हिन्दी को बैसाखी नहीं चाहिए
-हंसा दीप
इन दिनों सभी को हिन्दी पठन और लेखन को लेकर एक समान चिन्ता है। भारत हो या भारत के बाहर, हर ओर एक सवाल है हिन्दी के पाठक कहाँ, हिन्दी की पुस्तकों की बिक्री क्यों नहीं, हिन्दी पुस्तकें छपें तो पढ़ेगा कौन, आदि। भारत में यदि ये सारे सवाल परेशान कर सकते हैं तो हम जैसे विदेशों में हिन्दी पढ़ा रहे शिक्षकों की क्या हालत हो रही होगी यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। बगैर शब्दों के भी बहुत सारे शब्द इस दु:ख को अर्थ दे सकते हैं। यहाँ विदेश में हिन्दी व अहिन्दी भाषियों के बीच हिन्दी का प्रचार प्रसार कई समर्पित स्वयंसेवी कर रहे हैं। अपना अमूल्य समय देकर हिन्दी की सेवा में लगे हुए हैं। हिन्दी को वैश्विक मंच पर अनवरत आगे बढ़ाने में हिन्दी फिल्मों का बहुत बड़ा योगदान है। इन समर्पित हिन्दी प्रेमियों और हिन्दी फिल्मों के मिले-जुले अथक प्रयासों से हिन्दी बोलने वालों की संख्या तो बढ़ रही है लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी हिन्दी लिखने और पढ़ने को बढ़ावा नहीं मिल पा रहा है। क्यों? इसका जवाब ढूँढना हमारी जिम्मेदारी है। हम सबकी, जो हिन्दी पढ़ रहे हैं, पढ़ा रहे हैं, लिख रहे हैं, छप रहे हैं, छाप रहे हैं।
सच तो यह है कि भारत से भी सोशल मीडिया पर सारे हिन्दी जानने वाले नमस्ते को Namaste से शुरू कर अपने हिन्दी संदेश को रोमन लिपि में लिखकर उस संदेश का ऐसा हाल करते हैं कि समझने में दिमाग का अच्छा-खासा फालूदा हो जाता है। क्यों हिन्दी जानने वाले भी हिन्दी नहीं लिखना चाहते हैं? क्यों सभी को डर लगता है हिन्दी लेखन की गलतियों से? हमारा उत्तर बहुत सीधा-सादा और सरल है कि “सब अंग्रेजी के पीछे दीवाने हैं।” और यह कहकर हम अपना पल्ला झाड़ भी लेते हैं। मगर सच तो यह है कि अपनी कट्टर विचारधारा से परे हम सोचें, कारण समझना चाहें, तो स्वयं को कठघरे में खड़ा पाएँगे।
सपाट शब्दों में कहा जाए तो हमने धीरे-धीरे, एक-एक करके अपनी लिपि को जिस तरह से सजाया है, वे सारे भाषा के सौंदर्य प्रसाधन अपने “साइड इफेक्ट्स” की कहानी कह रहे हैं। स्वर और व्यंजन के मूल 44 अक्षरों में कितनी मात्राएँ जोड़कर, कितने आधे-पूरे अक्षर मिलाकर, कितने संयुक्त अक्षर बना लिए हैं, कभी गिन कर देखने का तो समय ही नहीं मिला। और फिर इनको सजाने के लिए हर तरह के बिन्दु को स्थान दिया, जहाँ जैसे जगह मिली। शिरोरेखा के ऊपर, अक्षर के नीचे। अनुस्वार अनुनासिकता के साथ, यानि बिन्दु, चंद्र बिन्दु के साथ, चन्द्र, विसर्ग, हलन्त तो जरूरी ही थे अब कुछ अक्षरों के नीचे दाएँ-बाएँ भी सजा रहे हैं। अंग्रेजी शब्दों के लिए ऑ को लिया और उर्दू, अरबी, फारसी शब्दों के लिए क ख ग ज फ में नुक्ता लगाना जरूरी होता गया। आज हर उस शब्द में जहाँ क ख ग ज फ आता है नुक्ता लगा दिया जाता है। गुस्सा बताने के लिए भी ग़ुस्सा लिखना पड़ता है। फिल्म और फेसबुक तो अंग्रेजी के शब्द हैं वहाँ भी नुक्ता लगाना अनिवार्य कर देते हैं हम। शायद हमारे फल वाले “फ” में इतनी ताकत ही नहीं कि वह फिल्म और फेसबुक को ध्वनि दे सके।
“अतिथि देवो भव:” करते-करते देश को गुलाम कर दिया, अब भाषा को कर रहे हैं। करें क्या, बहुत आदर करते हैं मेहमानों का, उनकी भाषा का। करना भी चाहिए। जितनी भाषाओं के शब्दों को हम अपनी भाषा में स्थान देंगे उतना ही हम अपनी भाषा को उदार बनाएँगे। लेकिन यहाँ मुद्दा यह है कि हम अपनी लिपि में बहुत कुछ जोड़ते जा रहे हैं। पहले ही अक्षर के बीच में, ऊपर-नीचे, अगल-बगल, मात्राओं की, बिन्दुओं की कमी नहीं है, तिस पर हर जगह नुक्ते ने अपनी जगह बना ली है। यह नुक्ता कब और कैसे अपनी जगह बनाकर नीचे टिकता गया पता ही नहीं चला। हिन्दी की बिन्दी तो ऊपर थी ही, नीचे ड और ढ की बिन्दी थी। नुक्ते ने नीचे खाली जगह में अपनी जगह बना ली। हिन्दी के भाषायी सौंदर्य प्रसाधनों की बढ़ोतरी होती ही जा रही है। बेचारे एक छोटे-से बच्चे को हम अंग्रेजी स्कूल में भेज रहे हैं। हिन्दी के इतने अनुस्वार, मात्रा, नुक्ते, संयुक्त व्यंजन का रट्टा लगाकर वह कैसे सीख पाएगा अपनी भाषा हिन्दी! वह भी ऐसे में, जब उसकी पहली भाषा हिन्दी को हम उसकी दूसरी भाषा बना चुके हैं क्योंकि पहली भाषा के रूप में तो अब अंग्रेजी ही स्वीकार्य है हमें। इसीलिए वह हिन्दी को अंग्रेजी में लिखकर अपना काम चला लेता है।
मुझे इस बात का गर्व है कि हिन्दी ने अपना दिल बहुत बड़ा किया है। वह हर ग्लोबल शब्द को जगह दे रही है। आज की तकनीकी उन्नति के साथ हिन्दी कदम से कदम मिला कर चल रही है। लेकिन यह उदारता हमें अपनी लिखित भाषा को बदलने के लिए मजबूर नहीं कर सकती। आए दिन हम अपनी लिपि में बदलाव ला रहे हैं। दूसरी भाषा के बहुप्रचलित शब्दों का दिल खोल कर स्वागत करने के लिए अपनी लिपि को बदलना कहाँ तक उचित है। अन्य भाषाएँ तो ऐसा नहीं करतीं। अंग्रेजी के दबदबे से हम क्यों नहीं सीख सकते जो न जाने कितनी भाषाओं के प्रचलित शब्दों को साधिकार लेती है लेकिन अपने छब्बीस अक्षरों में कोई बदलाव नहीं करती। जो भी बदलाव करती है उन्हीं छब्बीस अक्षरों के दायरे में। वे ही छब्बीस अक्षर दुनिया भर के शब्दों को लिखते हैं चाहे फिर टोरंटो शहर का “T” हो या किसी तान्या नाम की लड़की का “T”। और नि:संदेह इन्हीं छब्बीस अक्षरों ने दुनिया में हल्ला मचा रखा है। यूँ हर भाषा के अस्तित्व को चुनौती देती अंग्रेजी भाषा पूरी दुनिया पर राज कर रही है।
भाषाओं का घालमेल बुरा नहीं है मगर वह एक दूसरे के विस्तार के लिए हो, न कि अपनी जड़ों को हिलाने के लिए। अपनी लिपि को खिचड़ी बनाते हुए हम कट्टर होते जा रहे हैं। यह कट्टरता हमारी भाषा के लिखित रूप को किस कदर प्रभावित कर रही है, यह संदेश हमारे अपने बच्चों से हर दिन मिल रहा है। हिन्दी भाषी राज्यों के बच्चों से। भारत यात्रा के दौरान बच्चों से बातचीत में पता चलता है कि हर विषय में तो उनके 90 प्रतिशत से ऊपर ही अंक आते हैं, सिर्फ हिन्दी को छोड़कर। हिन्दी पढ़ने और लिखने का उनका डर अपने अंकों की वजह से बढ़ता जा रहा है। ये ही बच्चे युवा होते-होते अपने आपको हिन्दी पढ़ने और लिखने से दूर कर लेते हैं। कभी हम यह नहीं सोचते कि हमारे ही देश में हमारे ही बच्चों के, जो हिन्दी पढ़ते और लिखते हुए बड़े हुए हैं, हिन्दी में सब विषयों से कम अंक क्यों आते हैं। क्यों हम और हमारे बच्चे मिलकर भी हिन्दी में विशेष योग्यता हासिल नहीं कर पाते। क्यों हिन्दी शिक्षण में हम उदारता नहीं दिखा पाते। हमारे हिन्दी शिक्षक दिल खोलकर अंक ही नहीं देते। काना-मात्रा की गलतियों का हिसाब करके अंक कटते चले जाते हैं। इतनी गलतियों को नजरअंदाज भी करें तो महाकवियों की कविताओं की व्याख्या आठवीं-नवीं कक्षा के छात्र से शिक्षक को वैसी चाहिए जैसी उन्होंने हिन्दी में एम. ए. के लिए परीक्षा में लिखी थी।
कुल मिलाकर हिन्दी के प्रति जो उदासीनता बढ़ती जा रही है उसके जिम्मेदार हम ही हैं। भारत में ही कई नगरों-महानगरों में जहाँ काफी मात्रा में हिन्दी भाषी लोग रहते हैं, गली-मोहल्लों में साइनबोर्ड पर हिन्दी तो है पर रोमन में लिखी हुई। ये हमें ग्लोबल वार्मिंग की तरह चेतावनी तो नहीं देते पर हाँ संभल जाने का आह्वान जरूर करते हैं। जीवन की भागमभाग में हमारा ध्यान इस मूक चेतावनी पर नहीं जा रहा है। हर किसी के पास समय की कमी होती जा रही है। ऐसे में भाषा का सरलीकरण चाहिए लेकिन हम क्लिष्टीकरण में विश्वास रखते हैं। हम वही कर रहे हैं जो संस्कृत और लेटिन जैसी अपने जमाने की समृद्ध भाषाओं के साथ हो चुका है। उसी राह पर ले जा रहे हैं हम हिन्दी को।
यही नहीं, नार्थ अमेरिकन विश्वविद्यालयों में हिन्दी-उर्दू कोर्स चलाए जाने की प्रथा जोर ले रही है। एक ही कक्षा में देवनागरी और नस्तालीक लिपि पढ़ाना कागजातों को और कोर्स कैलेंडर को सुशोभित करता है, बेहद सम्मानजनक लगता है, पर कक्षा की असलियत क्या होगी, बगैर कक्षा में जाए बताना बहुत मुश्किल है। सच्चाई तो यह है कि दुविधा में जीते छात्र हिन्दी और उर्दू दोनों से कन्नी काट लेते हैं। शिक्षक अच्छी तरह जानते हैं इस सच को। वे इसलिए नहीं बोलते क्योंकि उन्हें नौकरी इस आधार पर मिली है कि वे इन दोनों भाषाओं को साथ-साथ पढ़ाएँगे। अपने हित में वे हिन्दी कक्षाओं की बलि भी देते हैं और उर्दू कक्षाओं की भी। सालाना कोर्स की शुरूआती आधी कक्षाओं में देवनागरी से परिचित होता छात्र जैसे ही नए अक्षरों में लिखना शुरू कर संतोष की साँस ले पाए उसके पहले उस पर नस्तालीक लिपि को थोप दिया जाता है। अगली कक्षाओं में वह उससे संघर्ष करता है और इस दौरान देवनागरी दिमाग से देवलोक हो जाती है। बेचारा अंत तक, न तो इधर का रहता है, न उधर का। हाँ, ट्रांसस्क्रिप्ट में एक सम्मानजनक कोर्स दर्ज हो जाता है। यूनिवर्सिटी फिर से यही कवायद दोहराती है। एक-एक करके खिसकते हुए छात्रों की संख्या कम होती चली जाती है। परिणामस्वरूप अगले तीन-चार सालों में हिन्दी-उर्दू कक्षाओं का नामोनिशान खत्म हो जाता है।
इसके विपरीत कई भाषाएँ, उदाहरण के लिए चीनी भाषा के कोर्स, साल दर साल प्रगति करते उन्हीं चार सालों में अपने बड़े-बड़े विभागों के साथ सुस्थापित हो जाते हैं। छात्रों की संख्या बढ़ती जाती है। उनकी भाषा में कुर्सी पर बैठे उनके लोग ऐसा प्रयोग करने की सोचते भी नहीं क्योंकि उन्हें अपनी आने वाली पीढ़ी को अपनी भाषा देनी है। कुर्सी पर बैठे हमारे रहनुमा ऐसा प्रयोग करते हैं क्योंकि उनके पास ऐसे कई कारण हैं। कई क्षेत्रीय भाषाओं के होते हुए उनका हिन्दी प्रेम और हिन्दी ज्ञान यही कहता है कि हिन्दी को सदैव अन्य भाषा की बैसाखी चाहिए। जबकि स्थिति बिल्कुल विपरीत है। वह दिन दूर नहीं जब अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को आगे लाते हमारे ये आका एक दिन हिन्दी-उर्दू, हिन्दी-गुजराती, हिन्दी-बंगाली, हिन्दी-पंजाबी कोर्स शुरू कर दें और न चलने पर विश्वविद्यालयों के इतिहास में सदा-सदा के लिए अंकित हो जाए कि हिन्दी के कोई भी कोर्स चलते नहीं हैं, उन्हें बंद कर दिया जाए।
सारे हिन्दीदाँ को सोचने के लिए नहीं, परिवर्तन के लिए कदम उठाने हैं। चाहे शिक्षक हों या छात्र, लेखक हों या पाठक, कभी तो हम यह सोचें कि कहाँ हम हिन्दी को सरल कर सकते हैं। दु:ख के बीच से विसर्ग हटा कर दुख कर दें, या अर्थात् में हलन्त न लगाकर अर्थात लिखें, या फ़िल्म से नुक्ता हटा कर फिल्म लिखें तो हमारी हिन्दी का कतई अपमान नहीं होगा, हाँ, नए लिखने पढ़ने वाले के लिए कम से कम तीन चीजें तो कम होंगी। तीन ही नहीं, ध्यान से सोचें तो ऐसे कई प्रयोग हम कर सकते हैं। यह हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने से तो लाख दर्जा बेहतर होगा। इस बारे में आंशिक पहल कई संपादकगण कर चुके हैं और शेष कर सकते हैं।
मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि मैं एक खतरनाक मुद्दे को विषय बना रही हूँ। लेकिन विदेशी माहौल में हिन्दी कक्षाओं के जीवित रखने के उत्साह को बनाए रखने के लिए ऐसे मुद्दों से हर रोज निपटना पड़ता है। मैं भी कट्टर हिन्दी प्रेमी हूँ लेकिन मुझे लगता है कि समय के साथ बदलावों को स्वीकार करने में हमें कोई संकोच नहीं होना चाहिए। अपनी भाषा के मूल को जिन्दा रखते हुए हम उसे जितना सरल बना सकते हैं बनाने की कोशिश अवश्य करें। सरलता लाने के लिए भी मानकता जरूरी है और उसके लिए हम सबके प्रयासों की जरूरत होगी।
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