भारतीय डायस्पोरा की ‘महतारी’ भाषा: उद्भव, विकास एवं स्वरूप

डॉ. मुन्नालाल गुप्ता1, डॉ. राजीव रंजन राय2

सार

महतारी भाषा का अर्थ है माँ की भाषा। भारतीय डायस्पोरा की महतारी भाषा का अर्थ स्वभूमि की भाषा, बोली और उसके विविध प्रचलित रूपों से है। औपनिवेशिक भारत के विविध भौगोलिक क्षेत्रों से प्रवासित होने वाले भारतीय लोगों की महतारी भाषा और उनकी विविध बोलियां जैसे मगही, अवधी, भोजपुरी, मैथिली,  मराठी, बंगला आदि थी। भारतीय डायस्‍पोरा का उद्भव विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक-सांस्कृतिक अनुकूलन के कारण हुआ। अनुकूलन परिस्थितियों में भारतीय डायस्‍पोरा समुदायों में भाषा की स्थिति भी विविधतापूर्ण बनी। आज इन समुदायों में महतारी/पूर्वज भाषा को बचाए रखना और उसका पूर्णतया विलुप्‍त हो जाना दोनों ही विपरीत ध्रुवीय स्थितियाँ दिखाई देती हैं। कुछ परिस्थितियों में जीवन के अलग-अलग पक्षों में इनका अस्तित्‍व बना हुआ है। श्रीलंका में तमिल इस्‍टेट, इंग्‍लैंड में पंजाबी सिक्‍ख और संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका में गुजराती हिंदू अपने पूर्वजों की भाषा को अपनाए हुए हैं। ठीक इसके विपरीत जमैका के भारतीय अपनी मूल भाषा खो बैठे हैं। मॉरीशस, फिजी और सूरीनाम में भारतीय भाषाओं ने अपना अस्तित्‍व आज भी बनाए रखा है। इन स्‍थानों पर भोजपुरी बोली बतौर जीवन के अनौपचारिक क्षेत्रों में आज भी प्रचलित है, लेकिन धार्मिक और सांस्‍कृतिक गतिविधियों में हिंदी भाषा प्रचलन में है। प्रस्तुत आलेख में प्रवासित भारतीय समुदाय द्वारा गंतव्य की प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी महतारी भाषा/बोली के प्रचलित स्वरूपों, इनके संरक्षण के प्रयासों एवं इनसे जुड़ी भाषाई प्रक्रियाओं और परिवर्तनों को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है। इसके लिए भारतवंशी समुदायों द्वारा महतारी भाषा में लिखित रचनाओं और जीवंत उदाहरणों को आधार बनाया गया है।

बीज शब्द : डायस्पोरा, लिंगुआ फ्रैंका,  पिजिन, कोईन, क्रिओल, ओवरसीज भोजपुरी, नताली हिंदी, पुरनिया हिंदी, सरनामी, फिजी बात।

            वर्तमान समय का भारतीय डायस्पोरा पुराने और नए भारतीय प्रवासियों के बहुआयामी विकास का परिणाम है। भारतीय डायस्‍पोरा ने बहुत ही कठिन परिश्रम, लगन, सृजनशीलता और उद्यमशीलता के कारण समुद्रपारीय गंतव्य देशों में अपनी विविधतापूर्ण सामाजिक सांस्कृतिक पहचान तथा भाषा को सुरक्षित रखा है। यह विविधता उसके प्रवासन के इतिहास, क्षेत्रीयता, भाषा, धर्म, आर्थिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि के कारण है। भारतीय डायस्पोरामें महतारी भाषा से संबंधित उद्भव, विकास एवं स्वरूप को समझने के लिए भारत से लोगों के समुद्रपारीय देशों में आवागमन को ऐतिहासिक चरणों एवं स्वरूपों में देखा जा सकता है। प्रथम चरण, पूर्व-औपनिवेशिक थे, जो सैनिक अभियानों, वाणिज्यिक बसाहटों और धार्मिक प्रचारकों से जुड़ा हुआ था। द्वितीय चरण, वाणिज्यिक औद्योगिक पूंजीवाद, औपनिवेशिक पूँजी युग से संबंधित था, जिसमें यूरोपीय कालोनियों के लिए सत्रहवीं सदी के आरंभ से निरंतर दासों, सिद्धदोष लोगों, कंगनी-मिस्त्री मजदूरों और औपबंधिक मजदूरों का छलपूर्वक, बलपूर्वक और विवशतावश प्रस्थान जारी रहा, जो उन्‍नीसवीं एवं आरंभिक बीसवीं शताब्दी में संस्‍थागत और वैधानिक रूप प्राप्‍त कर अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। औपनिवेशिक काल के प्रवासन में समान सामाजिक-ऐतिहासिक परिवेश के कारण भारतीय डायस्पोरा को अपनी पैतृक भाषाओं के अनुकूलन, परिवर्तन, संरक्षण और ह्रास की लगभग समान प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। तृतीय चरण उत्तर-औपनिवेशिक था, जिसमें अकुशल, अर्द्ध-कुशल, कुशल और उच्च कुशल एवं विशेषज्ञ भारतीयों का प्रवासन विकासशील और विकसित देशों के लिए हुआ (ब्रिज. वी.लाल, 2007)।

            भारतीय डायस्‍पोरा का विकास अलग-अलग क्षेत्रों में सामाजिक अनुकूलन के कारण हुआ, जिसके कारण भारतीय डायस्‍पोरा समुदायों में भाषा की स्थिति भी विविधतापूर्ण बनी हुई है। इन समुदायों में महतारी/पूर्वज भाषा को बनाए रखना और उसका पूर्णतया विलुप्‍त हो जाना दोनों ही विपरीत ध्रुवीय स्थितियाँ दिखाई देती हैं। कुछ परिस्थितियों में जीवन के अलग-अलग पक्षों में इनका अस्तित्‍व बना हुआ है। श्रीलंका में तमिल इस्‍टेट, इंग्‍लैंड में पंजाबी सिक्‍ख और संयुक्‍त राज्‍य अमेरिका में गुजराती हिंदू अपने पूर्वजों की भाषा को अपनाए हुए हैं। ठीक इसके विपरीत जमैका के भारतीय अपनी मूल भाषा खो बैठे हैं। मॉरीशस, फिजी और सूरीनाम में भारतीय भाषाओं ने अपना अस्तित्‍व आज भी बनाए रखा है। इन स्‍थानों पर भोजपुरी बोली बतौर जीवन के अनौपचारिक क्षेत्रों में आज भी प्रचलित हैं, लेकिन धार्मिक और सांस्‍कृतिक गतिविधियों में हिंदी भाषा प्रचलन में है। फिजी और मॉरीशस में मानक हिंदी को सरकारी तौर पर महत्‍व प्रदान किया गया है। गयाना और त्रिनिदाद में भोजपुरी चटनी संगीत और लोकगीतों का माध्‍यम है, जबकि हिंदी जीवन के अन्‍य क्षेत्रों में प्रचलन में है। इन सभी देशों में स्‍थानीय रूप से प्रचलित बोल-चाल/लिंगुआ फ़्रैंका की अलग भाषाएं भी श्रीलंका में प्रभावी हैं, उदाहरण के लिए सिंहली, मॉरीशस में फ़्रेंच और अंग्रेजी क्रिओल,फिजी में फिजी भाषा, सूरीनाम में डच क्रिओल एवं गयाना और त्रिनिदाद में क्रिओल अंग्रेज़ी प्रचलन में है (जयराम, 2004:148)।

            भारतीय डायस्पोरा में विद्यमान महतारी भाषा की गतिशील प्रक्रिया को समझने के लिए इन प्रवासी समुदायोंकी क्षेत्रगत सामाजिक-भाषिक बनावट और विविधता को जानना आवश्यक है। भोजपुरी ‘महतारी’ का हिंदी अर्थ माँ, माता, जननी, मातु आदि से है। महतारी भाषा का अर्थ है माता की भाषा। भारतीय डायस्पोरा की महतारी भाषा का अर्थ स्वभूमि की भाषा, बोली और उसके विविध रूपों  से है। भारत के विविध भौगोलिक क्षेत्रों से प्रवासित होने वाले भारतीय लोगों की महतारी भाषा और उनकी विविध बोलियां जैसे मगही, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मराठी, बंगला आदि थी। औपनिवेशिक अनुबंधित मजदूरों और अन्य प्रवासी समूहों द्वारा बोली जाने वाली बोलियों और भाषाओं की विविधता को (मेस्त्री, 2007: 90-94) ने निम्‍नानुसार प्रस्तुत किया है:

  1. प्रथम प्रवासन मॉरीशस और ब्रिटिश गयाना के लिए छोटानागपुर (झारखंड), बंगाल, बिहार के आदिवासी क्षेत्रों से हुआ।इस क्षेत्र के लोगों को धांगर/ हिल कुली के नाम से जाना जाता था।ये लोग ऑस्ट्रो-एशियाटिक भाषा (संथाली, मुंडा और हो) बोलते थे। मॉरीशस में आज भी उपनाम/कुलनाम (सरनेम) है दोगूर तथा दिगूर, जो धांगर का अपभ्रंश रूप है।
  2. मद्रास बंदरगाह के माध्यम से दक्षिण भारत के तमिल और तेलुगु भाषी प्रवासियों का अधिकता में प्रवासन हुआ। मलयालम और कन्‍नड़ भाषियों की संख्या लगभग सीमित रही। भारतीय डायस्पोरा में तमिल और तेलुगु भाषाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है।
  3. कलकत्‍ता बंदरगाह द्वारा उत्तर भारतीय इंडो-आर्यन भाषा (भोजपुरी, अवधी, मगही, कन्‍नौजी, राजस्थानी, ब्रज और ओड़िया) बोलने वाले लोगों का प्रवासन हुआ।
  4. पश्‍चिमी और मध्य भारत से मुंबई बंदरगाह द्वारा (आज के महाराष्ट्र प्रांत के) मराठी और कोंकणी भाषी लोगों का मुख्य रूप से मॉरीशस  के लिए प्रवासन हुआ।
  5. प्रवासियों का कुछ भाग उर्दू बोलने वाले मुसलमान लोगों का भी था।
  6. इन औपबंधिक गिरमिटिया श्रमिकों के साथ ही गुजराती, बंगाली और पंजाबी बोलने वाले कुछ भारतीय व्यापारियों का प्रवेश इन औपनिवेशिक बागानों में हुआ।

भारत से विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में निरंतर हुए प्रवासनों के बाद इन बोलियों के बीच पारस्परिक अतंरक्रिया, समतलीकरण आदि प्रकियाओं से महतारी बोली के विविध स्वरूपों का विकास हुआ।

पिजिन, कोईन, क्रिओल निर्माण की पृष्ठभूमि

गंतव्य देशों में भारतीय प्रवासियों की स्थिति विशेष प्रकार की थी। औपनिवेशिक काल के अधिकांश प्रवासी भारतीय पढ़े-लिखे नहीं थे। वे न तो गंतव्य बागानों की भाषा जानते थे और न ही वे औपनिवेशिक भाषा (अंग्रेजी, डच और फ्रांसीसी) जानते थे।यहाँ तक की विभिन्‍न भारतीय समुदाय आपस में वार्तालाप करने की स्थिति में भी नहीं थे, क्योंकि उत्तर के लोग भारतीय-आर्य भाषी थे, जबकि दक्षिण भारतीय द्रविड़ भाषी थे। गुजराती भाषी व्यापारी तथा मराठी भाषी, उत्तर भारतीय मजदूरों से हिंदी का सरल रूप, जिसे ‘बंबई बाजार हिंदुस्तानी’ कहा गया में, बात कर सकते थे, परंतु वे द्रविड़ भाषी लोगों से बात करने में असमर्थ थे। कुल मिलाकर विदेशी परिस्थितियाँ मिश्रित भाषा (कोईन, पिजिन, क्रिओल) की पृष्ठभूमि बना रही थी। उदाहरण के लिए फिजी में औपनिवेशिककालीन अंतर-नृजातीय संपर्क के कारण दो पिजिन भाषाओं का विकास हुआ। इनमें से एक फिजी‍यन भाषा से बनी थी और प्रवासी भारतीयों के आगमन के पहले से विद्यमान थी, जबकि दूसरी का विकास भारतीयों के आगमन के पश्‍चात हिंदी के आधार पर निर्मित हुआ। इसी प्रकार नताल (दक्षिण अफ्रीका) में भारतीयों के आगमन से पूर्व देशज ज़ुलु तथा झोसा बोली और यूरोपीय भाषाओं के आधार पर निर्मित ‘फनाकालो’ पिजिन भारत के उत्‍तर और दक्षिण भाषियों के बीच संप्रेषण का माध्यम बनीं। इसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में भी प्रवासी भारतीय समुदायों द्वारा पूर्व से अस्तित्ववान स्थानीय संप्रेषण की भाषा को द्वितीय भाषा के रूप में अपनाया गया। उदाहरण के लिए जमैका, गयाना, त्रिनिदाद में क्रिओल इंग्लिश और मॉरीशस,रीयूनियन, सेशेल्स में क्रिओल फ्रेंच, सूरीनाम में टोंगो-स्रनन  और सिंगापुर एवं मलाया में मलय आदि।

पिजिन (बोलियों का मिश्रण)

जब दो भाषा समुदाय के सदस्‍य परस्पर संपर्क में आते हैं, तो भाषाएं अलग-अलग होने के कारण उनके बीच संप्रेषण नहीं हो पाता है। इन परिस्थितियों में उनके बीच पारस्परिक संप्रेषण को संभव बनाने के लिए तीसरी मिश्रित भाषा का उद्भव होता है, जो मानक रूप से भिन्‍न होती है। इस संदर्भ में, कार्यव्‍यापार को संपादित करने के लिए जिस तीसरी मिश्रित भाषा को जन्‍म देते हैं, उसे पिजिन भाषा कहते हैं(बनारसीदास, 1960: 376-378; नारंग, 1981: 141; रस्तोगी, 2000:146)। पिजिन शब्द बिजनेस का पिजिनीकृत रूप है। बिजनेस शब्द परिवर्धित होकर Business®bijnes®pigin पिजिन के रूप में विकसित हुआ। यह भाषा मानक भाषा की भांति किसी समुदाय की मातृभाषा नहीं होती और न ही इसमें किसी प्रकार की मानकीकरण की प्रक्रिया होती है। उदाहरण के लिए नाताल में अंतर-नृजातीय संपर्क के कारण ‘फनाकालो’ पिजिन का जन्‍म हुआ। यूरोपीय तथा जनजातीय जुलु तथा झोसा बोलने वालों के नृजातीय संपर्क के कारण यह पिजिन रूप प्रचलित हुआ। इसका उपयोग यूरोपीय लोगों, जुलू, झोसा और उत्तर-दक्षिण भारतीय लोगों के बीच संचार के लिए होने लगा। प्रवासी भारतीयों के लिए उस क्षेत्र में पहले से उपस्थित क्रिओल दूसरी भाषा बनी। क्रिओल-अंग्रेजी जमैका, गयाना और त्रिनिदाद में, मॉरीशस, सेशल्स और रियूनियन में क्रिओल-फ्रेंच, डच-अंग्रेजी क्रिओल स्रनन (Sranan) सूरीनाम में, स्वाहिली पूर्वी अफ्रीका, मलय भाषा मलया और सिंगापुर में भारतीयों के लिए संपर्क तथा कार्य व्यापार की दूसरी भाषा बनी।

कोईन निर्माण/कोईनाइजेशन

कोईन निर्माण को एक क्षेत्र विशेष की विभिन्न बोलियों के समतलीकरण के रूप में माना जाता है। बहुत सारी बोलियों के बीच बोल-चाल के लिए कई भाषा की बोलियों के समतलीकरण से नई बोली (बोल-चाल/लिंगुआ फ्रैंका) के विकास को कोईन निर्माण या कोईनाइजेशन कहते हैं। दूसरे रूप में इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं कि जब असमांग भाषाई परिस्थितियों और क्षेत्रीय भिन्नता वाले लोग एक साथ उत्प्रवासन डिपो, जहाज तथा बाद में औपनिवेशिक बागान में एक साथ रहने लगे, तब उत्तर भारतीय लोगों को आपस में बातचीत करने के लिए पहले से मौजूद विविध प्रकार की बोलियों के समतलीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई। अलग-अलग बोली वाले वक्ताओं के बीच नए प्रकार की बोली (Dialect) का प्रचलन होने लगता है। यह प्रक्रिया ही कोईनाईजेशन कहलाती है।

कोईन निर्माण प्रक्रिया पर पहला विस्तृत शोध कार्य एस.के. गंभीर (1983) द्वारा किया गया। उन्होंने गयाना में पुरनिया हिंदी कोईन निर्माण पर विस्तृत अध्ययन किया। यह एक प्रकार का पूर्वी-पश्चिमी हिंदी का मिश्रण है, जिसमें भोजपुरी भाषा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। कहीं-कहीं यह क्रिओल और अंग्रेजी से भी प्रभावित है। यह कोईन अलग-अलग उपनिवेशों में हिंदी की उपभाषा के रूप में अलग-अलग नामों से जानी गई। नयी भोजपुरी जिसे त्रिनिदाद भोजपुरी या प्‍लाटेंशन हिंदुस्‍तानी कहा गया, नटाल में नए कोईन को कलकतिया बात (नताली हिंदी), पुरनिया हिंदी/हिंदुस्तानिया (गयाना), समुद्रपारीय भोजपुरी हिंदी (Overseas Bhojpuri-Hindi, OBH) मॉरीशस में बसे उत्तर भारतीय लोगों के लिए एक महत्त्वपूर्ण भाषा बनी। इसी प्रकार सूरीनाम में सरनामी, फिजी में फिजी हिंदी/फिजी बात (अवस्थी, 2015 : 95) प्रचलित हो गई। वर्तमान में इन कोईन भाषिक रूपों को दो प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। पहली, स्थानीय भाषा (क्रिओल) तथा दूसरी अंतरराष्ट्रीय, प्रशासन, उच्च शिक्षा की, रोजगार के लिए प्रशासन समर्थित अंग्रेजी भाषा। 

            कोईन के साथ-साथ हिंदी का उपयोग भी प्रचलन में है। औपचारिक क्षेत्रों (शिक्षा) कार्यालय में हिंदी जबकि अनौपचारिक क्षेत्रों (घर, पड़ोसी) में कोईन (हिंदी की उपभाषा) का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार भाषा प्रयोग की प्रक्रिया भाषा द्वैत (Diglossia) कहलाती है (रस्तोगी, 2000: 141, ब्रिज वी लाल, 2007:93)।

            कोईन निर्माण के कुछ उदाहरण निम्नानुसार हैं:

मॉरीशस, गयाना, त्रिनिदाद, दक्षिण अफ्रीका और सूरीनाम में:

क्रिया+ला+सहायक क्रिया=हम देखिला।

फिजी में:

क्रिया+ता+सहायक क्रिया  =हम देखता है।

मॉरीशस, गयाना,त्रिनिदाद, दक्षिण अफ्रीका और सूरीनाम में:

भविष्‍यत काल तथा प्रथम पुरूष-

क्रिया+ब= हम देखब   ( मैं देखूंगा )

जबकि फिजी में, भविष्‍यत काल…

क्रिया+एगा= हम देखेगा (मैं देखूंगा)

तृतीय पुरूष और भूत काल के लिए

मॉरीशस में-ऊ देखलस

त्रिनिदाद में-ऊ देखल

गयाना में -ऊ देखले

सूरीनाम में- ऊ देखिस

फिजी हिंदी में-ऊ देखऊ/देखिस

समुद्रपारीय भोजपुरी हिंदी (ओ.बी.एच.)

औपनिवेशिक काल में उत्‍तर भारतीय लोगों का अंतरराष्‍ट्रीय प्रवासन फिजी, मॉरीशस, गुयाना, सूरीनाम जैसे देशों के लिए हुआ। उत्‍तर भारतीय लोगों में कई भाषा-बोली जैसे भोजपुरी, अवधी, मगही, कन्नौजी, ओडिया, संताली, मुंडा, हो आदि के प्रयोक्ता समूह सम्मिलित थे। परंतु इनमें भोजपुरी भाषा बोलने वाले लोगों की संख्‍या सभी उपनिवेशों में अधिक थी। इस कारण समुद्रपारीय भारतीय समुदाय में अलग-अलग देशों में भोजपुरी से प्रभावित हिंदी भारतीय लोगों की बोल-चाल (लिंगुआ फ़्रैंका) की भाषा बनी, जिसे ‘समुद्रापारीय भोजपुरी हिंदी’ के नाम से जानते हैं (ब्रिज वी. लाल, 2007:93)। ओबीएच के उदाहरण तथा कोईन के उदाहरण समान हैं, जैसे- सरनामी, फिजी हिंदी, कलकतिया बात, नाताली हिंदी, पुरनिया हिंदी (गयाना), त्रिनिदाद भोजपुरी इत्‍यादि।

फिजी हिंदी

फिजी की स्‍थानीय भाषा (काईबिती) तथा हिंदी भाषा क्षेत्र की भाषाओं यथा अवधी, मगही, ब्रज, भोजपुरी के प्रभाव से नव विकसित हिंदी की शैली को फिजी के भारतवंशियों  ने फिजी बात या फिजी हिंदी/फिजी हिन्दुस्तानी (सिगल, 1975) की संज्ञा दी। आज फिजी में कई हिंदी लेखकों की फीजी हिंदी में साहित्यिक रचनाएँ निरंतर प्रकाशित हो रही है। सुब्रमनी (फिजी माँ, डउका पुरान), रेमण्ड पिल्लई (अधूरा सपना), ब्रिज विलास लाल, महेन्द्र चन्द्र शर्मा, ‘विनोद’ तथा बाबूराम शर्मा ने फिजी हिंदी को साहित्यिक गौरव प्रदान किया है। फिजी मूल के अंग्रेजी के विद्वान सुब्रमणि ने डायस्पोरा अनुभव को रूप देने के लिए अपनी महतारी भाषा फिजी हिंदी में उपन्यास ‘डउका पुराण’ और ‘फिजी माँ’ का लेखन किया।

फिजी हिंदी का उदाहरण

“का करिहो संझाक? फ़ीजीलाल भोजन पानी कर लेई तू घुमाय देना खेतन मा। धुरूप जुटा है जमीन कोडि़यायम। तू देख लेना। छोटा है, केतना करी अकेल। आज नाही तो बिहान, देखना कइसे है। टेम रहिते-उदित नरायन कै इस्टेट घुमाय देना। दूरेस देखाय देना नाही तो कुत्ता आफत करिहें। पाल रखे है दुई तीन जबर कटहा कुत्ता। एक कै नाम धरिस है कालीचरन। वही कालीचरनवा सबन से बदमास। सके अदमिन कै जिंदे नोच लेवै। कुत्ता ना होत तो सूरज मिलाय देत ऊनास। ऊना है तो कइबीती लेकिन चाल चलन, रहन सहन एकदम हिंदुस्तानी। अब हिंदुस्तानीक संगे रहे, काहे न रहन सहन बदली…।

(सुब्रमनी, 2001, डउका पुरान)।

मारकेट के लगे रस्ता पार करा, गांधारी आपन टेक्सी  रोक के सीसा निच्चे करिस। सब कोई गांधारीके शोला देबी बोले। शोला देबी कोई से डरे वरे नइं। अदमिन से जादा हिम्मत वाली है। हरदम बोला करी हम से फालतू  जान जोखिम में डारे के जरूरत नइं है, कहीं अड़-बड़ जगहा जाय  के रही हम पहुँचायगा। कू के टेम जब बस नइं चले, गांधारी हम्मे घरे पहुँचाय दे। अउरत लोग के हरदम खियाल करे। समझाई हम्मे, “ई मरद टेक्सी वालन के कोई भरोसा नइं, किसके साथे मिलिन हैं नइं सको बताव”। खाकी कपड़ा में गांधारी मरद से कमती  नइं लगे। सोचा करी कि आफत के टेम कोई तो खियाल करे वाली है।

(सुब्रमनी, 2018, फिजी माँ: हजारों की माँ)।

क्रिओल तथा क्रिओलीकरण

क्रिओलीकरण की अवधारणा मुख्यतः कैरेबियाई क्षेत्र की गहरी संस्तरीकृत व्यवस्थाओं (बागान/गुलामी व्यवस्था और इससे जुड़ी प्रजातीय/वर्ण आधारित) में सांस्कृतिक अनुकूलन तथा परिवर्तन की प्रक्रियाओं के वर्णन एवं विश्लेषण में प्रयोग की जाती है। इसके कारण नवीन विश्व (न्यू वर्ल्ड) में नएसांस्कृतिक रूपों का उदय हुआ। स्पेनिश ‘क्रिआर’ (बनाना अथवा कल्पना करना) तथा ‘कोलोन’ (कालोनी का बामशंदा, नींव रखने वाला, बसने वाला) के संयोजन से बना पद क्रिओल ब्रिटिश कैरेबियन में उन लोगों, भाषाओं और सांस्कृतिक वस्तुओं की ओर संकेत करता है, जिनकी बनावट विभिन्न अलग तत्त्वों के मिश्रण से हुई है। क्रिओलीकरण के उदाहरण के रूप में अफ्रीकी और यूरोपीय लोगों की मिश्रित संतति क्रिओल के नाम से जानी जाती है। इसी प्रकार, कैरेबियाई देशों में इस प्रक्रिया के तहत निर्मित क्रिओल ब्रिटिश कैरेबियन कहलाए। भाषा के क्षेत्र में क्रिओल को इन संधि क्षेत्रों में प्रचलित पिजिन बोली का मानकीकृत रूप में माना जाता है। भाषा के क्षेत्र में, क्रिओलीकरण के उदाहरण, मॉरीशस के मूल लोगों की भाषा+फ्रेंच= क्रिओर अंग्रेजी की भाषा। इसमें फ्रेंच भाषा के शब्द बहुतायत में पाये जाते हैं। जब एक पीढ़ी पिजिन बोली को प्रथम भाषा के रूप में सीखती है और इसे मातृभाषा के रूप में स्‍वीकारती है, तो इस भाषा के व्‍यवहार क्षेत्र को और व्‍यापक बनाने का कार्य भी स्‍वभाविक रूप से होने लगता है। ऐसी स्थिति में पिजिन बोली को क्रिओल कहा जाता है अर्थात् पिजिन का क्रिओलीकरण हो जाता है। क्रिओल को पिजिन भाषा का मानकीकृत रूप भी कह सकते है (बनारसीदास,1960: 382-383)।

            वास्‍तव में क्रिओलीकरण की प्रक्रिया पिजिन भाषा उत्‍पन्‍न होने के ठीक विपरित है। पिजिन में भाषा का व्‍यवहार सीमित होता है। जबकि क्रिओल में भाषा व्‍यवहार को मानकीकृत कर विस्‍तार की कोशिश होती है। जहां पिजिन भाषा का शिक्षा के माघ्‍यम के रूप में प्रयोग संभव नहीं वहीं क्रिओल का एक मातृभाषा भाषी समुदाय होता है, जो इस भाषा में औपचारिक शिक्षण-प्रशिक्षण की आवश्‍यकता को महसूस करता है (नारंग, 1981:141, रस्तोगी, 2000:146)।

मॉरीशसीय क्रिओल का उदाहरण

हम पोर्ट लुइस शहर गइल रहनी। वांह परी हम आनेकोववलेन जो औरी एगो मद्राजीन औरी एगो खाला संगे रहलन स। हम सब एगोरेस्टोरां में गैनी स औरी आपलों और सालायों खैनी औरी पीनी स। घर आवटबखत, रों पोएं से आगे हमनी के लोटो के ला रू में एगो कुलु गर गय्ल। बीफेके हमनी आका आमय के ववंदु में गैनी औरी गोपाल के घरे से हमनी खानतरडोकला औरी मोदक भेजल गइल। वाह कैसन म़ेदार खायाके के रहल। मॉरीशस त महान ह। उ त स्वरग जयसन बा।

नाताली हिंदी

दक्षिण अफ्रीका की स्‍थानीय भाषा तथा भारतीय भाषाओं के विभिन्‍न रूपों के सम्मिश्रण से जिस हिंदी भाषा का रूप उभरा, उसे नाताली हिंदीकहते हैं। दक्षिण अफ्रीका में बसे हुए भारतीय मूल के लोगों के बीच बोली जाने वाली हिंदी की विशिष्टभाषिक शैली को नाताली नाम से संबोधित किया जाता है। दक्षिण अफ्रीका चार प्रांतों में बँटा हुआ है- नताल, केप, आरेंज फ्री स्टेट तथा ट्रांसवाल। दक्षिण अफ्रीका के महानगर डरबन में भारतीय मूल के निवासी सबसे अधिक हैं। यहाँ पर बोली जाने वाली हिंदी, जो भोजपुरी हिंदी का एक विशिष्ट रूप है, भारतीयों के मध्य बोली जाती है, उसे नाताल में बोली जाने के कारण नाताली कहा जाता है। आज दक्षिण अफ्रीका में नाताली बोलने वाले भारतीय मूल के लोग अधिक नहीं हैं। यही कारण है कि नाताली में साहित्य लेखन बहुत कम हो रहा है। वहाँ के लोकगीतों में नाताली का रूप आज भी देखने को मिलता है। लोकगीतों का एक विशिष्ट रूप जिसे‘चटनी’ नाम से संबोधित किया जाता है, आजकल प्रतिष्ठितभारतीय समाज में बहुत लोकप्रिय हो चुका है। विवाह के अवसरों पर आज इनकी माँग बहुत बढ़ गई है, क्योंकि पश्चिमी डिस्को की शैली में ढले ये नाताली लोकगीत आधुनिक फैशन केप्रतीक बन गए है। इन चटनी लोकगीतों ने भारतीय समाज के सांस्कृतिक तथा भाषिक मूल की ओर भारतीयों को फिर से आकर्षित किया है। यह नाताली हिंदी ही है, जो भारतीयों को उनके मूल भारत से तथा उनके कर्मक्षेत्र दक्षिण अफ्रीका से जोड़े हुए है।

नाताली हिंदी भाषा का उदाहरण

बागान का गोरा साहब:“यू रास्कल, टुम काम छोड़ डेना चाहटा है। हम टुमारा बोटी बोटी काट डालेगा”।

गिरमिटिया मजदूर: “नाहीं साहेब…. हम काम छोड़ के कहां जाइब?  दुई चार दिनां का हमका छुट्टी देव”।

कैरेबियाई हिंदुस्तानी/ सरनामी हिंदी

यह सूरीनाम, गयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो में बोली जाने वाली भोजपुरी का एक कोईन प्रतिरूप है। इन तीन देशों में प्रचलित हिंदी बोली के रूपों के आगे देश का नाम जोड़ दिया जाता है। उदाहरण के लिए सूरीनाम में स्थानीय भाषा के संस्करण को सरनामी हिंदुस्तानी कहा जाता है। अधिकांश लोग अभी भी भाषा को ‘हिंदुस्तानी’ कहते हैं। यह मुख्यत: अवधी और भोजपुरी बोलियों पर आधारित कोईन है। इसी प्रकार पुरनिया हिंदी, त्रिनिदादी भोजपुरी, निकेरी-बारबिशियन हिंदुस्तानी अलग-अलग कोईन भाषिक रूप हैं।

सरनामी भाषा (कैरेबियन हिन्दुस्तानी) का विकास सूरीनाम की डच भाषा और अनुबंध श्रमिक व्‍यवस्‍था के अंतर्गत गए भोजपुरी तथा अन्‍य भारतीय भाषाओं को बोलने वाले भाषा-बोली के मिश्रण से हुआ है (कोफ़ी यक्पो, 2017)। सरनामी, सूरीनाम में रहने वाले अप्रवासी भारतीयों की संपर्क भाषाभी है। सरनामी, सरनामी हिंदी, सरनामी हिंदुस्तानी भी कहते हैं। उच्चारण की दृष्टि से इसके शब्द अवधी बोली से मिलते जुलते हैं, लेकिन इस पर रोमन लिपि का प्रभाव भी साफ़ नजर आता है, क्योंकि इसे रोमन लिपि में लिखा जाता है। डॉ. जीत नारायण सरनामी के प्रमुख लेखक हैं (अवस्थी, 2015:156-160)। सूरीनाम के मुंशी रहमान खान ने अपने गिरमिटिया जीवन अनुभव को अपनी महतारी भाषा के माध्यम से आत्मकथा ‘जीवन प्रकाश’ में अभिव्यक्ति दी।

त का करीं अब ओहीं कनतराकके काटै पाँच बररस भैन। फिर कागद पाएन, त बोले जाओ, तू हियाँ रहिहो तो खेत देइब। आठ दुअन्नी रोज देइब। बोले पाँच चवन्नी, डेढ़ रुपया रोज कमाइत हउ। त किवड़वा से बतिया लगे पर एक खूब बढ़िया आदमी है…।

                                                             (‘पुरखन के याद में’, पृष्ठ 42-43, सरनामी पत्रिका अंक 1,1986)

गयाना भोजपुरी/पुरनिया हिंदी

इसे गयाना भोजपुरी या पुरनिया हिंदी के नाम से जाना जाता है। पुरनिया हिंदी उस कोइन को दिया गया नाम है, जो उन सभी भारतीय बोलियों से विकसित हुआ है, जिन्हें पूर्वी भारतीय प्रवासियों द्वारा उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी के दौरान ब्रिटिश गयाना (अब गयाना) ले जाया गया था। हालाँकि, गयाना में, पूर्वी भारतीय भोजपुरी शब्द (जिसे भोजपुरिया भी कहा जाता है) से परिचित नहीं हैं, जिस पर कोइन आधारित है। इसके बजाय, वे अपनी भाषा को हिंदी या हिंदुस्तानी कहते हैं। वे इसे मानक हिंदी से अलग करने के लिए पुरानी हिंदी शब्द का भी उपयोग करते हैं। इसे पुरानी हिंदी कहने का उनका कारण यह नहीं है कि यह अन्य की तुलना में अधिक प्राचीन है, बल्कि यह भारतवंशी समाज के सबसे पुराने सदस्यों और पिछली पीढ़ियों द्वारा बोली जाती थी (गंभीर, 1983)।

त्रिनिदाद भोजपुरी और उसका संघर्षण

त्रिनिदाद में अनुबंध श्रमिक व्‍यवस्‍था के तहत श्रमिकों, खेतिहरों को पश्चिम बिहार, पूर्वी उत्‍तर प्रदेश (संयुक्‍त प्रांत), दक्षिणी बिहार के छोटानागपुर पठार से हो, संताली, मुंडा, भोजपुरी, अवधी, मगही, मैथिली भाषा-भाषी लोगों को ले जाया गया। बाद के दिनों में बंगाली, नेपाली तथा दक्षिण भाषी लोगों को (यथा तमिल, तेलुगु, मलयालम) लाया गया। खेती के दौरान आपसी बात-व्‍यवहार (लिंगुआ फ्रैंका) के लिए भारतीय अनुबंधित  श्रमिकों ने भाषाई गतिशीलता (कोईन निर्माण प्रक्रिया तथा भाषाई समतलीकरण) के साथ एक नई भाषा का विकास किया, जिसमें भोजपुरी भाषा की प्रधानता थी। इस नयी मिश्रित भाषा को ही त्रिनिदाद भोजपुरी कहा गया। इस भाषा को इतिहासकारों, औपनिवेशिक शासकों द्वारा ‘प्लांटेशन हिंदुस्‍तानी’ भी कहा गया। 

            त्रिनिदाद में प्रवासित भारतीयों के द्वारा आपसी बात-व्‍यवहार (लिगुआ फ्रैंका) के लिए कोईन निर्माण प्रक्रिया तथा भाषाई समतलीकरण के कारण जिस त्रिनिदाद भोजपुरी का जन्‍म हुआ था, वह अब संघर्षण का शिकार है। एन. जयराम (2004:154-157) ने त्रिनिदाद भोजपुरी तथा मानक हिंदी के संघर्षण का अध्ययन किया है। इसके संघर्ष के कारणों की पड़ताल से कई कारण नजर आते हैं, जिनमें प्रमुख हैं:

  1. प्रारंभ से ही औपनिवेशिक सत्ता द्वारा त्रिनिदाद भोजपुरी भाषा को छोड़कर त्रिनिदाद क्रियोल अंग्रेजी अपनाने के लिए भारतीय समुदाय पर दबाव।
  2. चूँकि भाषा का संबंध संस्‍कृति से है। भाषा संस्‍कृति की वाहक होती है। जो भारतीय विदेश गए थे, उन्‍हें तरह-तरह से भारतीय संस्‍कृति, भारतीयता को छोड़कर अन्‍य औपनिवेशिक संस्‍कृति को अपना लेने के लिए दबाव डाला जाता रहा है।
  3. औपनिवेशिकशासकों की प्रभावी मानसिकता के कारण त्रिनिदाद में भोजपुरी बोलने वाले निम्‍न जाति के लोगों को गांव-गंवार तथा चमार जैसे हिंदी शब्‍दों से संबोधित किया जाता रहा ।
  4. शिक्षा तथा ‘रोजी-रोटी’के लिए इस भाषा की उपयोगिता नहीं होने के कारण भारतीय परिवार भी अपने आने वाली पीढि़यों के जीवन की सुरक्षा के लिए अपने बच्‍चों को त्रिनिदाद भोजपुरी को सिखाने से पहले त्रिनिदाद क्रियोल अंग्रेजी को सिखाना पसंद कर रहे है। इस कारण भी यह भाषा संघर्षण का शिकार होकर दम तोड़ रही है।

त्रिनिदाद में मानक हिंदी का संघर्ष

त्रिनिदाद में कनाडाई प्रेबिस्टरियन मिशनरियों द्वारा भारतीय श्रमिकों को मानक हिंदी सिखाने का कार्य प्रारंभ हुआ। प्रारंभ में यह भारतीय समाज के बीच काफी फला-फूला, परंतु आज इस भाषा काभी संघर्षण हो रहा है। त्रिनिदाद में इस भाषा के संघर्षण के प्रमुख कारण निम्‍नलिखित हो सकते हैं:

  1. भारतीय ‘मानक हिंदी’ भाषा को मिशन के द्वारा सिखाये जाने के कारण इसे क्रिश्चियन मिशन के धर्मांतरण की क्रिया (भारतीय को क्रिश्चन) के साथ जोड़ते हैं। इस कारण औपनिवेशिक समय में प्रवासित भारतीय ‘मानक हिंदी’ भाषा के प्रति भयभीत रहे हैं।
  2. औपनिवेशिक सत्‍ता द्वारा ‘मानक हिंदी’ की जगह प्राथमिक शिक्षा के लिए त्रिनिदाद क्रियोल अंग्रेजी तथा उच्‍च शिक्षा और नौकरी व्‍यवसाय के लिए अंग्रेजी को आवश्‍यक बनाया गया है। इससे भी त्रिनिदाद में मानक हिंदी का संघर्षण हुआ।

      भारतीय डायस्पोरा के बीच भाषिक गतिशीलता में कोड परिवर्तन (कोड स्विचिंग) और कोड–मिश्रण (कोड मिक्सिंग)(रस्तोगी, 2000:143) की प्रक्रिया निरंतर पाई जाती है। यूनाइटेड किंगडम में पंजाबी डायस्पोरा की नयी पीढ़ी अपने समुदाय के लोगों के साथ बातचीत करते हुए जब दुसरे समुदाय से बातचीत प्रारंभ करते हैं, तो वे अंग्रेजी/ हिंदी स्विच कर जाते हैं। इसे ही कोड परिवर्तन (कोड स्विचिंग) कहते हैं। साथ ही जब पंजाबी, हिंदी में बातचीत करते हुए एक ही वाक्य में दूसरी भाषा का प्रयोग करते है, तो इस प्रक्रिया को कोड मिक्सिंग कहते हैं (ब्रिज वी. लाल, 2007:94)।

महतारी भाषा : विरासत की धारणशीलता एवं उत्तरजीविता

विदेशों में रह रहे भारतवंशी समूहों के बीच उनकी महतारी भाषा अलग-अलग स्तरों पर पुरखों की याद और धरोहर को संजोये हुए में आज भी अस्तित्व में बनी हुई है। संस्कृत भाषा विश्व में धार्मिक तथा हिंदू पूजा-पाठ के साथ वैश्विक स्तर पर फैली है। इस भाषा का प्रयोगमुख्यत: भारतीय आर्ष ग्रंथों, पूजा-पाठ, कर्म-कांड आदि में प्रचलित है, जबकि भोजपुरी के विविध रूपों का प्रयोग लोक संगीत के रूप में होता है। भोजपुरी और हिंदी के शब्दों का प्रयोग भारतीय भोजन के नाम, घरेलू पूजा-पाठ, रिश्तेदारी  तथा अभिवादन जैसे राम-राम, कैसे हैं?, के लिए होता है। शाबास बेटा, वाह-वाह आदि के साथ-साथ प्रचलित मुहावरों-लोकोक्तियों में मानक हिंदी एवं भोजपुरी का प्रयोग आज भी बना हुआ है। सुख-दु:ख के गहरे भावों की शाब्दिक अभिव्यक्ति के लिए आज भी महतारी भाषा का प्रयोग होता है। भाषा धारणशीलता आयु से भी जुड़ी घटना है। त्रिनिदाद भोजपुरी, त्रिनिदाद क्रिओल-अंग्रेजी का ज्ञान मध्य आयु वर्ग के लोगों को है। इसी प्रकार, मानक हिंदी बुजुर्गों की पहली भाषा है, जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती। भाषा धारणशीलता का लैंगिक परिप्रेक्ष्य भी है। उपनिवेशों में जब सामाजिक पारिवारिक संस्थाओं का पुनर्गठन हुआ, तब महिलाओं को घर, धार्मिक क्रिया-कलाप, बच्चों के सामाजिकीकरण की जिम्मेवारी निभानी पड़ी। इसलिए उन पुरानी महिलाओं का अंग्रेजी भाषा से संपर्क कम हुआ, जबकि वे अपनी दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में अपनी पूर्वज भाषाओं का व्यवहार करती रहीं। व्यवसाय और आर्थिक कारणों से पुरुषों का संपर्क बाहर की दुनिया से हुआ। इसलिए उन्होंने बाहरी दुनिया की संपर्क और कामकाज की भाषाओं  को अपना लिया।

निष्कर्ष

भारतभूमि से लोगों का विश्व के विभिन्न देशों में प्रवासित होना और वहाँ बसना निरन्तर जारी रहा है । प्रवासी भारतवंशी लोग अपने साथ भारतभूमि की ‘सांस्कृतिक गठरी’ भी ले गए। इस सांस्कृतिक गठरी में स्वभूमि का धर्म-संप्रदाय, आचरण, रीति-रिवाज, भोजन, लोटा, हनुमान गुटिका, पोशाक, मौखिक परंपरा में प्रचलित लोक गीत, किस्से और कहानियाँ आदि बँधे हुए थे। भारतवंशियों की महतारी बोलियां और भाषाएं ही पारंपरिक जीवन शैली का आधार रही हैं। गंतव्य देशों में भारतवंशी समुदायों ने संघर्ष और विपरीत परिस्थितियों में अपनी महतारी भाषा/बोली में अपनी गीतों को गुनगुनाया, अपनी बोली में हंसकर और रोकर, अपने लोगों को अपनी आपबीती संबंधी किस्सा कहानी बताकर अपने आप को संबल प्रदान किया। ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि अपनी पूर्वज बोलियों के माध्यम से इन्होंने अपने जीवन संघर्ष की विरासत को अगली पीढ़ियों तक पहुँचाने और उसे संरक्षित रखने का प्रयास किया। कुछ ने अपनी महतारी भाषा में गीतों को रचकर गाया और कुछ ने इसे आत्मकथा और उपन्यास का माध्यम बनाया। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आज भी प्रवासी भारतवंशी समुदायों द्वारा गंतव्य समाजों में जीवन निर्वाह, सांस्कृतिक समावेशन और आत्मसातीकरण करने में दुरूह परिस्थितियों में भी अपनी महतारी भाषा  के पारम्परिक शब्दों, मुहावरों और लोकोक्तियों को जीवंत बनाए रखा गया है। भारतवंशी समुदायों ने अपनी महतारी भाषा के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रचलन को बनाए रखते हुए अपनी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति और पहचान को एक प्रभावी माध्यम बनाया है।

संदर्भ एवं उपयोगी पुस्तक सूची:

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1डॉ. मुन्नालाल गुप्ता

सहायक प्रोफेसर,

श्री चमनलाल प्रवासन एवं डायस्पोरा अध्ययन विभाग

  महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र), भारत

मोबाइल: +91- 9028226561 

ई-मेल-munnalalgupta@hindivishwa.ac.in

2डॉ. राजीव रंजन राय

सहायक प्रोफेसर,

श्री चमनलाल प्रवासन एवं डायस्पोरा अध्ययन विभाग

  महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र), भारत

पीडीएफ लिंक

https://www.researchgate.net/publication/389504860_bharatiya_dayaspora_ki_mahatari_bhasa_gavesana_Mother_Tongue_Language_Mahatari_Bhasha_of_Indian_Diaspora

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