
आज मिलेंगे
तुम मिलोगे तो कहाँ से शुरू होगी हमारी बातचीत?
सूरजकुण्ड सिटी हॉल्ट की हलचल भरी शामों से
या किसी उदास दोपहरी से
जब 32/3 बहस कार्यालय में हम बिना दूध की चाय पीते हुए
क्रांतियों के धवल-धूसर पक्षों पर बात करते हुए नहीं पहुँच पाते थे किसी नतीज़े पर और दिल डूब जाता था जब थोड़ा और हमारा
उस स्मृति से
वर्षों बीत गए
अब मैं शराब नहीं पीता
वह चढ़ती ही नहीं मेरी चेतना पर
कभी मदिर ही नहीं हुए मेरे नयन
मेरी जिह्वा कभी आई ही नहीं नशे में
लेकिन तुम्हारे साथ पीऊंगा भोर होने तक जल की तरह नहीं
बिल्कुल शराब की तरह
शायद पहली बार नशे को हो जाये मुझसे दोस्ती
शायद वही सेतु बन जाये हम दोनों के बीच
वैसे पता नहीं अब तुम पीते हो या नहीं
जाने कैसा रहता है तुम्हारा स्वास्थ्य
शहर में बचे पुराने मित्रों से कभी मिलते हो या नहीं
कहीं फिर कोई गलतफहमी न हो जाये इसलिए रहना चाहता हूँ चौकन्ना
जानता हूँ तुमने अपने ऊपर हावी न होने दिया होगा उम्र को
फिर भी वह पुतलियों से झाँकती तो होगी गाहे- बगाहे
आईना दोस्त नहीं होता हरदम
कई बार तो विकल कर देता है मन-मस्तिष्क को किसी शत्रु की तरह
कई बार व्याधियों की जड़ भी बन जाता है आईना
जब भी याद करता हूँ अपना अतीत
एक भींड़ सी दिखती है पर चेहरे साफ नहीं दिखते
अधिकतर के चेहरों पर धुंध सी दिखती है
बहुत थोड़े से चेहरे दिखते हैं साफ-साफ
उनमें सबसे आगे चमकती हैं तुम्हारी आँखें
उन दिनों कहाँ पता था एक दिन ऐसा भी आएगा जब हम मिलने की आतुरता के बाद भी मिल न सकेंगे
या यह आतुरता भी रह जाएगी एकतरफा
उम्मीद है अब भी वही चमक होगी तुम्हारी आँखों में
बातों में वही गंभीर दार्शनिक भाव
कहीं किसी प्रकार का कोई हल्कापन नहीं होगा
अब भी कोई नई किताब जरूर होगी तुम्हारे हाथों में
किसी नाटक का कोई सपना पुतलियों की कोर में अटका होगा
तो चले आओ मन की सूख चुकी कई नदियों को लाँघते
आज चले ही आओ
हम देर तक बैठेंगे रेलवे लाइन के किनारे के किसी उजाड़ छप्पर के बाहर
याद करेंगे कट चाय और नेवी कट वाले दिनों को
एक दूसरे के प्रौढ़ हो चुके चेहरों में ढूंढेंगे अतीत की कोई आभा
तो आओ, आज मिलेंगे।
-जितेन्द्र श्रीवास्तव