
21वीं सदी में गुजराती कहानी
-आलोक गुप्त
गुजराती में कहानी लेखन अन्य भारतीय भाषाओं की तरह बीसवीं सदी में ही प्रारंभ होता है। बीसवीं सदी के प्रारंभ में कहानी के क्षेत्र में प्रयोग अवश्य हुए लेकिन मलयानिल की ‘गोवालणी’(1918) को गुजराती की प्रथम कलात्मक कहानी का सम्मान दिया जाता है। एक ग्वालिन के रूप सौन्दर्य़ पर मोहित विवाहित पुरुष के भावोद्गार के बीच ग्वालिन का संतुलित व्यवहार एवं संयमित ढंग से समाधान खोजने की दृष्टि इस कहानी को कलात्मकता प्रदान करती है। भावात्मक उद्गारों के बावजूद इस कहानी में सांकेतिकता एवं मितकथन के प्रति सजगता दिखाई देती है। गांधी युग के समर्थ कहानीकारों में धूमकेतु, कन्हैयालाल मुंशी, द्विरेफ उपनाम से लिखने वाले रा.वि. पाठक के अतिरिक्त सौराष्ट्र के लोकजीवन को आधार बनाकर झवेरचंद मेघाणी ने भी इस दौर में कहानियाँ लिखीं। इन कहानीकारों की वैचारिकता को पुष्ट करने में गांधी मूल्यों की भूमिका है लेकिन इनकी कहानियों में वस्तु तत्व में वैविध्य है। रचनारीति के प्रति भी यह कहानीकार सजग रहे हैं। उस समय कहानी कला के बारे में धूमकेतु कितने स्पष्ट विचार रखते थे, इस कथन से स्पष्ट हो जाता है: ‘जो बिजली के चमकारे की तरह एक दृष्टिबिंदु रखते हुए निकल जाए और इधर उधर की बातें ना कहते हुए अंगुलिनिर्देश करके सोई हुई भावनाओं को जगाकर पाठक के आसपास एक नई काल्पनिक सृष्टि खड़ी कर दे, वह कहानी है ।’ इस स्पष्ट दृष्टि से पुष्ट हुई गुजराती कहानी संभवत: इस कारण अनावश्यक स्फीति से बची रही। द्विरेफ की कहानियों में तार्किकता, भावनाओं के संयम एवं जीवन रहस्य का कलात्मक निरूपण हुआ है। कन्हैयालाल मुंशी ने पारिवारिक- सामाजिक समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया। उनकी कहानियों में भाव प्रबलता नाट्यात्मकता की अद्भुत छटा मिलती है। इस दौर की कहानियों में धूमकेतु की ‘पोस्टऑफिस’, ‘गोविन्दनुं खेतर’, ‘भैयादादा’, कन्हैयालाल मुंशी की ‘मारी कमला’, द्विरेफ की ‘मुकुंदराय’, ‘खेमी’, ‘जक्षणी’ आदि चर्चित और कलात्मक कहानियों की श्रेणी में आती हैं।
सन् 1930 के बाद गुजराती कहानी में प्रगतिशीलता के प्रति आकर्षण दृष्टिगोचर होता है, लेकिन इसी के साथ गाँधी आंदोलन के मिले-जुले प्रभाव में समाजलक्षिता की ओर झुकाव अधिक है। धूमकेतु- मेघाणी के अतिरिक्त सुंदरम् ,उमाशंकर जोशी, गुलाबदास ब्रोकर की युवा पीढ़ी उठ खड़ी होती है। सुंदरम् और उमाशंकर जोशी कविता के क्षेत्र में विशेष सक्रिय रहे लेकिन इनकी कहानियों में यथार्थ जीवन को भी प्राथमिकता मिली। सुंदरम् की ‘मांने खोळे’, ‘खोलकी’ जैसी कहानियाँ चर्चित रहीं, यद्यपि उनकी कुछ कहानियाँ के वस्तु विस्तार की आलोचना भी हुई है। उमाशंकर जोशी की कहानियों में विषय वैविध्य और नवीन प्रयोग अपेक्षाकृत अधिक दिखाई देते हैं। जिस तरह झवेरचंद मेघाणी में सौराष्ट्र ग्राम जीवन के चित्र हैं, उसी तरह उमाशंकर जोशी ‘श्रावणी मेला’ में उत्तर गुजरात के ग्राम जीवन की कहानियां लेकर आते हैं। इनकी कहानियों में सामाजिक यथार्थ के साथ मनोवैज्ञानिक अभिगम दिखाई देता है। मारी चंपानो वर, छेल्लु छाणुं और गुजरीनी गोदड़ी उनकी चर्चित कहानियाँ हैं। प्रकारांतर में इनका विकास पन्नालाल पटेल में दिखाई देता है। उनकी भाथीनी वहु, कंकू, मां, ओरता, वात्रकने कांठे ग्राम जीवन की प्रतिनिधि कहानियाँ हैं। इनमें समाज ही नहीं ,व्यक्ति की गुंफित भावनाओं को सशक्त अभिव्यक्ति मिली है। इस दौर के अन्य कहानीकारों में र. व. देसाई, ईश्वर पेटलीकर,पीतांबर पटेल और स्नेहरश्मि के नाम भी उल्लेखनीय हैं।
गुजराती कहानी के विकास की रूपरेखा देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्रता पूर्व और उसके तुरंत बाद किसी एक प्रभाव को मुख्य और अन्य को गौण की श्रेणी में विभाजित करना उचित नहीं है। समानांतर ऐसे रचनाकार मिलते हैं जिनमें किसी में सामाजिक चेतना की मुखरता है तो किसी में मनुष्य के मनोविश्व के प्रति आकर्षण है। वैसे भी महत्वपूर्ण कहानीकारों में वस्तु के चयन, पात्र सृष्टि के संयोजन में यह विभाजन अर्थहीन लगता है। जयंती दलाल, जयंत खत्री और वकुलेश, केतन मुन्शी की कहानियाँ समाज जीवन के साथ मानव चित्त की संश्लिष्टताओं को उभारने की दिशा में विकसित प्रतीत होती हैं।
गाँधी युग और आघुनिक काल के संधि स्थल पर चुनीलाल मडिया जैसा समर्थ कहानीकार मिलता है जिन्होंने परिवेश निरूपण और कथन शैली के विशिष्ट प्रयोग किए। वानी मारी कोयल,शरणाईना सूर और कमाऊ दीकरो उनकी यादगार कहानियाँ हैं।
गुजराती कहानी में सुरेश जोषी का आगमन एक विस्फोट की तरह होता है, यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। सन् 1957 में उनका गृह प्रवेश कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। इनकी कहानियों के शिल्प ने तत्कालीन कहानीकारों को आकर्षित किया। संग्रह की भूमिका में उन्होंने घटनाओं का संभव हो उतना ह्रास या तिरोधान की बात लिखी थी। परवर्ती गुजराती कहानी पर सुरेश जोशी की अवधारणाओं का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है, भले ही उनका विरोध होता रहा हो। संभवतः गुजराती कहानी में आकार के क्षीण होने के पीछे यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है। गुजराती कहानी में अनावश्यक विस्तार के प्रति वे कहानीकार भी सजग दिखते हैं जिन्होंने अपनी कहानी में जीवन चित्रों की उपेक्षा नहीं की। ‘सुरेश जोशी स्कूल’ के कहानीकारों में किशोर जादव, मधुराय, भूपेन खख्खर, भूपेश अध्वर्यु, घनश्याम देसाई और सुमन शाह का उल्लेख किया जा सकता है। सुरेश जोशी के समकालीनो में चंद्रकांत बक्शी, धीरूबहन पटेल और सरोज पाठक की कहानियां मिलती हैं जिनमें वस्तु या कथ्य के साथ रचना रीति के प्रति सजगता और सक्रियता परिलक्षित होती है। रघुवीर चौधरी की कहानियों में ग्राम और नगर जीवन का दोनों का सुंदर अंकन है। उनकी आकस्मिक स्पर्श, गेरसमज, चिता, मंदिरनी पछीते जैसी कहानियों को याद किया जा सकता है।
1980 के आसपास गुजराती में उत्तर आधुनिक युग का प्रारंभ होता है। यहाँ पूर्ववर्ती कहानीकारों की उत्तम कहानियों के साथ कहानीकारों की नई पीढ़ी अपने वैशिष्ट्य के साथ आती है। मोहन परमार, दलपत चौहान, प्रवीण गढवी, हरीश मंगलम् जैसे कहानीकार दलित पीड़ा, दलित जीवन की विडंबनापूर्ण स्थिति के साथ शहर जीवन में सामाजिक भेदभाव पर कहामियाँ लिखते है। हिमांशी शेलत, वीनेश अंताणी, मणिलाल ह. पटेल, अजीत ठाकोर, कानजी पटेल, किरीट दुधात, बिपिन पटेल, प्रवीणसिंह चावड़ा, हरीश नाग्रेचा, रमेश र. दवे, हर्षद त्रिवेदी, विजय शास्त्री की कहानियों में नगर और गाँव अपने बदले जीवन और समस्याओं के संश्लिष्ट चित्रों के साथ उपस्थित हैं। इस वैविध्यपूर्ण और व्यापक फलक के साथ बीसवीं सदी के अंतिम दसक में अनेक ऐसे कहानीकार मिलते हैं जिन्होंने रचना रीति की सजगता के साथ आंतरबाह्य जीवन की उत्तम कहानियां रचीं। यह पीढ़ी किसी ‘स्कूल’ और खेमे के प्रति अपनी आस्था न जताते हुए, कहानियों में नए समाज- जीवन की समस्याओं, प्रश्नों, द्वंद्वों, संघर्षों को मुखर हुए बिना अभिव्यक्त करती है।
यह सही है कि बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में किसी साहित्यिक आंदोलन या विमर्श की मुखरता नहीं रही। न ही दलित, नारी, ग्राम, नगर, व्यक्ति के आंतर- बाह्य जीवन जैसे परकोटों में नया कहानीकार बंधना पसंद करता, कहना चाहिए कि इस बारे में उदासीन है, लेकिन वस्तु एवं कथन की रीतियों की सजगता के साथ उत्तम कहानियाँ लिखी जा रही हैं ,अलबत्ता अनुकरण से लिखने वालों की भी संख्या कम नहीं है। हिमांशी शेलत ने देर से लिखना प्रारंभ किया और अपने लेखन के बारे में भी वे बहुत स्पष्ट हैं। उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि कथ्य को समझने में काफी व्यायाम करने वाली कला उन्हें पसंद नहीं। भाषा वैभव के कवच को विगलित करके संवेदना तक पाठक पहुंचे, यही उनका सर्जक के रूप में दायित्व है। इसी तरह दलित, नारी विमर्श के तथाकथित परकोटों से निकलकर इन कहानीकारों ने विभिन्न जाति, समुदाय और समाज की नई भूमियों से पाठकों को परिचित करवाया। मोना पात्रावाला, नाजिर मंसूरी दक्षिण गुजरात के सागर तट एवं पारसी लोक जीवन, राम मोरी सौराष्ट्र के ग्राम जीवन , राजेश वणकर साबरकांठा के पिछड़ी जाति के वैशिष्ट्य और मावजी महेशवरी, महेन्द्रसिंह परमार, नवनीत जानी, संजय चौहान गाँव- प्रान्तर की कहानियाँ लेकर आते हैं, जिनमें वस्तु और कहने के ढंग में बदलाव है। इनमें परिवेश, प्रतीक, मनोसंचलन या कल्पसृष्टि इस तरह के सीधे भेद करना कठिन है। गुजरात के विभिन्न समाज, सीमांत प्रदेश, ठेठ गाँव के जीवन में नए समय के प्रभाव और रूढ़ियों से जकड़े समाज की पीड़ित स्त्री, नगर जीवन में अपने अस्तित्व के लिए पहचान के लिए संघर्ष करती स्त्री के संयमित निर्णय की कहानियाँ अपने विकास के प्रति आश्वस्त करती हैं। कह सकते हैं कि कहानी अपनी सही भूमि पर विकसित होते हुए, उक्ति वैचित्र्य और अनावश्यक वाग्जाल एवं क्लिष्टता के प्रति उदासीन दिखाई देती है।
इस संग्रह में 21वीं सदी में लिखी गईं 21 कहानियों का हिंदी अनुवाद संकलित है। हिंदी साहित्य अकादमी, गाँधीनगर द्वारा आयोजित 14- 15 फरवरी, 2020 की कार्यशाला में इन अनुवादों का सघन पाठ हुआ था। वर्षों से अनुवाद कार्य कर रहे अध्यापक मित्र एवं विद्यार्थी- अध्यापकों ने इनका अनुवाद किया है। कहानियों के चयन में गुजराती के प्रतिष्ठित कहानीकार मणिलाल ह. पटेल एवं हिंदी साहित्य अकादमी के तत्कालीन महामात्र डॉ. अजयसिंह चौहान ने सहायता की। यह संकलन कार्यशाला की कहानियों का संशोधित रुप है। युवा कहानीकार सागर शाह ने कहानियों को उपलब्ध करवाने में सहायता की, युवा कथाकार पन्ना त्रिवेदी से सकारात्मक संवाद हुआ। 60 वर्ष तक की आयु के कहानीकारों की कहानियों के चयन के कारण हिमांशी शेलत, वीनेश अंताणी, किरीट दुधात, बिंदु भट्ट और उनके समकालीनों की कहानियों को संचयन की सीमा के कारण इच्छा होते हुई समावेश नहीं कर सका। एक स्पष्टता यह है कि यहाँ प्रादेशिक और देशज शब्दों और संवादों का मानक भाषा में अनुवाद इसलिए किया है कि गुजराती कहानियाँ अधिक पाठकों तक पहुँच सकें। कहानियों का क्रम कहानीकारों की जन्मतिथि के आधार पर है, पर विश्लेषण में क्रमबद्धता नहीं रख सका। मेरी हार्दिक इच्छा है कि 100 वर्ष की गुजराती कहानी की उत्कृष्ट 100 कहानियों का अनुवाद दो भागों में हिंदी पाठकों के समक्ष रखा जाय जिससे भारतीय पाठक गुजराती कहानी की उपलब्धियों से परिचित हो सकें।
इस संकलन में आठ स्त्री कहानीकारों की कहानियाँ हैं और वे तथाकथित स्त्रीवाद से अलग स्त्री संवेदना को व्यापक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करती हैं। मीनल दवे की ओथार (खौफ) एक ओर जहाँ कामकाजी स्त्री के अनुभव- निरीक्षण को व्यक्त करती है, वही सांप्रदायिक परिवेश में ट्रेन में बुर्के पहने स्त्री को देखकर आशंका से भर जाती है, लेकिन उतरने से पहले बुर्के वाली अपने डर को व्यक्त करते हुए कहती है- ‘अच्छा हुआ, आप भी यहाँ बैठी हैं’, यह एक वाक्य कहानी के मर्म को तो उद्घाटित करता ही है, कहानी को अनावश्यक विस्तार से भी बचाता है। अश्विनी बापट की अंजलीनुं घर(अंजली का घर) और रेणुका पटेल की स्वयं कहानियाँ अपने अस्तित्व और पहचान के लिए जूझ रही कामकाजी स्त्रियों की कहानियाँ हैं। प्रेम विवाह के पाँच साल में अपने अस्तित्व ,पहचान के लिए जूझ रही अंजली, घर छोड़कर माँ के घर चली जाती है और वर्षों बाद बंद पड़े अपने घर को खोलते हुए अर्णव के साथ बिताए पाँच वर्षों का स्मरण करती है। कहानी में कहीं भी भय, आशंका या अकेले हो जाने पर पश्चाताप नहीं है। ‘यह साँझ केवल उसकी है’- कहानी के अंत में अंजली का कथन अर्णव के बिना ही अपने होने के एहसास का संकेत देता है। इसी तरह स्वयंकी नेत्रहीन दृष्टि विवाह से चार दिन पहले दीपंकर के साथ शादी न करने का निर्णय लेती है। वह सहानुभूति नहीं, प्रेम चाहती है। यह एक अलग तरह की परिपक्वता है जो मात्र आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने से ही नहीं आती। ऐसी अनेक कहानियाँ लिखी गई हैं जिनमें आत्मनिर्भर स्त्री भी प्रताड़ित है।पूजा तत्सत की ताव ( बुखार) कहानी विवाह जीवन की नीरसता और अपनी पहचान भूल गई वैदेही भाभी की विडंबनापूर्ण स्थिति को व्यक्त करती है। अपनी पहचान भूल, दायित्व के बोझ से दबी स्त्री अपनी रुचि, इच्छाओं को भी भुला बैठती है।
इस दौर में स्त्री -पुरुष संबंध में तीसरे व्यक्ति के कारण आया द्वंद और संबंधों में आया बदलाव कहानियों के विषय बने हैं। अभिमन्यु आचार्य की पडछायाओ वच्चे (परछाई के बीच) फ्लैशबैक शैली के सुंदर प्रयोग की कहानी है। आदि और श्वेता तीन वर्ष से रिलेशनशिप में हैं और संबंधों में आई ओट के कारण को खोजने का प्रयास करते हैं। अपने डांस पार्टनर के साथ आवेश में श्वेता के लिपट जाने की घटना को आदि भुला नहीं पाता। यह युगल स्वस्थता और कॉन्शसनेस से संबंधों में आए ठहराव को समझने के लिए प्रयत्न करता है। यह पॉइंट ऑफ व्यू महत्वपूर्ण है। कान्ट से (सागर शाह) का अंशुम अपनी मां के किसी से संबंध को जानकर व्यथित है। उनके फोन के मैसेज के बारे में अपनी पत्नी रुचि को बताता है जिससे डेढ़ वर्ष पहले प्रेम विवाह किया था लेकिन रुचि का कोई उत्तेजित प्रतिभाव नहीं होता। यहाँ नैतिक मूल्यों को नए संदर्भ में देखा गया है। रुचि- मुकुंद, अंशुम- देवांशी के युग्मों के बीच विकसित संबंधों को नए ढंग से परिभाषित करने के लिए यह कहानी प्रेरित करती है। लव एंड हेट, ऊष्माहीन जीवन के कारण अलग हो जाने के विपरीत, यह कहानी संश्लेषित रूप से वास्तविकता से रूबरू कराती है। गुजरात एक्सप्रेस (विशाल भादानी) पल्लवित होते प्रेम की नई शिल्प की अद्भुत कहानी है। सुनहरा जल सरोवर (अजय सोनी) की नीति, सुकेत के साथ लव इन रिलेशनशिप में रहती है। वह अपनी आकांक्षाओं, सपनों के सरोवर की खोज पहले से करती रही है। इस बारे में उसने सुकेत से पहले भी कहा था, लेकिन न तो वह तब समझा और न आज। वे चार वर्ष के बाद अलग हो जाते हैं। नीति अलग होते समय किसी तरह के अपराध बोध में नहीं है। वह उसी आवेग के साथ अपने सुनहरे जल सरोवर की खोज में लगी रहती है। इसे भावुकता या किसी मनोग्रंथि में परिवर्तित नहीं किया जा सकता- ‘वह जानती थी कि सरोवर का सुनहरा जल उसकी प्यास नहीं बुझा सकता। फिर भी भीतर से आवेग जगता, सरोवर को ढूंढने के लिए मन बावरा हो उठता।‘
यह पानी ही… (नेहा रावल) कहानी में भी रोनक- तरंगी प्रेमी युगल हैं। सूरत और पानी को लेकर तरंगी अति संवेदनशील है। इसके लिए वह हॉस्टल में झगड़ा भी कर लेती है। लेकिन वही तरंगी सूरत की बाढ़ में जो जनहानि और लोगों की विवशता देखती है, तो उसके व्यक्तित्व में अभूतपूर्व परिवर्तन आता है। एक घटना से पात्र के व्यक्तित्व में आए परिवर्तन को नेहा रावल ने स्वाभाविक रूप से व्यक्त किया है। रोनक, तरंगी को एक फ्लैट दिखाने ले जाता है जिसकी हर बालकनी से नदी दिखाई देती है। लेकिन सूरत बाढ़ की दुर्घटना के बाद तरंगी फ्लैट देखते- देखते फूट-फूटकर रो पड़ती है। तरंगी जैसे गतिशील पात्र कहानियों में कम मिलते हैं, उपन्यास के रचना विधान में यह अवकाश होता है। आधी स्त्री (पन्ना त्रिवेदी) और मूरख लड़की (जयश्री चौधरी) स्त्री जीवन का दूसरा सच प्रस्तुत करती हैं। यहाँ न अपनी पहचान पाने के लिए स्पेस है और न कष्टों को लेकर कोई ग्लानि। परिस्थितियों को स्वीकार करते हुए पन्ना त्रिवेदी की मलकी बड़ी उमंग के साथ सज- धज कर अबोधता में 45 वर्ष के देवधर के घर कच्छ जाने को उतावली है, जिसका सौदा उसकी चाची ने कर दिया है। कष्टों और अभावों में मलकी जवान होती है उसे अपने स्त्रीत्व का विशेष बोध नहीं है। पन्ना त्रिवेदी ने इस कहानी की रचनारीति को बड़ी कुशलता से गूँथा है जैसे-जैसे चहकती हुई उल्लसित मलकी देवधर के घर के फाटक तक पहुंचती है, उसके आताबापा की तरह पाठक के मन में गहरा विषाद भर जाता है। कथा लेखिका ने मलकी की सखी तनु के पात्र द्वारा कहानी को अधिक संश्लिष्टता प्रदान की है। तनु बलात्कार की शिकार लड़की के अनुभव के बारे में कहती है जिसे मलकी नहीं समझ पाती- ‘सबसे अधिक बदनसीब कौन होती है, पता है मलकी ? जिसके फूटे नसीब में समय से पहले ही औरत बन जाना लिखा हुआ होता है, समय से पहले ही उसे कुछ रहस्य जान लेने पड़ते हैं , जिसकी आँखों को स्वयं की ही कोरी काया को चीरते हुए भयानक पंजों द्वारा डाली गई खरोचें देखनी पड़ती हैं …! वह जलकर मर भी जाए तो भी वह खरोचें तो चिता में नहीं जल सकती । वह लड़की से औरत बन जाती है । भले ही चार बच्चों की मां ही क्यों ना बन जाए तो भी वह आधी औरत ही रहेगी, मलकी !’ यदि दृष्टि व्यापक हो तो वर्णनात्मक शैली में कितने संदर्भों को समेटा जा सकता है, यह कहानी प्रमाण है। मूरख लड़की (जयश्री चौधरी) दक्षिण गुजरात के डाँग- आहवा के प्रदेश के गरीब पिछड़ों के जीवन की झाँकी प्रस्तुत करती है। अनीता, जाती तो अपने बचपन के मित्र रुपेश के साथ के 10 वर्ष पहले की यादों को ताजा करने लेकिन उसे अपने बचपन की सखी नीलम का साक्षात्कार होता है, जो विडंबनापूर्ण जीवन जी रही है और महुआ की देसी शराब बनाकर बेचने को विवश है। पिता की हत्या , माँ के कहीं चले जाने पर दोनों बहनों ने नियति को स्वीकार कर लिया है। नीलम जिसे चाहती थी, उसने अन्य से शादी कर ली। पिछड़े आदिवासी समाज की नीलम का जीवन संघर्ष, जीवटता , संबंधों की सच्चाई उसे विशिष्ट चरित्र बनाते हैं। अनीता नीलम को चार साल के बच्चे के पिता और भाग गई पत्नीवाले रियाजु से विवाह करने का सुझाव देकर वापस लौट जाती है। अनीता के- ‘मूरख लड़की तुझे अपना ख्याल नहीं आया’ कहने पर नीलम कहती है कि ‘मैं तो कुँवारी हूँ, मुझे दूसरा मिल जाएगा। औरत होकर मैं दूसरी औरत की दुश्मन नहीं बन सकती।‘ जयश्री चौधरी की यह कहानी कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं करती लेकिन परिस्थितियों से हार न मानने वाली एक आदिवासी लड़की की दृढ़ता और मूल्यनिष्ठा को स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत करती है। क्षतिपूर्ति (कोशा रावल) का नैरेटर 37 वर्षीय विराग मेहता पत्नी नमिता से ब्रेकअप हो जाने पर क्षतिपूर्ति के लिए लेडी रोबो को खरीद लाता है, जो उसका ध्यान रखती है। यह कहानी लेडी रोबो के माध्यम से विराग मेहता के अकेलेपन, अतृप्त प्यार और माँ के दूसरे विवाह करने का सदमा आदि अनेक संदर्भ को उद्घाटित करती है। यह कहानी नई टेक्नोलॉजी और संपन्नता के बीच अकेले पड़ते जा रहे आधुनिक मनुष्य की विडंबना की कहानी में परिवर्तित हो जाती है।
महेंद्रसिंह परमार की उड़नचिड़ी एक नई भूमि की कहानी है। गाँव में गरीबी और अभाव में बड़ी होने वाली जीवली ‘रामसभा'(सुबह खेत में जाना!) के स्थान पर शहर में मिले स्वच्छ संडास के कारण माँ के घर (गाँव) जाना टालती है। अपने भाई के विवाह में भी एक दिन में लौट आती है। यहाँ पति प्रेम के स्थान पर शहर की यह सुविधा उसे ऐसा करने को विवश करती है। सास फिनाइल के अधिक खर्च पर शंका करती है।
सांप्रदायिक परिवेश पर गुजरात में कम कहानियाँ लिखी गई हैं। खौफ जहाँ अविश्वास, आशंका के परिवेश की ओर संकेत करती है , सँकरी गली का घर (विजय सोनी) दंगे की पृष्ठभूमि में मानवीयता की नीलामी के बीच अमीना और रूखी जैसे साधारण पात्रों की ऊंचाई को बिना मुखर हुए व्यक्त करती है। पानी (विपुल व्यास) कहानी साधारण की असाधारणता के संकेत देती है।
इस दौर में अनेक युवा कहानीकार ग्राम परिवेश की कहानियाँ लेकर आए हैं जिनमें प्रदेश के रंग और बोली के साथ ऐसे समुदायों और उनके बीच जीवन की आग में झुलसते -तड़पते लेकिन अपनी जीवटता को बचाए- बनाए रखते पात्रों से परिचय होता है और इसी के साथ अपने समय और समस्याओं, प्रश्नों को झेलते हुए कहीं संघर्ष करते हुए हार जाते हैं तो कहीं अनायास नए मार्ग का संकेत दे जाते हैं। हस्ताक्षर (कल्पेश पटेल) की पंचायत प्रमुख बनी कोकिला पटेल स्त्री प्रश्नों के लिए अपनी सामर्थ्य और स्थिति के अनुसार रिएक्ट करके पराजित होती है, तो जंगल जलेबीयाँ(राजेश वणकर) का धमला शहरी मानसिकता को एक्सपोज कर जंगल जलेबीयों को अपने मवेशियों को खिलाने की बात कहकर सहज नई दिशा खोल देता है। महोतुं (राम मोरी- महोतु) की माँ अपनी विवाहित बेटी के कष्टों और पीड़ा को दूर नहीं कर पाती। यह कहानी ग्राम परिवेश में जातिगत बंधनों और पुरुष वर्चस्व की शिकार स्त्रियों की करुण गाथा का संकेत देती है। गुमशुदा गाँव (मावजी महेश्वरी) के जीवाबापा अपने प्रिय खेतों को बेटों द्वारा बेच देने और विकास की धूल फाँकने को विवश हैं। यह कहानी विकास की आँधी में भारतीय ग्राम समाज और उनके मूल्यों में आस्था रखने वाली पुरानी पीढ़ी की पीड़ा को उद्घाटित करती है। कुएं का तल (नवनीत जानी) के पिता सेज में खेत देने को तैयार नहीं हैं। बेटे के अतिशय विवश करने पर उसके हिस्से का खेत देने का संकेत करते हैं। ये कहानियाँ नई परिवर्तन की पृष्ठभूमि के बीच नई पीढ़ी की विवशता और परिस्थितियों का परिपेक्ष भी प्रस्तुत करती हुई पाठक के विवेक पर विश्वास करते हुए मुखरता से बच जाती हैं।
युवा कहानीकारों का रचनात्मक संयम प्रशंसनीय है। जा, एम. ओ. यू. रद्द (संजय चौहान) ठाकोर समाज के युवा कालूजी की करुणता को विशिष्ट शैली में प्रस्तुत करती है। हीरे के व्यवसाय में आई मंदी और सरकार की आर्थिक नीतियों की मार कैसे साधारण मनुष्य के जीवन को बदल कर रही है ,हास्य के पुट के साथ बदहाल होती कालूजी की जिंदगी को हास्य मिश्रित शैली में रेखांकित किया गया है। कालूजी उल्लू से अपना एम. ओ. यू. रद्द करता है।
इनमें अधिकतर कहानियाँ प्रथम पुरुष में हैं या स्वयं पात्र ही नैरेटर है। कहानीपन के साथ ये कहानियाँ वस्तु और रचनारीति की क्लिष्टता से सजग रूप से बची हैं। यह अनायास नहीं है। कलात्मक पच्चीकारी से बचते हुए अनुभव संसार की विविधता गुजराती कहानी के स्वाभाविक विकास की दिशा का संकेत दे रही है।
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