तुम सुखी रहना

आज फिर तुम्हारी याद आई!

चली पुरवाई उभरा घाव
पर सोचता हूँ
क्या तुममें बचा होगा कोई भाव
अब भी होगा मिलने का चाव
या भूल चुकी होगी तुम अतीत का उदास घाम
अब तुम पर हावी होगा वर्तमान का चटक नाम!

पर क्या करूँ मैं अपने इस मन का
यही धुरी है मेरे इस तन का
भूलता नहीं यह कुछ भी अतीत-उपवन का

चलो यह भी अच्छा है कि मिलो तुम
और न पहचानो मुझे
किसी अजनबी की तरह देखो मुझे जैसे कभी मिले ही न थे हम
चुपचाप बगल से निकल जाओ साधे हुए दम

तुम्हारा इस तरह चुपचाप निकल जाना
बहुत आश्वस्त करेगा मुझे
मैं जान लूँगा कि अभी तुम्हारी ओर भी सूखा नहीं है स्मृति-वृक्ष
भले ही मैं न बैठ पाऊँ उसकी छाँव में
सुनो,तुम सुखी रहना अपनी जीवन-नाव में।

-जितेन्द्र श्रीवास्तव

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