजैंट-स्ट्रीट पर स्थित सबसे मंहगे ब्यूटि-पारलर में जाकर आज मसाज, ट्रिमिंग, भंवे, ब्लीचिंग और फ़ेशल आदि सब करवाएगी।
‘टी टूं टी टूं’ का शोर मचाती एक एम्बुलैंस पास से गुज़री तो कार को धीमा करके माया एक तरफ़ हो गई; शायद किसी को दिल का दौरा पड़ा हो या दुर्घटना में घायल कोई दम तोड़ रहा हो। यदि समय पर डाक्टरी सहायता मिल जाऐ तो कई मौतों को बचाया जा सकता है पर ये तो सब नसीब की बातें है। एकाएक माया को ध्यान आया कि उसने अभी तक अपनी आंखे तक दान नहीं की थीं। क्यों न वह अपना पूरा शरीर ही दान कर दे ताकि जिसे जो चाहिऐ, ले ले; बाकी के बचे-खुचे टुकड़ों का कीमा बना कर खाद में डाले या फिर… वैसे अस्पतालों से जो मनो-टनों अंग-प्रत्यंग प्रतिदिन फेंके जाते हैं, वे कहां जाते होंगे? प्लास्टिक के थैलों से लेकर दही के डिब्बों तक माया कूड़े में कुछ नहीं फेंकती। जहां देखिऐ कचरा ही कचरा; लोगों ने यदि रीसाइक्लिग की ओर ध्यान नहीं दिया न तो यह विश्व एक दिन तबाह होकर ही रहेगा।
माया सीधी पार्क-रौयल अस्पताल पहुंची; दान-पत्र भरते समय उसे अपने दादा जी की याद आई जिनकी उंगली एक दुर्घटना में जड़ से अलग हो गई थी। उनके मरणोपरांत दादी ने एक कृतिम उंगली लगवा कर उनका दाह संस्कार करवाया था। उनके अनुसार यदि दादा को उनके सभी अंगों के साथ नहीं जलाया गया तो वह अगले जन्म में बिना उंगली के पैदा होंगे। इस हिसाब से तो माया को निर्वाण मिल जाना चहिए क्योंकि उसने तो अपने सब अंग दान कर दिए थे। उसका मानना यह भी है कि प्रत्येक जन्म में मनुष्य को अपने को विकसित करता होता है और जब वह पूरी तरह से परिपक्व हो जाता है तभी वह परमात्मा में विलीन होने में सक्षम होता है।बच्चे जब तब कहते रहते हैं, ‘ममा, यू आर ए चाइल्ड,’ अथवा ‘ममा, यू शुड ग्रो अप नाउ,’ वह कहां इस योग्य कि भगवान उसे अपने में लीन कर लें?
ख़ुश्बुदार मोमबत्तियों के मध्यम प्रकाश में तैरते भारतीय शास्त्रीय संगीत में डूबते-उतरते, माया के शरीर की मुलायम और सधे हाथों द्वारा मालिश हुई; मन हवा से बातें करने लगा; संसार के ये छोटे छोटे सुख दुख ही स्वर्ग और नर्क हैं। वह सचमुच मूर्ख थी कि पैसा होते हुऐ भी ऐसे सुख का नियमित उपभोग नहीं कर पाई। ख़ैर, इस वक्त माया को ज़ोरों की भूख लगी थी। सामने ही क्रेज़ी-हौर्स-पब था, जो फ़िश-एण्ड-चिप्स के लिए मशहूर था। वह उसमें ही जा बैठी। किसी के फ्यूनरल से लौटी भीड़ शराब और सैंडविचेज़ गटक रही थी।
‘फ़ार सच ए यंग फेलो, ही वाज़ एन एलीफैंट। माइ शोल्डर इज़ किलिंग मी।’ एक लंबा चौड़ा गोरा युवक अपना कंधा दबाते हुए कह रहा था; उसके अन्य साथियों ने भी उसकी हां में हां मिलाई, ‘ही डाइड औफ़ ईटिंग, यू नो।’
माया ने सोचा कि अमेरिका में अर्थी उठाने वालों का क्या हाल होता होगा? फ़िश-एण्ड-चिप्स की जगह माया ने सिर्फ़ सलाद और संतरे का जूस ही मंगवाया। शाम को जिम जाकर वह जम कर व्यायाम करेगी; दो दिनों में वह एक किलो वज़न तो घटा ही सकती है। कम से कम उसके बेटों के कंधे तो नहीं दुखेंगे।
भोजन से माया को याद आया कि उसके जीजाजी की तेरहवीं के अवसर पर बनवाई गई कद्दु की सब्ज़ी लोगों को बहुत अच्छी लगी थी। बच्चों को तो यह भी नहीं पता होगा कि कद्दु क्या होता है। अपनी तेरहवीं का मेन्यु भी वह स्वयं ही बना दे तो कैसा रहे; बच्चे यह न सोंचें कि मां को उन पर ज़रा भी विश्वास न था। क्रिसमस के कार्डस वह अक्तूबर में ही लिख कर रख लेती है। यह तो अच्छा हुआ कि उसे केवल तीन दिन का ही नोटिस मिला अन्यथा मृत्यु की तैयारी में वह महीनों लगी रहती।
घर वापिस आकर माया ने अपनी शांति और तसल्ली के लिये, एक फ़ाईल खोल ही ली। पहले पन्ने पर अन्त्येष्टि-निदेशक, उसकी सहायक, जाने-माने खान-पान प्रबंधकों के नाम, पते, फ़ोन और ई-मेल आदि लिख दिऐ इस टिप्पणी के साथ कि बच्चे चाहें तो सपना-केटरर द्वारा मौसा जी की तेरहवीं वाला मैन्यू और्डर कर सकतें हैं और हां, यदि वे कुछ नया या आधुानिक आयोजन करना चाहें तो माया को कोई आपत्ति नहीं होगी।
आगुंतकों की भीड़-भाड़ में घर की सफ़ाई, चाय-पानी के इंतज़ाम के लिऐ ममता का होना आवश्यक है हालांकि माया की मृत्यु का समाचार सुन कर कहीं उसके हाथ-पांव ही न छूट जाऐं। एक तो बेटे की परेशानी और उसपर माया की मृत्यु; कैसे सह पायेगी बेचारी ममता, जिसके ‘नारायण-नारायण’ के जाप ने माया की नाक में दम कर रखा है। उसका बस चले तो वह चौबीसों घंटे काम करे ताकि नारायण को जल्दी से जल्दी लंदन बुला पाए किंतु डरती है कि गुंडों को नारायण की इस मंशा की भनक भी पड़ गई तो वे उसका न जाने क्या हश्र करें। नारायण कहां समझता है ममता की मजबूरी, बेबसी और उसकी चिंता? बच्चों को जो चाहिऐ, उन्हें वो बस चाहिए।
माया की पोती, रिया, जब केवल तीन वर्ष की थी तो दादा की बेशकीमती घड़ी लेने की ज़िद कर रही थी। माया ने हंसी-हंसी में कह दिया कि दादा जी मृत्यु के बाद यह घड़ी उसी को मिलेगी। रिया ने झट पूछा, ‘दादी, वैन विल दादाजी डाई?’ कितने ही लोग हर रोज़ अपने संबंधियों के मरने की राह देखते हैं। अभी हाल में ही केवल एक हज़ार डौलर्स के लिऐ दो पोतों ने मिल कर अपनी दादी की हत्या कर डाली। दहेज की वजह से भारत में ही कितनी युवतियां जीते जी जला दी जाती हैं? जितना पैसा मां बाप दहेज़ में लगाते हैं, यदि वह अपनी बच्चियों की पढ़ाई लिखाई पर ख़र्च करें तो वे उनके बुढ़ापे की लाठी बन सकती हैं ।
दो बेटों के होते हुए भी आज माया कितनी अकेली है? एक महक ही है जो उसका हाल चाल पूछती रहती है; उसके सिर में तेल मलती है, उसके नऐ पुराने कपड़े छांटती है और फिर उससे चिपट कर सो भी जाती है। महक और पीटर कभी-कभी उसे ज़बरदस्ती सेंट-ऐंड्रूज़ ले जाते हैं किंतु उसे बेटी के घर में रहने की बात खटकती है जबकि पश्चिम की सासें तो अधिकतर दामादों के यहां ही रहती हैं। माया भी कितनी दोगली है किंतु बुराइयां किसमें नहीं होतीं? कोई ज़रा माया से सहायता मांग तो ले, वह न नहीं कह पाती, उत्साह में तो वह यह भी भूल जाती है कि उसके पास समय होगा भी कि नहीं; पूरे ज़ोर-शोर से बस जुट जाती है। व्यवस्था का कोई भी पहलु मजाल है कि उसकी आंख से छुट जाऐ।
शवपेटिका की व्यवस्था माया कर ही चुकी है; बच्चों पर छोड़ देती तो वे सबसे मंहगी लकड़ी का सुनहरी कुंडों से जड़ा बक्सा ही ख़रीदते। शव को कपड़े में लपेटकर भी काम चलाया जा सकता है; भाड़ ही में तो झोंकना है। भारत में लोग कितने यूज़र-फ़्रैंडलि होते हैं? हर चीज़ को रीसाईक्ल करते हैं। पैसा किसी ग़रीब के काम आ जाए तो अच्छा है पर कौन देकर जाता है कुछ ग़रीबों को?
पिछले हफ़्ते ही माया ने कुछ धन हरे रामा हरे कृष्ण वालों को दिया था किंतु उस दान से उसे कुछ भी तृप्ति नहीं मिली थी। रॉयल स्कूल ऑफ़ ब्लाइंड को कुछ धन देने के लिए माया कब से सोच रही है पर यह सोच कर कि नब्बे प्रतिशत धन तो चंदा इकट्ठा करने वालों की जेब में ही चला जाता है; वह बात को टालती रही है। गोरे लोग ग़रीबों की सहायता के लिए कितना दान करते हैं; वे तो कभी नहीं सोचते कि पैसा कहां जा रहा है?
वास्तव में तो वह अधिक से अधिक धन बच्चों के नाम ही छोड़ना चाहती है, यह जानते हुए भी कि उषा क्या कहेगी, ‘हमारे हिस्से में बस इतना ही आया, मम्मा वरुण और विधि को ज़रूर अलग से देकर गई होंगी।’ महक को कुछ नहीं चाहिए और विधि को कुछ भी दो तो वह यही कहेगी, ‘मम्मी जी, पहले आप महक जीजी और भाभी से पसंद करवा लीजिए, मैं बाद में ले लूंगी।’ न जाने अरुण और उषा सदा यही क्यों सोचते हैं कि माया वरुण और विधि को अधिक चाहती है; कोई मां से पूछे कि उसे अपनी कौन सी आंख प्यारी है।
माया को लगता है कि जैसे जैसे व्यक्ति उम्र में बड़ा होता है, अधिक आसक्त हो जाता है। जहां विधि और महक को पैसे अथवा चीज़ों की ज़रा परवाह नहीं, वहीं उषा को और स्वयं उसे छोटी-छोटी चीज़ों से भी लगाव है। अस्थाई और क्षणिक प्रसन्नता के लिऐ इतना आयोजन और इतना प्रयोजन; परम आनंद के लिऐ कुछ भी नहीं? किंतु आनंद भी तो इन्हीं रिश्तों से जुड़ा है। जहां जा रही है माया, वहां दुख सुख के मायने शायद दूसरे हों; शायद वहां दुख सुख हों ही नहीं।
पिछले साल ही तो माया ऋषिकेष में दीपक चोपड़ा से मिली थी; आनंदा में वह अपने पच्चीस अनुयायियों के साथ ठहरे हुऐ थे। मृत्यु जैसे पेचीदा विषय को उन्होंने बड़े सरल तरीक़े से समझाया था, ‘इस पृथ्वी पर जो भी जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है पर उसका पुनर्जन्म भी उतना ही निश्चित है जैसे कि फूल खिलते हैं, मुर्झा जाते हैं और फिर खिल उठते हैं।’ माया की मुसीबत बस यह है कि ऐसी बातें उसके मस्तिष्क में ज़्यादा देर तक टिक नहीं पातीं।
पारसियों के मृत्यु-संस्कारों के विषय में माया ने एक बार अपनी सहेली ज़रबानु से चर्चा की थी। माया ने तब सोचा था कि चीलों द्वारा नोच-खसोट कर खाना मृतक का अपमान नहीं तो और क्या है? किंतु इस जाति की भावना तो देखिए, शायद ये ही लोग अन्ततोगत्वा ‘परम पिता परमात्मा’ में समा जाते हों।
माया के पति हरीश की मृत्यु हुऐ पांच वर्ष होने को आऐ; उन्हें दफ़्तर में दिल का दौरा पड़ा और एम्बुलैंस के पहुंचने से पहले ही उन्होंने दम तोड़ दिया। उनके शव को घंटो निहारती बैठी रही थी माया कि अब सांस आई कि तब। 35 वर्षों के लम्बे वैवाहिक जीवन में वे कभी अलग नहीं रहे थे। अब क्या बचा था? केवल चौखट, दरवाज़े, दीवारें और इन सबसे सिर मारती माया। अरुण और उषा तो पहले ही अलग घर बसा चुके थे। अठारह वर्ष की आयु में विवाह करके महक अपने पति, पीटर, के साथ स्काटलैंड में जा बसी थी और वरुण बर्मिंघम में पढ़ रहा था।
संबंधियों और पड़ौसियों के घरों से पूरे दो हफ़्तों तक परिवार के लिऐ ही नहीं, अपितु मेहमानों के लिऐ भी नियमित खाना पीना आता रहा था। भजनों के नऐ नऐ सीडीज़ और कैसेट्स बजते रहे, दिये में घी डाला जाता रहा। एक सप्ताह के अंदर ही माया ने अपने दुख पर पूरी तरह काबू पा लिया था और घर परिवार अब उसके पूरे नियंत्रण में था।
विवाह की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर हरीश ने उसे हीरे के छोटे छोटे बुंदें और नेकलेस दिये थे, जो माया की सफ़ेद साड़ी के साथ जंच रहे थे। नऐ काले क्रिस्प सूटों में बेटों- दामाद और पोते को देख माया फूली नहीं समा रही थी। बहुऐं स्वयं लिपटी थीं काली साड़ियों में जिस पर चांदी के धागों का हल्का काम था; माया ने ही कहा था कि चाहे कितना भी बुरा अवसर क्यों न हो, सुहागने काला कपड़ा नहीं पहनतीं।
घर में अवलोकनार्थ रखे हरीश के शव को देख महक का बेटा आर्यन बार बार ‘हेलो दादु,’ ‘हेलो दादु,’ पुकारे जा रहा था। जब कभी आर्यन शरारत करता, वह उससे कुट्टी कर लिया करते किंतु जहां उसने गाल फुलाए कि हुई दादु की अब्बा। ‘वाऐ इज़ दादु नॉट टॉकिंग टु मी?’ उसकी आंखों में आंसु भरे थे, ‘ममा, टैल दादु आई एम नॉट नौटी एनी मोर,’ माया भी रो पड़ी।
हरीश के फूलों को गंगा में विसर्जन करने के लिऐ पूरा परिवार हरिद्वार पहुंचा था। माया का भारी-भरकम भाई पारस यदि उन सबको नहीं सम्भालता तो पंडितों की धक्का-मुक्की में घिरे इस परिवार का वहीं राम नाम सत्य हो जाता। वरुण और विधि तो पहली बार भारत आऐ थे; उनकी ‘एक्सक्यूज़ मी,’ ‘एक्सक्यूज़ मी,’ किस काम आती? माया यही सोचती रही कि हरीश का क्रियाक्रम यदि भारत में करना पड़ता तो बच्चों के सब्र का बांध अवश्य टूट जाता। अरुण को यदि पिता का कपाल फोड़ना पड़ता तो न जाने क्या होता?
माया को साधु-संतो, बाबाओं और माताओं पर कोई श्रद्धा नहीं किंतु माया इस बार अपनी पड़ौसन, जयश्री, के चक्कर में फंस ही गई, जो ऐरे ग़ैरे नत्थु ख़ैरे सभी बाबाओं और माताओं के सतसंगों में जाती है। भीड़ में बैठी हुई माया को इंगित करके जब बाबा ने पूछा, ‘बेटी, किसके शोक में डूबी है?’ तो माया ने सोचा कि इसमें कौन सी बड़ी बात थी, बाबा को उसकी रोती-धोती शक्ल से अंदाज़ा लग ही गया होगा कि वह ताज़ी ताज़ी विधवा हुई थी। ख़ैर, जब बाबा मन की बात जानते हैं तो वह माया का कष्ट भी जान ही गऐ होंगे। जयश्री उसे पकड़ कर बाबा के ठीक आगे ले गई। ‘बाबा, इसका हज़बेंड ऑफ़ थेई गया छे; कोई नई साथे वात करती न थी, अने कोई ने मलती न थी।’ माया को हंसी आ गई और बाबा भी मुस्करा पड़े।
‘अपनी हानि को तो, बेटी, सभी रोते हैं, कभी उनकी भी सोचो जो प्रभु के पास हैं। उनके लाभ में तुम्हें भी तो प्रसन्न होना चाहिऐ,’ अचानक माया के हृदय में एक सुकून व्याप्त हो गया। वह भी कितनी स्वार्थी थी; उसने हरीश के विषय में कभी सोचा ही नहीं। हरीश एक जाने माने वकील थे किंतु बाल की खाल उतारने की विशेषज्ञ थी माया, जिसे वह ‘मी लौर्ड’ कहकर सम्बोधित करते थे।
हरीश यदि जीवित होते तो उसकी शव-पेटिका को मोगरे के फूलों से लाद देते। सगे-संबंधी गुलदस्ते लेकर आऐंगे; नहीं होंगे तो बस उनके भिजवाऐ मोगरे के फूल। कितनी अधूरी और फीकी लगेगी माया की शवयात्रा? शायद हरीश उसकी इंतज़ार में हों; वह हुलस उठी पर क्या करे? हरीश की याद उसे कभी कभी दीवाना बना देती है; दिल है कि संभलता ही नहीं, ‘याद आये वो यूं जैसे दुखती पांव बिवाई जी…’
मां बचपन में माया को हरीशचंद्र तारामति के अमर प्रेम की कहानी सुनाती थी; वही तारामति जो अपने पति को यमराज से भी छुड़ा लाई थी। माया ने हाल ही में बी.बी.सी पर एक फ़िल्म देखी थी, जो एक ऐसी बीमारी के विषय में थी जिसमें रोगी बिल्कुल मृत दिखाई पड़ता है; बहुत बार ऐसी ही स्थिति में उसे दफ़ना तक दिया जाता है। माया को लगा की सत्यवान के साथ भी कुछ ऐसा ही घटा होगा।
भाव-विव्हल माया ने अन्त्येष्टि-निदेशक को मोगरे के छल्ले पर ‘स्वागतम माया, सस्नेह हरीश’ लिखवाने का निर्देश दे दिया। कितना मज़ा आऐगा जब मातमी मोगरे के फूलों के साथ हरीश का नाम देखेंगे? अंतिम बार दोनों का नाम एक साथ; वह रोमांचित हो उठी। ‘वेन इन रोम, बी रोमन,’ कहावत को अंजाम देने के लिए उसने एक काली रॉल्सरौयज़ भी आरक्षित करवा ली। माया की अर्थी भी शान से उठनी चाहिऐ; बच्चों को भी अच्छा लगेगा। काली रॉल्सरौयज पर मोगरे के फूल कितने भव्य दिखेंगे; गली कूचों में लोग ठिठक कर रुक जाऐंगे और सराहेंगे उसकी शवयात्रा को।
देवग्रंथों के अनुसार आत्मा को न तो कोई मार सकता है, न ही कोई दुख पहुंचा सकता है। तो फिर काहे का डर? डर तो बस माया को है पुनर्जन्म से। वही पढ़ाई लिखाई, विवाह, बच्चे और फिर यही मृत्यु। जाने कीड़े-मकौड़े और जानवरों को याद रहता हो अपना पिछला जन्म; शायद इसी का नाम नरक हो। माया को अपने पिछले जन्म की कुछ-कुछ याद है; वैसे तो मनुष्य का मस्तिष्क न जाने क्या-क्या ग़ुल खिलाता है किंतु यदि यह बात सच है तो माया मनुष्य योनि में दो बार जन्म ले चुकी है; तीसरी बार मनुष्य योनि का संयोग कुछ कम ही लगता है। ख़ैर, जो भी होगा देखा जाऐगा; अभी से परेशान होने का क्या फ़ायदा? इस आख़िरी वक्त में भजन गाने से तो भगवान प्रसन्न होने से रहे; तैयारी भी करे तो क्या और कैसी?
जब भी माया किसी यात्रा पर निकलती है, ढेर सी तैयारी करके चलती है। हर तरह की बीमारी की दवाऐं, गरम पानी की बोतल, परिरक्षित भोजन, अचार-मुरब्बे, माचिस, चाकू, स्क्रू-ड्राइवर, गरम कपड़े, कंबल, ब्रांडी, कुर्सियां, मेज़, पेट्रोल का अतिरिक्त कनस्तर और न जाने क्या क्या। सामान सहित जब वह लदी-फदी लौटती है तो बच्चे हंसते हैं, ‘डिडन्ट वी टैल यू टु ट्रैवल लाइट, मम?’ अब चाहे अंगारों पर चलना पड़े या बर्फ़ पर इस यात्रा पर उसे ख़ाली हाथ ही निकलना है।
समय की पाबंद माया बिल्कुल तैयार बैठी है। मृत्यु को दोष नहीं दिया जा सकता और न ही डाक्टरों को; कोई समय तो तय किया नहीं गया था। पहली बार उसके दिमाग़ में यह बात आई कि डाक्टर ग़लत भी तो हो सकता है किंतु आस की नन्ही सी किरण भी उसे और जीने के लिए उत्तेजित न कर पाई। डाक्टर ने तो उससे कोई सहानुभूति तक प्रकट नहीं की थी जबकि यहां मरणासन्न रोगियों को विशेष परामर्श की सुविधा दी जाती है।
काश कि माया बिजली के बटन की तरह जीवन का स्विच खट से बंद कर पाती; उसकी ऊर्जा व्यर्थ जा रही है; शायद उसे इसकी आवश्यक्ता पड़े मृत्यु के उपरांत किंतु मनुष्य के बस में कुछ भी तो नहीं है। आंधी, तूफ़ान और भूचाल आदि के माध्यम से प्रकृति जब तब प्राणियों की संख्या नियंत्रित करती रहती है, जिसे ईश्वर का कोप समझ कर झेलते रहते हैं पृथ्वीवासी। जो समझ से परे हो, उसे भगवान का नाम दें या किसी बुद्धिमान अभिकल्पक (इंटैलिजैंट डिज़ाइनर) का क्योंकि जगत की संरचना के पीछे एक प्रतिशत संदेह तो बना ही हुआ है। इसी विषय को लेकर विकासशील देशों में भी लोगों के बीच छुट-पुट घटनाऐं सुनने में आती हैं, जिनमें कोई डार्विन के विकासवादी सिद्धांत को कोसता है तो कोई विज्ञान को। माया के पल्ले जब कुछ नहीं पड़ता तो वह गाने लगती है, ‘कोई तो बता दे जल नीर कि सिया प्यासी है।’ शायद मर कर ही मिलना हो उस बुद्धिमान अभिकल्पक से। किसी से तो मिलना होगा ही; उससे हरीश का पता ठिकाना मालूम करके ही रहेगी माया।
माया की मां, जो अपनी सास को दकियानूसी क़रार देतीं आयी थीं, पति की मृत्यु के उपरांत स्वयं अंध-विद्यालयों में कंबल और भोजन आदि बांटने लगीं थीं। जब तक ज़िन्दा रहे माया के पिता का कहना था कि दादा जी की आत्मा तो तभी तृप्त होगी जब घर में कोफ़्ते और मुर्ग-मुसल्लम पकेगा, बंटेगा। जहां तक हरीश का प्रश्न है माया भी वह कोई ख़तरा नहीं उठाना चाहती; हरीश की बर्सी पर पूजा-पाठ, दान, हवन, सब करवाती है।
बनारस से लायी हुई गंगाजल की बोतल को माया ने अपने सिरहाने रख लिया है। फ़ाइल में उसने झटपट एक टिप्पणी और लिख दी है कि उसकी अस्थियां रिवर- थेम्स में भी डाली जा सकतीं हैं; हरिद्वार में बेचारे बच्चे कहां धक्के खाते फिरेंगे? एक कहावत है न कि मन चंगा तो कठौती में गंगा।
बरसों पहले किसी वैष्रुरुनिक ने विष का स्वाद जानने के लिऐ अपने आप पर एक प्रयोग किया था; जीभ पर ज़हर रखते ही वह मर गया। माया ने सोचा कि यदि सभी मरणासन्न लोग कोई एक प्रयोग करके मरें तो विश्व की कई गुत्थियां सुलझ सकतीं हैं। मिसाल के लिए, माया जानना चाहती है कि मरते समय व्यक्ति को कैसा अनुभव होता है? उसने निर्णय लिया कि वह अपनी तर्जनी पर लाल रंग यानि अशांति और बीच की उंगली पर हरा रंग यानि कि शांति का रंग लगा कर मरेगी ताकि चादर पर रगड़े हुए रंग से लोग निष्कर्ष निकाल लें। पारस होता तो वे दोनों बैठकर इस प्रयोग की बारीकियों में उतरते।
माया की नज़र फिर पर्दों पर जा ठहरी। ममता इस शनिवार को आए न आऐ। ममता बता रही थी कि नारायण ने जब गिरोह के सरदार से मां के पास जाने की अनुमति मांगी तो उसे जान से मार डालने की धमकी दी गई। वह ममता को आज ही पैसे दे देगी ताकि पटना जाकर वह नारायण को ग़ुंडों से छुड़ा ले। कितनी ख़ुश हो जाऐगी ममता?
माया पर्दे उतारने को अभी स्टूल पर चढ़ी ही थी कि घंटी बजी। इस समय कौन हो सकता है? कहीं वह किसी को बुलाकर भूल तो नहीं गई? दरवाज़ा खोला तो देखा बाहर ममता खड़ी थी।
‘तू सौ बरस जिऐगी ममता, अभी मैं तुझे ही याद कर रही थी,’ माया चहकी।
‘मैडम जी, वो नारायण है न, वो…’ बदहवासी में ममता ठीक से बोल भी नहीं पा रही थी।
‘हां हां, क्या हुआ उसे?’
‘उसका एक्सीडैंट,’ माया यदि उसे संभाल न लेती तो ममता वहीं ढेर हो जाती। आंसु थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे और हिचकियों के मारे उसका बोलना मुहाल था। उसके आधे-अधूरे वाक्यों से माया इस नतीजे पर पहुंची कि ग़ुंडों ने नारायण को कार के नीचे कुचलने की कोशिश की थी। वह अस्पताल में है और वे कह रहे हैं कि इस बार तो उसकी टांगे ही तोड़ी हैं, अगली बार वे उसे जान से भी मरवा सकते हैं। ममता की कांपते हुई मुट्ठी में एक पुर्ज़ा था; जिस पर उसके भाई सर्वेश का नम्बर लिखा हुआ था। माया ने झटपट नम्बर मिलाया तो सर्वेश ने भी वही सब दोहरा दिया जो ममता कह रही थी।
‘मैडम जी, आप तो जी बस बहन को प्लेन में बैठा दें। नारायण की हालत ठीक नहीं है मैडम जी.’ सर्वेश भी बहुत घबराया हुआ था जैसे कि उसकी अपनी जान पर बनी हो। भाई से बात करके तो ममता के सब्र का बांध मानो टूट ही गया।
‘अब मैं जी कर क्या करूंगी, मैडम? मैं तो उसी के पैसा इकट्ठा कर रही थी। अब इस पैसे क्या फ़ायदा,’ कहकर उसने अपने थैले को माया के क़दमों में उलट दिया; अनगिनत मुड़े-तुड़े पाऊंडस कार्पेट पर बिखर गए। माया ने उसे से तसल्ली देनी चाही किंतु वह तो यूं रोऐ चली जा रही थी जैसे उसका सब लुट चुका था।
ममता के टिकेट आरक्षण के लिए माया अपने ट्रैवल-ऐजैंट को फ़ोन कर रही थी कि उसके दिमाग़ में आया कि क्यों न वह भी ममता के साथ पटना चली जाऐ। ममता इस हालत में नहीं है कि नारायण की कोई मदद कर सके। कहीं इन गुंडों के चक्कर में आकर वह न केवल अपना मेहनत से कमाया सारा धन ही गंवा दे बल्कि अपनी जान से भी हाथ धो बैठे। पटना जैसी जगह में किसी को पटाना होगा, किसी को मनाना होगा तो किसी को हटाना होगा। ऐसे समय में धैर्य, नियंत्रण और कूटनीति से काम लेना होगा। सीधी सादी ममता को तो शायद इन शब्दों का अर्थ भी नहीं पता होगा।
ममता ने जब सुना कि मैडम उसके साथ पटना चल रहीं हैं तो उसके चेहरे पर आश्चर्य, कुतूहल और अनुग्रह के भावों की छटा बस देखते ही बनती थी। स्पष्टतः माया के दिमाग़ में एक योजना बन रही थी। ममता को रसोई में व्यस्त करके वह स्वयं कम्प्यूटर खोल कर बैठ गई। उसने वेबसाइट के ज़रिए एक पांच-सितारा होटल में दो कमरे, एक बड़ी जीप और ड्राईवर का इंतज़ाम कर लिया। फ़ोन पर ही पारस को उसने एक अच्छे वकील और सुरक्षा संबंधित प्रहरियों का प्रबंध करने की हिदायत भी दे दी, जो उन्हें एअरपोर्ट पर उतरते ही मिल जाने चाहिएं। माया ने सोचा कि अच्छा हुआ कि बच्चे यहां नहीं हैं; वे उसे कभी ये जोखिम नहीं उठाने देते। पारस को भी रहस्यपूर्ण कारनामों में दिलचस्पी है इसीलिऐ उसने अधिक चूं-चपड़ नहीं की किंतु पटना के नाम पर वह हिचका रहा था।
‘मैं पटना जा रहीं हूं, तू कोई प्रश्न नहीं पूछेगा,’ माया का इस कथन के बाद पारस के पास चारा ही क्या था?
‘ठीक है, फिर मैं भी पटना आ रहा हूं और आप भी अब कोई प्रश्न नहीं पूछिएगा।’
पारस के आ मिलने से माया पूर्ण-रूप से आश्वस्त हो गई। बचपन में इस जोड़ी ने फ़र्श पर आटा बिछा कर पांवों के निशान से चोर पकड़ कर मां के सम्मुख खड़ा कर दिया था। यह अलग बात थी कि वह जानती थीं कि चोर घर का नौकर ही था, जो रात को छिप-छिप कर मिठाई खाता था और शक इन दोनों पर किया जाता था।
‘शर्लौक होम्स,’ ‘मर्डर शी रोट’ और ‘कोलंबो’ जैसे रहस्यपूर्ण टीवी धारावाहिकों की दीवानी माया को जीवन में पहली बार जोखिम उठाने का मौका मिला है, जिसे वह आसानी से नहीं गंवाने वाली। पटना के गुंडों से निडर, माया सुबह की फ़्लाइट का इंतज़ार कर रही है; ममता से अधिक बेचैनी उसे है। उसका प्लैन फ़ूल-प्रूफ़ है, कड़े पहरे में वे नारायण को दिल्ली ले जाऐंगे, इलाज करवाएंगे और जब वह ठीक हो जाएगा तो पारस की ही फैक्टरी में उसे कोई काम पर लगा दिया जाएगा।
माया की व्यस्तता से ममता ने अनुमान लगा लिया है कि नारायण की बाल मज़दूरी के दिन अब पूरे हुए। माया ने तय कर लिया है कि अब ममता घर-घर के धक्के नहीं खाएगी। वह चाहे तो उसी के साथ रह सकती है।
तीन दिन में मृत्यु वाला सपना इतना सजीव था कि माया ने अपने को मौत के लिऐ पूरी तरह से तैयार कर लिया था किंतु इस वास्तविक घटना ने उसे पूरी तरह से जिला दिया। कितनी भाग्यशाली है वह कि जीवन के उद्देश्य के साथ-साथ उसे दिशा भी मिल गई; उसके शरीर का रोम रोम स्पंदित है और अंग-प्रत्यंग फड़क रहा है; इतनी जिंदा तो वह जीवन में पहले कभी नहीं रही।