तुलसीदास की भक्ति-भावना

-सातो युता

(सातो युता जी तोक्यो, जापान में रहते हैं। वे अनेक भारतीय और विदेश भाषाओं के जानकार हैं। इस समय तोक्यो में संस्कृत पढ़ा रहे हैं।

साधारणतः समग्र हिंदी साहित्येतिहास के स्वर्ण-युग के रूप में भक्तिकाल को स्मरण किया जाता है और उस स्वर्ण-युग की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि के रूप में कवि तुलसीदास के काव्य को। और उनके काव्य को भली भाँति समझने के लिए सबसे पहले उनकी भक्ति-भावना पर विवेचन करना आवश्यक जान पड़ता है, अतः इस लेख में उनकी भक्ति-भावना की कई विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए इस बात को स्पष्ट करना अभिप्रेत है कि अंततः उनके काव्य का क्या रहस्य रहा है, जो उन्हें अन्य भक्तिकालीन कविगण से भिन्न और सर्वाधिक विचित्र बना देता है।

उनकी प्रतिनिधि कृति ‘रामचरितमानस’ में राम-नाम जपने के महत्त्व पर बारंबार बल दिया जाता है। वे यहाँ तक कहते हैं कि राम-नाम राम से भी बड़ा है।

ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि॥रा० च० मा० १.२५ दो०॥[१]

परंतु कहना न होगा कि यह एक प्रकार का अलंकार है और इस वाक्य को शब्दानुसार मानने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर का नाम जपने के महत्त्व पर तो ‘भागवत पुराण’ आदि अनेकानेक पुराणों में चर्चा की जाती है, जिसे ‘नाम-माहात्म्य’ के नाम से जाना जाता है। अतः इन पुराणों की परंपरा से प्रभावित भक्तिकालीन काव्य में, चाहे वह सगुण-धारा का हो या निर्गुण-धारा का, इस बात का उल्लेख व्यापक रूप से किया जाता है, यह किसी आश्चर्य का विषय नहीं है।

नाम पर अधिक महत्त्व रखने का एक कारण यह होगा कि वह भक्ति-भावना को उत्तेजित करने में उपयोगी है। इसके साथ सोचने की बात यह भी है कि ईश्वर को मनुष्य के रूप में मानने का कारण भी संभवतः यही है। प्राचीन युग से लेकर मनुष्य ईश्वर की उपासना करते समय उसे मनुष्य के बिंब के रूप में ग्रहण करता आया है। अथवा जैसा कि ‘बाइबिल’ में लिखा है, ऐसा मंतव्य भी है कि मनुष्य को ईश्वर के बिंब के रूप में सृष्ट किया गया है (उत्पत्ति (जेनेसिस), १.२६-२७)। ईश्वर का स्वभाव जैसा भी हो, ईश्वर और मनुष्य के बीच में कोई-न-कोई संपर्क होना आवश्यक है, और अंततोगत्वा मनुष्य का संबंध मनुष्य के साथ ही रहता है, अर्थात् मनुष्य की सहानुभूति उन वस्तुओं के प्रति सर्वाधिक सशक्त हो सकती है, जिन वस्तुओं में कहीं-न-कहीं कोई मनुष्य के बिंब या कोई मानवीय तत्त्व दिखाई पड़ते हैं। अतएव ईश्वर का मनुष्य के रूप में अवतीर्ण होना ईश्वर के प्रति भक्ति-भावना को सशक्त करने में उपयोगी कहा जा सकता है। इस दृष्टि में निर्गुण-ईश्वर की अपेक्षा सगुण-ईश्वर को सरलता से लोकप्रियता प्राप्त हो सकती है, इसीलिए तो कुछ लोग ईश्वर की मूर्तियाँ भी गढ़ते होंगे। ये लोग सोचते होंगे कि पूजा के लिए जो पूज्य हो, वह यदि मूर्त रूप में आँखों के सामने हो तो सुविधा होगी। ‘रामचरितमानस’ में भी राम को मनुष्य के रूप में दर्शाने का प्रयास किया जाता है।

उहाँ राम लछिमनहिं निहारी। बोले बचन मनुज अनुहारी॥

अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥रा० च० मा० ६.६१.१॥[२]

उमा एक अखंड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई॥रा० च० मा० ६.६१.९॥[३]

यहाँ राम लक्ष्मण की कठोर स्थिति को देखकर मनुष्य की भाँति (मनुज अनुहारी) व्याकुल वचन बोलते हैं और भावुक व्यवहार करते हैं। किंतु शिव पार्वती (उमा) से कहते हैं कि कृपालु राम ने भक्तों के लिए ही यह मनुष्य की दशा (नर गति) दिखलाई है। दूसरे प्रसंग में लिखते हैं,

काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लंकेस।

प्रभु क्रीड़त सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देख कलेस॥रा० च० मा० ६.१०१ दो० (ख)॥[४]

किसी भी स्थिति में राम अपनी जो व्याकुलता दिखलाते हैं, वह सब उनकी क्रीड़ा मात्र है, किंतु जो लोग इसे नहीं समझ पाते, वे मोह में पड़कर एक साथ व्याकुल हो उठते हैं। ऐसे लोग सच्चे भक्त नहीं हैं। राम का मनुष्य के रूप में अवतीर्ण होना ईश्वर और मनुष्यों को युक्त करने का एक उपकरण है, और यह ईश्वर का उपकार भी है।

अस्तु, ईश्वर का नाम जपने का महत्त्व भी इसी दृष्टि से समझा जा सकता है। किंतु यह ईश्वर के मूर्तीकरण से अधिक वैचारिक और सार्वभौमिक प्रक्रिया है। ईश्वर का मूर्तीकरण तो सगुण-धारा का ही वैशिष्ट्य है, जबकि ईश्वर का नाम जपने की धारणा सगुण और निर्गुण की दोनों धाराओं में विद्यमान है। यहाँ तक कि इस्लाम धर्म में भी (जिसमें ईश्वर का मूर्तीकरण सख़्त निषेध है) अल्लाह का नाम जपने का महत्त्व कहीं कम नहीं है। सूफ़ी लोग, जैसे मौलवी जलालुद्दीन रूमी के संप्रदाय के लोग, अल्लाह का नाम लगातार जपने की प्रक्रिया से स्व (अहंकार) को समाप्त करने का प्रयत्न करते हैं। जापान में भी बौद्ध-धर्म के जोदोशिन्शू संप्रदाय (जिसका प्रवर्तन १३वीं शताब्दी में हुआ) में ऐसा मानना है कि महात्मा बुद्ध का नाम जपने मात्र से (अर्थात् ‘बुद्धानुस्मृति’ से) सहज ही स्वर्ग प्राप्त हो जाएगा। निर्गुण-धारा में कबीर, दादू प्रभृति संत-कवि भी ईश्वर का नाम जपने का महत्त्व स्पष्ट रूप से मानते हैं। इस विषय में तुलसीदास लिखते हैं,

देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥

सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥रा० च० मा० १.२१.२-३॥[५]

हनुमानप्रसाद पोद्दार की व्याख्या के अनुसार; “रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता। […] रूप के बिना देखे भी नाम का स्मरण किया जाए तो विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में आ जाता है।”

यहाँ तुलसीदास यूनिवर्सल की समस्या (problem of universal) की बात नहीं करते, जिसमें मध्यकालीन यूरोप के दर्शन में यह चर्चा की जा रही थी कि नाम एवं रूप में से कौन-सा तत्त्व प्राथमिक है और कौन-सा गौण। तुलसीदास एक दार्शनिक के रूप में संसार के अस्तित्व के रहस्य को खोलने का प्रयास नहीं करते, वरन् एक भक्त-कवि के रूप में आध्यात्मिक स्तर पर यह बात करते हैं कि मनुष्य ईश्वर की उपासना से किस प्रकार सद्भाव एवं सत्कर्म से जुड़ा रह सकता है। तुलसीदास ने सबसे पहले राम को मनुष्य के रूप में चित्रित किया, फिर राम-नाम का महत्त्व बताते हुए वह मार्ग दर्शाया है जिस मार्ग से मनुष्य अपने अंतिम गंतव्य तक कैसे पहुँच सके। इस अर्थ में राम के नाम एवं रूप के दोनों तत्त्व अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। यदि राम-नाम जपने मात्र से वास्तव में भक्ति के परमपद की प्राप्ति संभव होती तो राम के रूप को हमारे सामने प्रस्तुत करने के लिए इतना विशाल प्रबंधकाव्य रचने की आवश्यकता तुलसीदास को नहीं पड़ी होती। तुलसीदास राम के रूप का जीवंत चित्रण करने के साथ-साथ उससे बढ़कर राम-नाम का महत्त्व बताते हैं, इस बात में सगुण एवं निर्गुण का सामंजस्य दिखाई पड़ता है। इसी कारण तुलसीदास को समन्वयवादी कवि का यश प्राप्त हुआ है।

वे ‘विनय पत्रिका’ में प्रबंधकाव्य के बंधन से मुक्त होकर और प्रत्यक्ष एवं और सहज रूप से राम-नाम का महत्त्व बताते हैं। उदाहरण के लिए ये पद पठनीय हैं।

राम नाम जपु जिय सदा सानुराग रे।

कलि न विराग जोग जाग तप त्याग रे॥

सब सुमिरत सब विधि ही को राज रे।

राम को बिसारिबो निषेध सिरताज रे॥

राम नाम महामनि फनि जग जाल रे।

मनि लिए फनि जियै व्याकुल विहाल रे॥

राम नाम कामतरु देत फलचारि रे।

कहत पुरान वेद पंडित पुरारि रे॥

राम नाम प्रेम परमारथ को सार रे।

राम नाम तुलसी को जीवन अधार रे॥वि० प० ६७.१-५॥[६]

राम-नाम जपने का दूसरा गुण समानता है। किसी व्यक्ति के पास चाहे जाति, लिंग आदि किस प्रकार के प्रकृतिप्रदत्त स्वभाव हों (जिनका चयन मनुष्य अपनी इच्छानुसार नहीं कर सकता), राम-नाम जपने से सभी लोग समान रूप से राम के निकट जा सकते हैं। ‘रामचरितमानस’ का निम्नलिखित प्रसंग इस बात को पुष्ट कर देता है।

लंका निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥

मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेही समय बिभीषनु जागा॥

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥रा० च० मा० ५.६.१-२॥[७]

विभीषण रावण का छोटा भाई है, जन्म से राक्षस है। तुलसीदास लिखते हैं कि वह कीर्तन-भजन का भी अधिकारी नहीं था (रिपुको अनुज बिभीषन निसिचर कौन भजन अधिकारी।), परंतु फिर भी राम ने उसे शरण देकर अपनी भुजाएँ पसारकर उससे भेंटा (सरन गये आगे ह्वै लीन्हों भेंट्यो भुजा पसारी॥वि० प० १६६.८॥[८])। कहने का तात्पर्य यह है कि राम-नाम की जपनी एवं राम का कीर्तन-भजन सभी प्रकार के भेदभाव को नष्ट कर देता है। ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसे राम-नाम जपने का अधिकार नहीं है। इस प्रकार तुलसीदास ने विषमतापूर्ण मध्यकाल में समानता का उत्तम रूप दर्शाया है।

अब तुलसी की भक्ति पर दूसरे दृष्टिकोण से प्रकाश डाला जाए। जैसा कि सर्वविदित है, भक्ति-आंदोलन का सूत्रपात १२वीं शताब्दी में दक्षिण-भारत में उत्थित वैष्णव आंदोलन से प्रेरित होकर हुआ है। वस्तुतः वह शंकराचार्य के अद्वैतवाद के विरुद्ध विरोध के रूप में उभरकर सामने आया है। हज़ारीप्रसाद द्विवेदी भक्ति एवं अद्वैतवाद के इस परस्परविरोधी संबंध को लेकर संक्षेप में लिखते हैं; “अद्वैतवाद में, जिसे वाद के विरोधी आचार्यों ने मायावाद भी कहा है, जीव और ब्रह्म की एकता भक्ति के लिए उपयुक्त न थी, क्योंकि भक्ति के लिए दो चीज़ों की उपस्थिति आवश्यक है, जीव की और भगवान् की।”[९]

तुलसीदास भी अपने काव्य में ‘द्वैत’ एवं ‘अद्वैत’ के शब्दों का प्रयोग करते हैं। यहाँ उदाहरण के लिए ‘विनय पत्रिका’ के ये पद पढ़ें।

दुष्ट बिबुधारि संघात अपहरण महि भार अवतार कारण अनूपं।

अमल अनवद्य अद्वैत निर्गुण सगुण ब्रह्म सुमिरामि नरभूप रूपं॥वि० प० ५०.८॥[१०]

अनघ अद्वैत अनवद्य अव्यक्त अज अमित अविकार आनंदसिंधो।

अचल अनिकेत अविरल अनामय अनारंभ अंभोदनादहन बंधो॥वि० प० ५६.८॥[११]

इन पदों में राम ‘अ-’ उपसर्ग से आरंभ होने वाले विभिन्न विशेषणों से वर्णित किए गए हैं, जिनमें से एक ‘अद्वैत’ है। ‘अ-’ नकारात्मक अर्थ-व्यंजक उपसर्ग है और इस उपसर्ग से आरंभ होने वाले विशेषणों का सिलसिला राम के विशेष गुणों की ओर संकेत करता है। जिस प्रकार ‘बृहदारण्यक उपनिषद्’ में याज्ञवल्क्य आत्मा की अनंतता को वर्णित करने के लिए केवल ‘नेति’ शब्द का ही प्रयोग कर पाए, उसी प्रकार राम को भी सामान्य विशेषणों से वर्णित नहीं किया जा सकता।

इसके विपरीत तुलसीदास इस सांसारिक माया-प्रपंच के वर्णन के लिए ‘द्वैत’ शब्द का प्रयोग करते हैं।

जनक जननि गुरु बंधु सुहृद पति सब प्रकार हितकारी।

द्वैतरूप तम कूप परौं नहिं अस कछु जतन बितारी॥वि० प० ११३.४॥[१२]

जौ निजमन परिहरै विकारा।

तौ कत द्वैत जनित संसृति दुख संसय सोक अपारा॥वि० प० १२४.१॥[१३]

द्वैतमूल भय सूल सोक फल भवतरु टरै न टोर्यो।

राम भजन तीछन कुठार लै सो नहिं काटि निवार्यो॥वि० प० २०२.२॥[१४]

इन पदों से स्पष्ट है कि तुलसीदास के लिए ब्रह्म एवं जीव का द्वंद्व मिथ्या है। भय, शोक आदि दुःखात्मक भाव भी द्वैतमूल होते हैं, जिन भावों को राम-नाम जपने से तुरंत ही समाप्त करना चाहिए। इस प्रकार तुलसीदास के काव्य में द्वैतवादी तत्त्व अस्वीकार्य जान पड़ता है। किंतु अब यह प्रश्न उठता है कि यदि द्वैतवाद को नहीं माना जाए तो भक्ति कैसे संभव होती है, अर्थात् तुलसीदास की भक्ति किसके प्रति किसकी भक्ति होती है?

इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए सूफ़ीवाद का ज्ञान उपयोगी होगा। सूफ़ीवाद इस्लाम धर्म का एक रहस्यवादी स्वरूप है, जिस धर्म का आधार कठोर एकेश्वरवाद होता है। सूफ़ीवाद में भी भक्ति की भाँति ब्रह्म (अल्लाह) एवं जीव (मुस्लिम) की एकता उद्दिष्ट है। भक्ति एवं सूफ़ीवाद की समानता इतनी स्पष्ट दिखाई पड़ती है कि भक्ति-आंदोलन के होने के कारण ही मध्यकालीन भारत में सूफ़ीवाद का प्रचार-प्रसार सहजतापूर्वक हो सका। अब कहने का तात्पर्य यह है कि इस्लाम धर्म जैसे कठोर एकेश्वरवाद में भी रहस्यवाद की संभावना रहती है। सूफ़ीवाद के सैद्धांतिक आधारों में वहदतुल्वुजूद का सिद्धांत सबसे महत्त्वपूर्ण होता है, जिसका प्रवर्तन १३वीं शताब्दी में इब्न अरबी ने किया है। इस वहदतुल्वुजूद में वहदत (एकता) से अभिप्राय निश्चय ही अल्लाह है। इस संसार की सभी वस्तुएँ एक प्रकार से विद्यमान होती हैं, किंतु वे सब अल्लाह के ज्ञान का एक स्वरूप मात्र हैं, और जो वास्तव में विद्यमान होता है वह अल्लाह ही है। अर्थात् वहदतुल्वुजूद के सिद्धांत पर आधारित सूफ़ीवाद में अल्लाह एवं मुस्लिम का द्वंद्व नहीं होता है, परंतु फिर भी मुस्लिम अल्लाह के प्रति रहस्यवादी भावना रख सकता है। तुलसीदास की भक्ति भी इसी प्रकार समझी जा सकती है। यद्यपि वास्तविक अस्तित्व केवल राम ही हो, तो भी भक्त राम के प्रति भक्ति की भावना रख सकता है। इस अवस्था में अद्वैतवाद एवं भक्ति परस्परविरोधी नहीं है।

वस्तुतः शंकराचार्य के परवर्ती दार्शनिक रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद शंकराचार्य के अद्वैतवाद एवं भक्ति-सिद्धांत का संयुक्त रूप कहा जा सकता है, क्योंकि विशिष्टाद्वैतवाद में जीव का अस्तित्व माना जाता है, जो शंकराचार्य के अद्वैतवाद में तो नहीं माना जाता था, तथा यह भी कहा जाता है कि यदि जीव ब्रह्म के प्रति भक्ति करेगा तो ब्रह्म जीव को मोक्ष प्रदान करेगा। रामानुजाचार्य के द्वारा प्रवर्तित यह श्री-संप्रदाय वैष्णव मतवाद के चार प्रमुख संप्रदायों में गिना जाता है। रामानुजाचार्य की चौथी-पाँचवीं शिष्य-परंपरा में स्वामी रामानंद थे, जिनसे तुलसीदास भी बहुत प्रभावित होते थे। अतः यदि तुलसीदास के विचारों में विशिष्टाद्वैतवाद के तत्त्व दिखाई पड़ेंगे तो भी यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। परंतु यह बात निश्चित नहीं है कि तुलसीदास, जो ब्रह्म एवं जीव का द्वंद्व नहीं मानते थे, जीव का अपना स्वतंत्र अस्तित्व मानते थे या नहीं। जो भी हो, इतना तो कहा जा सकेगा कि वे अपने काव्य में ‘द्वैत’ एवं ‘अद्वैत’ शब्द का प्रयोग करते थे, किंतु इन शब्दों को किसी मतवाद विशेष के अनुसार समझ लेना कहीं-न-कहीं भूल हो सकता है, क्योंकि वे अंततः दार्शनिक नहीं थे, वरन् कवि ही थे।

अंत में और एक पद पढ़ें जिसमें ‘द्वैत’ का उल्लेख मिलता है।

सकल दृश्य निज उदर मेलि सोवै निद्रा तजि जोगी।

सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख अतिसय द्वैत बियोगी॥वि० प० १६७.४॥[१५]

अर्थात् समस्त दृश्य जगत् को अपने मन में मिलाकर जो योगी निद्रा को त्याग देता है, जो ‘द्वैत’ से वियुक्त रहता है, वही भगवान् हरि के परम सुख का अनुभव कर सकता है।

इस संदर्भ में ‘भगवद्गीता’ के इस श्लोक को स्मरण करना अनुचित नहीं होगा।

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।

यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥२.६९॥

यहाँ भक्ति से संबंधित दो महान् ग्रंथों, ‘भगवद्गीता’ एवं ‘रामचरितमानस’ का एक संगम देख सकते हैं।

सहायक ग्रंथ

तुलसीदास, हनुमानप्रसाद पोद्दार (व्याख्या), २०१५, श्रीरामचरितमानस, गीताप्रेस

तुलसीदास, रामनरेश त्रिपाठी (व्याख्या), २०१७, श्री रामचरितमानस, लोकभारती प्रकाशन

तुलसीदास, योगेंद्र प्रताप सिंह (संपादक), २००९, विनय पत्रिका, लोकभारती प्रकाशन

हज़ारीप्रसाद द्विवेदी, २०१६, हिंदी साहित्य की भूमिका, राजकमल प्रकाशन

*रामचरितमानस के लिए गीताप्रेस-संस्करण के अनुसार ही पृष्ठसंख्याएँ दी गई हैं।

[१] रामचरितमानस, पृष्ठ २९

[२] तदेव, पृष्ठ ७५९

[३] तदेव, पृष्ठ ७६०

[४] तदेव, पृष्ठ ८०५

[५] तदेव, पृष्ठ २५

[६] विनय पत्रिका, पृष्ठ १०८

[७] रामचरितमानस, पृष्ठ ६६२-६६३

[८] विनय पत्रिका, पृष्ठ २१४

[९] हिंदी साहित्य की भूमिका, पृष्ठ ५४

[१०] विनय पत्रिका, पृष्ठ ८६

[११] तदेव, पृष्ठ ९४

[१२] तदेव, पृष्ठ १५५

[१३] तदेव, पृष्ठ १६७

[१४] तदेव, पृष्ठ २५५

[१५] तदेव, पृष्ठ २१५

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