
अछूते राग
सर्दियाँ आ गईं
तुम कहाँ हो?
लोग घूम रहे हैं रंगरेज बने
खुद भी रंगे दूजे को रंगे
सड़कें अटी पड़ी हैं लोगों से
चेहरे पर चेहरे चिपके हैं
कभी लगे है यह जादू
कभी लगे है दुनियादारी
मैं देख रहा हूँ आहिस्ता-आहिस्ता सारा मंजर
डरता हूँ मन के भाव न हो जाएं बंजर
मैं बदहवास तो नहीं हूँ लेकिन
तुमको खोज रहा व्याकुल प्यारे
जहाँ भी हो
वहीं से बोलो
अवरुद्ध कंठ खोलो
ये नरम धूप के दिन बीत जाएंगे
अछूते राग रीत जाएंगे
प्रिय सर्दियाँ आ गईं
तुम कहाँ हो?
*****
-जितेन्द्र श्रीवास्तव