शिवनंदन सिंह यादव की कविताएँ

1. छोटी-छोटी बातों पर भी

बहुत सोचना ठीक नहीं है
प्रति पग फूंक फूंक कर रखना
कोई अच्छी नीति नहीं है!

छोटी-छोटी बातों से ही
हम अपना स्वभाव गढ़ते हैं
जो शब्दों का अर्थ नहीं है
उन अर्थों को ही पढ़ते हैं

जान मान कर अपनी चिंता
हमें बढ़ानी नहीं चाहिए
एक चित्त ही दिया प्रकृति ने
उसे उदासी नहीं चाहिए

चिंता इस मन को प्रसन्नता
कभी नहीं देने पाई है
तो फिर व्यर्थ चित्त को चिंतित
करने में क्या चतुराई है

चिंता रहित स्वयं को रखना
जड़ता का उद्घोष नहीं है
मन को स्वस्थ संतुलित रखना
एक कला है, दोष नहीं है

*****

(‘इंदीवर’ काव्य संग्रह से साभार
Pg. 139
)


2. कैसे कोई मान सकेगा

कैसे कोई मान सकेगा
बीत गई सो बात गई
कुछ अतीत संयुक्त रहा
जब नव दिन आया, रात नयी

समय सतत गतिशील उसे-
कब रोक सकता है कोई जन
किंतु समय के चरणचिह्न भी
मिटा ना पाया है जीवन!

जीते हैं हम वर्तमान में
पर सबको यह बात विदित है
जीवन के प्रत्येक “आज” में
“कल” का कोई भाग निहित है!

*****

(‘इंदीवर’ काव्य संग्रह से साभार
Pg 166
)


3. इतना सच भी ठीक नहीं है

इतना सच भी ठीक नहीं है
जो जीवन को हेय बना दे
पग -पग पथ में शूल बिछा कर
दुख कोई ही पाथेय बना दे!

कौन सत्य के लिए किसी को
यश का मौर पिन्हाने आया?
कौन सत्यवादी जीवन में
कभी किसी का प्रिय बन पाया!

हैं कुछ लोग जो कि हाथों में
“आदर्शो” की ध्वजा उठाकर
मंचों पर भाषण देते हैं
झूठों के अंबार छिपा कर

इनका मन क्यों नहीं पूछता
झूठ भला क्या नेक बात है
मौन भला है वहां, जहां सच
केवल दुख का भ्रात-तात है

इतना सच भी ठीक नहीं जो-
संबंधों को गरल पिला दे
कटुता भर दे मन-प्राणों में
जो हंसतों को व्यर्थ रुला दे

*****

(‘इंदीवर’ काव्य संग्रह से साभार Pg 218)



4. तुम्हारा मौन


तुम्हारा मौन केवल मौन बनकर रह नहीं जाता
अनेकों प्रश्न बनकर गूंजता है, प्राण में छाता-

जब कभी तुम किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देते
वह आ कर पूछता मुझसे मुझी को दोष सा देते

तुम्हारे प्रश्न में क्या था कि इतना मौन छाया है
किसी को मरम तो अपना नहीं हो याद आया है

मेरा मन विकल होकर पूछता, ‘फिर क्या हुआ तय है’
मेरे ही धड़कनें मेरी नहीं हों, बस यही भय है

कौन सा विषय है वह जो तुम्हारा है नहीं मेरा
कौन सा कोण वह मन का नहीं जो आज तक मेरा

हमारी सांस ने सौगंध ली थी एक होने की
कि हमने धारणा की साथ हँसने साथ रोने की

कोई भी मौन तो मन को समाहित कर नहीं पाता
कोई भी प्यार चुप की आग में जल जी नहीं पाता

अतः हर बात मेरी बात करना चाहती है
तुम्हारे मन से दिन-रात लड़ना चाहती है

तुम्हारे प्रश्न में क्या था कि इतना मौन छाया है
किसी को मर्म तो अपना नहीं हो याद आया है

मेरा मन विकल होकर पूछता, ‘फिर क्या हुआ तय है’
मेरे ही धड़कनें मेरी नहीं हों, बस यही भय है
कौन सा विषय है वह जो तुम्हारा है नहीं मेरा
कौन सा कोण वह मन का नहीं जो आज तक मेरा

हमारी सांस ने सौगंध ली थी एक होने की
कि हमने धारणा की साथ हँसने साथ रोने की

कोई भी मौन तो मन को समाहित कर नहीं पाता
कोई भी प्यार चुप की आग में जल जी नहीं पाता

अतः हर बात मेरी बात करना चाहती है
तुम्हारे मन से दिन-रात लड़ना चाहती है

*****

(‘चन्दन-वन’ से आभार)


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