पंजाबी कहानीकार : जसवीर राणा

अनुवादिका : जसविन्दर कौर बिन्द्रा

एक छोटी सी बेवफाई

सभी ने चिता में तिनके तोड़ कर फेंक दिए थे मगर मैं नहीं फेंक पाया था।

यदि तिनका तोड़ कर फेंकने से ही मरने वाले के साथ संबंध टूट जाता तो हरमीत आज भी मेरे भीतर जीवित क्यों था!

वह तो उस दिन भी नहीं मरा था, जिस दिन उसकी मृतक काया मेरे सामने पड़ी थी।

मैं सुन्न बैठा था। वहां बैठे संबंधी खाना खा रहे थे। खाना परोसने वालों ने जैसे ही मेरी सामने खाने की थाली रखी, मेरी रुह कांप गई, ‘‘नहीं…मैं नहीं खाऊंगा।’’

‘‘अरे…। खाना क्यों नहीं।…..मर गए के साथ मरा तो नहीं जाता।…जितना खाना खाना है, खा लो।’’ चिता को अग्नि देने के लिए एकत्रित हुए संबंधी मुझे समझाने लगे।

मैं आंसू पोंछने लगा, ‘‘कोई यह तो समझाओ कि मृतक के पास बैठ कर कोई खाना कैसे खा सकता है।’’

‘‘लो, खाना खा लो। चिन्ता मत करो…। रिश्ता भी मिल जाएगा…।’’ रवनीत की आवाज़ से उसके ख्यालों की लड़ी टूट गई।

वह खाने की थाली लिए खड़ी थी। उसका चेहरा अपने भाई हरमीत जैसा था। जब भी वह मुझे अपने भाई की मौत में गमगीन बैठे देखती, उसकी आँखों में मरे सपनों की चिता जलने लगती। अपनी आँखों से ध्यान हटाने के लिए उसने घूरते हुए हंस कर कहा, ‘‘लो, अब पकड़ो भी….।’’

थाली वाला हाथ पीछे करके उसने अपना गोरा हाथ आगे कर दिया। उसका हाथ थाम, मैंने उदास मन से खाने की थाली ले ली। मुझे खुश करने के लिए वह तिरछा सा मुस्कराई, ‘‘देखो, रिश्ता ढूंढते-ढूंढते तुम्हारा चेहरा भी ‘वर की जरूरत’ के’ विज्ञापन जैसा हो गया है…।’’

उसकी चुहल देख कर मैं उदास हो गया। मुंह में डाला ग्रास वही अटक गया। मैंने थाली लौटाते हुए कहा, ‘‘बस…और भूख नहीं…।’’

‘‘आपकी भूख क्यों मर गई है..।’’ मेरी भूख कम होते देख रवनीत फ्रिक में डूब गई।

वह बहुत सुंदर थी। जिस समय किसी चिन्ता में डूबी होती, तब और भी सुंदर लगती।

बात करने का सलीका। काम करने का तरीका। उसकी हर अदा में तहज़ीब थी। वह मुझे फूलों के समान रखती। जब कोई जिम्मेवारी निभानी होती, वह कहती, ‘‘जिम्मेवारी किसी अकेले की नहीं होती।….दोनों में से जो भी निभा दे…वह दूसरे के प्रति जिम्मेवार हो जाता है।’’

‘‘बात सिर्फ़ जिम्मेवारी निभाने की नहीं। एक-दूसरे के प्रति प्यार प्रगट करने के और भी बहुत तरीके होते हैं। जैसे खाना खाना और खिलाना भी प्यार करना ही है।’’ थाली लिए जाते हुए वह पीछे मुड़ कर प्यार से देखने लगी।

जिस समय वह समझदारी भरी बातें करती। उसकी आँखों की ओर देख कर साहिल कहती, ‘‘मुझे तो भाभी जैसा लड़का चाहिए बस…।’’

‘‘और मुझे!…चलो छोड़ो …।’’ रसोई में घुसते हुए रवनीत ने होंठ काटते हुए कहा।

‘‘तुमने कुछ कहा…।’’ मेरी आवाज़ उसकी पीठ से जा टकराई।

‘‘नहीं…। मुझे लगा, जैसे आपने कुछ कहा।’’ पानी का गिलास लाते हुए वह खिलखिला कर हंसी, ‘‘यह तेज़ाबी रिश्तों का साईड-इफैक्ट है जनाब…।’’

उसकी बात सुन कर मैंने पानी का गिलास खाली कर दिया। खाली गिलास पकड़ वह बीमारी की पड़ताल करने के अंदाज़ में बोली, ‘‘रिश्तों की तरह आजकल यह भी तेज़ाबी हो गया है। इसलिए पानी पीने से तेज़ाब घटता नहीं बढ़ता है…।’’

डॉक्टर द्वारा अधिक पानी पीने की हिदायत को काटते हुए वह जूठे गिलास को शुद्ध करने के लिए चली गई।

मेरे सीने में तेज़ाबी लहर उठी। दिल पर हाथ रख कर मैंने आँखें  बंद कर ली।

‘‘देख लो, लोग बिल्ली जैसे है। उन्हें देख कर कबूतर की तरह आँखें  बंद मत करो। अगर यूं ही आँखें  मूंद कर बैठे रहा फिर तो जरूर मिल गया रिश्ता…।’’ मां की पदचाप सुन कर मेरी आँखें  खुल गई।

साहिल के लिए रिश्ता देखती वह ‘उस जहान’ में चली गई थी। रात को जिस समय भी आंख लगती। बैठक के बंद दरवाज़े से निकल कर वह मेरे सिरहाने आ बैठती, ‘‘अपनी साहिल के लिए लड़का खोज लिया..?’’

‘‘नहीं।’’ मेरे द्वारा किए इन्कार को सुन कर वह बंद दरवाज़े से ही बाहर की ओर चल देती, ‘‘बात सुनो ज़रा…। कोठे जितनी लड़की घर में बैठी है…तुम्हें नींद कैसे आती है…हैं…।’’

मां की लानत सुन मुझे कई रातों तक नींद न आई। मैंने रिश्ता खोजने में दिन-रात एक कर दिया। जहां कहीं सूचना मिली, मैं वही लड़का देखने पहुंच जाता। घर, परिवार, जात-गोत्र, पढ़ाई-लिखाई, कामकाज और लेन-देन। सारी बात तय हो जाती। जब लड़का साहिल को देखता, वह इन्कार कर देता। यदि वह हां करता तो साहिल उसे इन्कार कर देती।

‘‘भला लड़की भी कभी इन्कार करती है। हां ही कर दे कभी। …लड़की की कमाई खाने के लिए उसे घर बिठा रखा है।’’ लोगों की बातें मुझे अधमरा कर देती।

लगता उस वक्त धरती फट जाए, जब कोई कहता, ‘‘लड़की की कमाई खाने वाले को ‘दल्ला’ कहते हैं।’’

‘‘नहीं, यह अनपढ़ों की बातें है। असल बात तो यह है कि लड़की अधिक पढ़ी-लिखी है। ऊपर से अभागिन के साथ वो दुर्घटना घट गई।’’ जिस समय कोई सयाना आदमी लड़की के हक में गवाही देता।

लोगों की बातें ज़हर से अमृत में बदलने लगती। मैं एक नई ऊर्जा से भर कर साहिल के लिए एक बार फिर से लड़के की तलाश में जुट जाता। 

‘‘इस तरह रास्ता खत्म नहीं होगा। यह तो एक ही स्थान पर खड़े हो कर दौड़ने वाली बात है। मैं कहती हूं, अभी भी मेरी मानो। गर नहीं मानना तो गुरुद्वारे वाली घटना फिर से घट सकती है।’’ पानी वाले हाथ साफ करके आती रवनीत ने कुछ दिन पहले कही बात पर कुछ नहीं कहा।

मगर उसकी आँखें  उस की घटी घटना की ओर इशारा कर रही थी।

उसका इशारा समझ कर मेरी धड़कन तेज हो गई। मैं आँखें  मूंद कर कुर्सी की पुश्त से सिर टिका लिया।

‘‘कुछ देर आराम कर लो।…फिर मेरे बात को ठंडे दिमाग से सोचना।’’ मेरे माथे पर रवनीत का रेशमी हाथ महसूस कर, मैं बे-आराम हो गया।

माथे का जख्म टीसने लगा। मैं गुरुद्वारे में घटी घटना के बारे में सोचने लगा।

साहिल महाराज की हजूरी में सहेलियों संग बैठी थी। वहां रवनीत के साथ ताया जी की बहु भी बैठी थी। मैं बाहर खड़ा, लड़के वालों के अंदर जाने का इंतज़ार कर रहा था। लड़के वाले अंदर जाने लगे। लड़का महाराज की हजूरी की ओर बढ़ा। मेरी सांस रुकने लगी। कान हां सुनने के लिए तरसने लगे। जैसे ही लड़का माथा टेक कर पलटा, उसका तेज़ाब से जला चेहरा देख कर साहिल की चीख निकल गई। उसकी चीख सुन कर गुरुद्वारे का जालीदार दरवाज़ा खुला। रवनीत बाहर आई। उसके साथ ही बाहर आई ताया जी की बहु शिकायत करने लगी, ‘‘साहिल कहती थी, मैंने भाई पर बात छोड़ दी है। तुमने पहले लड़के को नहीं देखा था। वह कह रही है, उसे इस लड़के से शादी नहीं करनी। इसे जवाब दे दो अभी।’’

मैं धर्म-संकट में फंस गया। दोनों पक्ष गुरुद्वारे में बैठे थे। देखने-दिखाने के बाद शगुन की रस्म करनी थी। एकदम से कैसे जवाब दे देता। मुझे कुछ मिनटों में फैसला करना था। मुझे कुछ न सूझा। तब गुरुद्वारे के भीतर झांका। शगुन का दुपट्टा ओढ़े साहिल अपनी सहेलियों के बीच रो रही थी। उसके आंसू देख कर मुझे कालेज में नाटक में किया अपना अभिनय याद आ गया। मैंने गहरी सांस ली। आँखें बंद की। छाती पर हाथ रख कर मैं नीचे गिर गया। गिरते ही मेरा माथा फर्श से टकराया। दिल का दौरा पड़ने का अभिनय मुझे सचमुच बेहोश कर गया।

जब होश आया। अपशगुन हो चुका था। लड़के वालों को जवाब मिल गया था। वे जा चुके थे। माथे पर पट्टी बंधी थी। मैं घर में बेड पर पड़ा था। पट्टी से रिसते लहु को देख कर साहिल अभी भी रो रही थी, ‘‘भाई, तुम्हें मालूम है न, मैं शीशा नहीं देखती। तुमने मुझे शीशा क्यों दिखाया। तुम ने ऐसा क्यों किया…क्यों किया।’’

‘‘चलो जो हो गया, उस पर मिट्टी डालो। दिल तगड़ा करो। मेरी बात मान लो…।’’ रवनीत का माथे पर फिरता हाथ, छाती पर महसूस कर, मेरे दिल का बोझ बढ़ने लगा।

मैंने आँखें खोल कर उसकी ओर देखा। वह मोबाईल की स्क्रीन को शीशा बना कर अपना चेहरा देख रही थी। उसकी खूबसूरती देख कर मेरी आँखों के सामने साहिल का बदसूरत चेहरा घूमने लगा। जेल की सलाखों के पीछे खड़ा बापू आग समान भड़कने लगा, ‘‘अंधा है क्या। तुझे सब दिखाई देता है न। अपनी साहिल रवनीत से भी ज्यादा सुंदर थी। मगर वो मर गया साला नामर्द…। बदसूरत आदमी…।’’

 बापू की बातों की तपिश मेरी देह को झुलसने लगी। आत्मा जलने लगी। मैंने कुर्सी की पुश्त से सिर उठा कर चोर निगाह से साहिल की ओर देखा। वह मोबाईल की स्क्रीन पर अंगुलियां घुमा रही थी। शायद वह फिर ‘पंजाबी शादी डॉट कॉम’ पर रवनीत जैसा लड़का तलाश कर रही थी।

‘‘देखो, लड़की खुद ही अपने लिए रिश्ता ढूंढ रही है। तू डूब मर लड़के। गर मैं बाहर होता तो लड़कों की लाईनें लगवा देता।’’ बापू की गोली समान बात मेरे सीने में आ लगी।

जेल की बैरक में बंद वो छाती पर हाथ मार-मार कर कह रहा था, ‘‘आदमी में गैरत होनी चाहिए। तूने देखा ना…। उसने जिस जगह पर साहिल पर तेज़ाब डाला था…मैंने उसी जगह पर खड़ा करके उसे गोली मारी थी।’’

बापू की दहाड़ सुन कर मैं डर गया। वह तो अपनी जिम्मेवारी निभा कर जेल चला गया। मां अपनी जिम्मेवारी मुझ पर डाल कर ‘उस जहान’ में चली गई थी, जहाँ उसे मेरी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी। जिस वक्त अकेला महसूस करता। मैं उस टिकी रात में मां-बापू को पुकारने लगता, ‘‘मां….बापू…मैं अकेला रह गया हूं….।’’

‘‘प्लीज़ ऐसा मत कहो। मैं आपके साथ हूं। आपकी हमसफर! आपका दायां-बायां हाथ। अगर मेरी मानो तो तुरन्त इस जिम्मेवारी से मुक्त हो सकते हो।’’ रवनीत ने अपना चेहरा देखना छोड़ कर ज़हरीली मुस्कान से मेरी ओर देखा।

उससे नज़रें चुरा कर मैं सोचने लगा। वह फिर ऐसी सलाह क्यों दे रही है। उसकी सलाह मान कर ही मैंने जो लड़का तलाश किया था, उस कारण घटी घटना के कारण ही मैं साहिल का अपराधी बन गया। यदि वह उस दिन खुदकुशी कर लेती…। माथे पर कभी ना मिटने वाला दाग लग जाता। जिस दिन उसने कहा था, ‘‘छोड भाई…मैं ही मर जाती हूं…।’’

उसकी बात सुन कर मेरे अंदर बैठी मां हंस दी थी। बापू खून के आंसू रोया था। पी. एच.डी. तक की पढ़ाई करने के बाद भी साहिल के अंदर खुदकुशी करने का ख्याल क्यों घूम रहा था। जिस वक्त मैं इस रहस्य की परतें खोल रहा था, मुझे एक ज्योतिषी की बात याद आ गई। जब साहिल कालेज पढ़ती थी। एक दिन गली में हाथ देखता एक ज्योतिषी बिना पूछे ही हमारे घर आ घुसा। ज्योतिष-विद्या को ठग-विद्या कहने वाली साहिल उसके माथे की लकीरें पढ़ने लगी। वह उसका हाथ देखने लगा, ‘‘यह लड़की पढ़ेगी तो बहुत…। मगर यह एक दिन खुदकुशी करेगी।’’

‘‘नहीं, मैं नहीं मरूंगी। वो तो मैं ऐसे ही कह रही थी।’’

ज्योतिष को ठोकर मारने वाली साहिल का रिश्ता न होते देख लोग मुझे नई सलाह देते, ‘‘लड़की मंगलीक लगती है। किसी पंडित से ‘टेवा’ बनवा कर देख लो।’’

 लोगों की समझदारी सुन मैं कई बार अस्थिर हो जाता। परन्तु साहिल अस्थिर न होती, ‘‘नहीं होता तो न सही…। लेकिन लड़का मैं अपनी पसंद का ही चुनूंगी।’’

‘‘एक चुना तो था। अभी और कसर बाकी है।’’ उसकी मर्जी का फैसला करने के बारे में सुन कर रवनीत मुझसे मज़ाक करने लगती।

उसका चेहरा बदलने लगता। बात करने का सलीका बदलने लगता। वह हरमीत की तरह काम करने लगती। मैं उसका चेहरा देखने लगता। मेरे चेहरे की ओर देख कर वह बहुत ठंडी आवाज़ में कहती, ‘‘लड़कियों को अधिक सिर पर नहीं चढ़ाते। ये सिर में गलियां कर देती है।’’

‘‘हां गलियां…। यहां…।’’ मेरे माथे को छू कर वह हरमीत समान कदम उठाती, साहिल के पास जा बैठी। 

वह चेहरा-मोहरा ढंक कर बैठी थी। पहले तो स्कूटरी चलाते समय ही चेहरा ढंकती थी। मगर तेज़ाबी घटना के बाद हर समय ही ऐसे रहने लगी। पहले सारा दिन शीशे के सामने खड़ी रहती। मगर चेहरा खराब होने के बाद वह शीशा देखने से डरने लगी थी। यदि गलती से शीशा देख लेती, उसी समय चीखने लगती। जिस तरह की चीखें उसने तेज़ाबी पलों में मारी थी।

लोगों ने उसे अस्पताल में दाखिल करवा, घर में सूचना दी थी। मैं डूयूटी पर था। रवनीत ने मुझे फोन कर, घटी घटना की सूचना दी थी। मैं बाद में अस्पताल पहुंचा। मुझसे पहले ही बापू राइफल उठा कर घर से बाहर निकल गया। लोगों से घिरी रवनीत रो रही थी।  साहिल जख्मों से लड़ रही थी। डॉक्टर-नर्सें अपना काम कर रहे थे। मैं उसकी जान बचाने के लिए मिन्नत कर रहा था। हाथ में राइफल उठाए बापू उस लड़के को खोज रहा था, जिस के घर पर साहिल की डोली उतरनी थी।

‘‘चल नीचे उतर…।’’ जिस वक्त बापू ने उसे देखा, वो सड़क किनारे मोटरसाइकिल पर बैठा किसी लड़की को फोन कर रहा था।

 बापू ने राइफल की नोक पर उसे आगे लगा लिया। आगे-पीछे चलते हुए वे उसी स्थान पर आ गए, जहां उसने साहिल के चेहरे पर तेज़ाब फेंका था।

‘‘यही है न वो जगह…। अच्छे से देख ले।’’ लोगों की भीड़ की ओर देख बापू ने तेज़ाब की बोतल खोल कर लड़के के चेहरे पर उडेल दी।

 वह साहिल की तरह चीखें लगा। चीखते हुए जैसे ही भागने लगा। हवा में ही बापू की ललकार गूंजी, ‘‘साले…नामर्द…। बदसूरत आदमी। ससुर से शगुन तो लेता जा। ये ले इक्कीस सौ…इक्तीस सौ…।’’

निशाना बांध कर छाती में गोली मारने के कारण बापू को उम्र-कैद की सज़ा हो गई। उसके जेल जाने के बाद अस्पताल से घर लौटी साहिल शिल-पत्थर बन गई थी। वह एकटक शून्य में देखती रहती। जब कोई बुलाता, ‘‘तब एक ही बात कहती, ‘‘मैं गलत नहीं….मेरा चुनाव गलत था…।’’

‘‘रिश्ते का सही चुनाव मां-बाप ही करते है साहिल। बाकी तुम्हारी मर्जी है। ’’ अच्छे खानदान और आसमान से लिखे संयोग की बात पर यकीन रखने वाले मां-बाप को हमने मुश्किल से ही मनाया था।

साहिल ने लड़के को बहुत समझाया, परन्तु वह लड़का माना नहीं। उसके दिल में मुहब्बत नहीं शक का कीड़ा था। खुद को मुहब्बत करने वाली साहिल को तस्वीरे खिंचवाने का बहुत शौक था। वह हर रोज़ मोबाईल की डी. पी. पर अपनी तस्वीर बदलती। उसकी इस अदा के कारण ही उसका प्रेमी बना लड़का बाद में उसके खिलाफ हो गया। कहने लगा, ‘‘यह जो तुम रोज़ नए-नए पोज़ बना कर लोगों को दिखाती हो न….। बंद करो यह सब…। नहीं तो मैं….।’’

अधूरी बात को पूरा करने के लिए उसने साहिल को कहीं चेहरा दिखाने लायक नहीं छोड़ा था।

‘‘यह दुनिया न दिल देखती है, ना दिमाग, ना रुह देखती है, यह सिर्फऱ् चेहरा देखती है….।’’ साहिल की रवनीत से कही बात मेरे कानों के आर-पार हो गई।

मैं कानों को हाथ लगाने लगा। कितना बड़ा पाप हो जाता। जो लड़का अपनी प्रेमिका की लंबी फोन कॉल नहीं सुन पाया। उसे बेवफा कह कर, लड़की ने उसके चेहरे पर तेज़ाब डाल दिया था। गुरुद्वारे में उसका चेहरा देख, साहिल ने अपना चेहरा देख लिया था। उससे माफी मांग कर, मैं फिर से रिश्ता खोजने में जुट गया। कभी अखबार में विज्ञापन देता। कभी विज्ञापन देख कर लोगों को फोन करता। कभी मैरिज़-ब्यूरो जाता कभी किसी पेशावर मध्यस्थ की शरण में जाता। मैं पैंतालिस जगह से साफ इन्कार सुन चुका था। दस जगह साहिल की ओर से इन्कार सुना चुका था। मुझे केवल एक ‘हां’ का इंतज़ार था।

‘‘आपको एक वर की तलाश है। ठीक है न…।’’ साहिल के पास से आई रवनीत उसी कुर्सी पर बैठ गई, जिस कुर्सी पर उस दिन मुझे देखने आया उसका भाई हरमीत बैठा था।

उसने मुझे बहुत आसानी से खोज लिया था। जिस दिन वह मुझे देखने आया, मैं अभी कालेज से लौटा था। वह मध्यस्थ सत्ती के साथ मां-बापू के पास बैठा था। सत्ती से हाथ मिला कर मैंने उससे भी हाथ मिलाया। वह मुझसे गले मिला। मैंने मन ही मन कहा, ‘‘भाई साहब, मैंने आपको पहचाना नहीं…।’’  

वह मेरे पांवों की ओर देखते हुए कुर्सी पर बैठ गया। मैंने चोर निगाह से देखा। वह नज़रें झुकाए बैठा था। जब मैंने निगाह नीची की, वह मुझे देखने लगा। संकोच से। चुप-चाप। वह मेरे साथ आंख-मिचौली खेल रहा था। लड़का कैसे देखा जाता है, न उसे मालूम था और न ही मुझे।

‘‘क्यों भई, फिर देख लिया लड़का…।’’ मुझे सीधा कहने वाली मां की बात सुन कर एक बार तो मना करने का ख्याल आया।

मुझे अभी पढ़ना था। नौकरी पर लगना था। अभी तो हंसने-खेलने के दिन थे। मैं उसे बताना चाहता था, मगर मैं कह नहीं पाया। जाते समय उस दिन मेरा हाथ पकड़ कर उसने कहा, ‘‘मैंने सब देख लिया…। कोई बात नहीं, अभी हम केवल ‘रोका’ कर लेंगे। विवाह जब मर्जी आए, तब कर लेना…।’’

मेरे दिल की बात कहने वाला वह, उस दिन मुझे अपने जैसा ही लगा।

रवनीत के साथ मेरा विवाह चार साल बाद हुआ। काफी लंबे समय तक हमारी सगाई हुई रही। इस दौरान कभी कोई गलती या गलत-फहमी हमारे बीच नहीं हुई। अपनी बातों, मुलाकातों और मुहब्बती स्वभाव के कारण वह मेरी रुह में बस गया। जिस दिन उसकी दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हुई, मेरी रुह से कुछ उड़ गया।

‘‘पक्षी उड़ गए…रह गई चोग खिलारी…।’’ हरमीत की मनपसंद पंक्ति गुनगुनाते हुए रवनीत कुर्सी को हाथ लगाते हुए बोली, ‘‘यह कुर्सी नहीं, जजमैंट सीट है। उठो जनाब…इस पर बैठो…। इस कुर्सी पर बैठ कर रिश्ते पक्के किए जाते हैं…।’’

जज की तरह फैसला सुना कर वह बहुत ही दिल-फरेब अदा से मुस्कराई। उसकी मुस्कान में कोई जादू था। मैं उठ कर उस कुर्सी पर बैठ गया। वह मेरी कुर्सी पर बैठ गई। मैं अभी कुर्सियों की अदला-बदली के बारे में ही सोच रहा था कि वह धीरे से उठी। हवा में पैर रखते हुए रसोई में गई। पानी का गिलास ला, मुझे थमाया, फिर कुर्सी पर बैठ गई। मैं पानी में तैरते रहस्य को टटोलने लगा। वह भेदभरी बात बताने की तरह धीरे-धीरे बोलने लगी, ‘‘आप के हाथ में पानी है..। आप रिश्ता खोजने वाली कुर्सी पर बैठे है।…मैं कहती हूं…जैसा भी लड़का मिले, आप रिश्ता पक्का कर, अपनी जिम्मेवारी पूरी कर दो…।’’

 ‘‘नहीं…नहीं…साहिल पढ़ी-लिखी है। उसकी भी कोई पसंद-नापसंद है। हमें उसकी इस बात का ध्यान रखना चाहिए।’’ मुझे रवनीत की पहली सलाह मानने का अपराध-बोध घेरने लगा।

मेरी घेराबंदी तोड़ते हुए, वह साहिल के कमरे की ओर इशारा कर, एक-एक शब्द पर ज़ोर देते हुए बोली, ‘‘लड़कियों की पसंद-नापसंद पर इतना महत्व नहीं देते। आप अपना काम निपटाओ बस…।’’

‘‘नहीं, मैं लड़की के साथ ज्यादती नहीं कर सकता।’’ दो टूक बात कह मैंने अपने सूखते होंठों पर जीभ फिराई।

अपने गुलाबी होंठों पर जीभ फिराते हुए रवनीत ने मेरी आँखों में देखा, ‘‘क्यों ज्यादती नहीं कर सकते…। हरमीत ने भी तो मेरे साथ ज्यादती की थी…।’’

‘‘ज्यादती की थी…। वो कैसे…।’’ पलक झपकते ही पानी का गिलास हिलते ही मेरी जुबान भी लड़खड़ा गई।

मगर रवनीत नहीं लड़खड़ाई। मेरा हाथ पकड़ कर हंसते हुए बोली, ‘‘आप मुझे कहां पसंद थे…।’’

उसकी तेज़ाबी हंसी सुन कर मेरी आँखों सामने हरमीत की जलती चिता दिखाई दी।

‘‘चिता में तिनका फेंकना बहुत मुश्किल होता है …।’’ मेरा हाथ छोड़, वह नीचे गिरा तिनका मुझे देने लगी।

मैंने वो तिनका तोड़, मुंह में डाल, पानी पी लिया।

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