दुविधा

– पूजा अनिल

सुबह से माँ से बात नहीं हो पाई थी उस दिन। प्रकाश ने मोबाइल देखा, दोपहर में माँ ने फ़ोन किया था लेकिन तब वह ऑफिस की एक मीटिंग में था और जब वहाँ से फ्री हुआ तब बहुत देर हो चुकी थी और तभी उसकी पत्नी किरण का फ़ोन आ गया था।  तब वह भोजन करने घर चला गया था। और उसे ध्यान ही न रहा कि माँ को एक फ़ोन ही कर देता! लगभग रोज़ ही यही हो रहा था। देर शाम को जाकर माँ से बात हो पाती और रोज़ ही माँ से मिलने का काम कल पर टाल दिया जाता। 

खैर, जैसे ही उसे याद आया, उसने तुरंत फ़ोन लगा दिया, माँ के मोबाइल पर घंटी बजती रही किसी ने उठाया नहीं तो उसने लैंड लाइन पर कॉल लगाया। वहाँ भी यही हुआ।  उसने सोचा, शाम का समय है, शायद माँ छत पर टहल रही होंगी, जैसे ही उसका मिस कॉल देखेंगी, वे ही कर लेंगी उसे फ़ोन। 

इधर घर पर बच्चे उसकी राह देख रहे थे, वह उनके साथ होमवर्क करवाने में व्यस्त हो गया। उधर किरण को बाज़ार भी जाना था, कुछ देर बाद वह उसके साथ बाज़ार चला गया। रात का खाना भी बाहर खा लिया लगभग रोज़ की ही तरह। 

घर पहुंचे तो रात हो चुकी थी। तब तक भी माँ का फ़ोन नहीं आया। ऐसा कभी होता नहीं था, माँ देखती कि उसे समय नहीं मिला होगा तो स्वयं ही फ़ोन कर देती थी।  लेकिन आज दस बज गए तो उसने ही पुनः फ़ोन लगा दिया।  माँ ने अब भी फ़ोन नहीं उठाया। अब उसे चिंता होने लगी, उसे लगा माँ के घर जाकर देख आये कि सब ठीक है। उसने यह सब किरण से कहा। किरण ने कहा, माँ सो गई होंगी, रात हो गई है, इस समय उन्हें डिस्टर्ब करना सही नहीं, सुबह चले जाना।  परेशानी की स्थिति में वो किरण की बात मान तो गया किन्तु उसे रात भर नींद नहीं आई और व्याकुलता अनुभव होती रही। 

जैसे ही सुबह हुई, वह तुरंत माँ के घर की और चल दिया, पीछे से किरण आवाज़ देती रही कि थोड़ा रुक कर जाओ, लेकिन वह अत्यंत चिंतित था, नहीं रुका। 

माँ के घर पहुंचा तो वे दरवाज़े पर खड़ी हुई सूर्य नमस्कार कर रहीं थीं, उन्हें सामने देख कर उसकी जान में जान आई। 

हाँफते हुए पूछने लगा,”कल फ़ोन क्यों नहीं उठाया माँ?”

– ”एक महीना हो गया था तुझे देखे हुए, कल फ़ोन उठा लेती तो तू आज सुबह सुबह दर्शन कैसे देता बेटा! चल, तू भी अर्घ्य दे सूरज देवता को, फिर आजा भीतर। तेरे लिए खीर और आलू पूड़ी बनाई है, नाश्ता करके जाना, बहु और बच्चों के लिए भी ले जाना।” माँ उसे देख बेहद आनंदित थीं। 

– ”क्या न माँ! कितनी बार कहा है, तुम हमारे साथ ही चलकर रहो, क्यों यहाँ अकेली रहती हो? तुम्हें क्या पता नहीं लगता कि मुझे कितनी परेशानी होती होगी? तुम्हारी कितनी चिंता होती होगी माँ, यह तो सोचो कभी!”

– देख बेटा, बहु की भी तुमसे कुछ इच्छाएँ हैं, कुछ आशाएँ हैं, तुम्हें सर्वप्रथम उनका ध्यान रखना चाहिए। और फिर… यदि वह… मेरे वहाँ रहने से असहज अनुभव करती है तो मेरा अलग रहना ही ठीक है। तुम्हारे पिता ने बड़े प्रेम से यह घर बनाया था, तुम जानते तो हो कि मुझे यहाँ कुछ भी दिक्कत नहीं, तुम्हारे घर से अधिक दूर भी नहीं है यह, तुम आकर कभी कभी मिल जाते हो, मैं तुम्हें देख प्रसन्न हो जाती हूँ। बहु और बच्चे भी आते तो अधिक प्रसन्नता होती। लेकिन…”

वैसे तो प्रकाश माँ से ज़िद करना चाहता था किन्तु नहीं कह पाया कुछ भी। उसके मन की गुत्थी सुलझती ही न थी कि यदि माँ मान गई तो किरण को क्या जवाब देगा!?     इधर बच्चों को स्कूल भेज किरण भी माँ के घर पहुँच गई थी और उन दोनों की बात भी सुन ली थी। उसने घर में प्रवेश कर माँ को चरण स्पर्श किया और कहा, ”माँ, प्रकाश सही कह रहे हैं, आप हमारे साथ चल कर ही रहिये, बच्चे भी आपको बहुत याद करते हैं और मेरे लिए तो आपका होना बहुत बड़ी सुविधा है, आप रहती हैं तो मैं निश्चिंत होकर ऑफिस जाती हूँ। फिर प्रकाश की तरफ मुड़ कर बोली, क्यों जी, माँ को ऐसे मनाते हैं क्या? बचपन में माँ ने आपको गोद में उठाया था, आज आप उन्हें उठा कर ले चलो! हमें तो बस माँ चाहिए।

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