अनुवादिका : वसुधा सहस्रबुध्दे

यक्षिणी का मेघदूत

मूल कहानी की भाषा – मराठी
लेखिका – डॉ. निर्मोही फडके.
अनुवाद- डॉ. वसुधा सहस्रबुध्दे

अपने घर के अटारी की सफाई करते समय उसे एक फटी पुरानी बैग मिल गई। बैग के एक कोने में पुराने कपड़ों के बीच पड़ी हुई कवि  कालिदास की अजरामर कृति ‘मेघदूत’ की किताब उसे दिखाई दी। अचानक उसके मन में कुरेदी हुई पंक्ति याद आयी  ‘आषाढ़स्य प्रथम दिवसे‘ 

आषाढ़ का  काला हाथी जैसा बहुत बड़ा मेघ उसने अपने आँगन में कितनी बार देखा था, महसूस किया था। बचपन में हाथी की तरह दिखनेवाला वह बहुत बड़ा बादल युवा उम्र की दहलीज पर कवि कालिदास का मेघदूत बनकर आया और यक्ष की विरह कथा सुनाते हुए व्याकुल करने लगा। उस मेघदूत के साथ विहार करना उसे बहुत पसंद था। उसके बारे में वह छोटी छोटी कविता लिखती थी। तब उसने तय किया था उसके बारे में, उसके लिए बहुत लिखना है। बहुत कुछ अलग करना है, अलग से जीना है। पर सब कुछ अधूरा छोड़ना पड़ा। मेघदूत के यक्ष जैसा कोई उसकी जिंदगी में आ गया। उसके सीधे सादे, छोटे से गाँव से उसे उठाकर अपनी जगमगाती दुनिया के शहर में बाजा बजाते हुए ले गया। शहर में आते समय माय के से वह कुछ गिनीचुनी चीजे लेकर आयी थी। उस में  उसका प्रिय ‘मेघदूत‘ था। लेकिन उसके मन का आषाढ़ का मेघ गृहस्थी के फेर में अनुपयोगी चीजों में पीछे धकेल दिया गया। 

अब गांव, आँगन और दूर दूर तक दिखने वाला आसमान सब कुछ बदल गया था। शहर, गॅलरी और गॅलरी से दिखनेवाला आसमान का टुकड़ा, बस! इस शहर में तो दिन रात दावानल जलता रहता था।  

उसे अपने मायके का हरा भरा गांव याद आता। शायद गहरा हरा नहीं होगा लेकिन मन को ताजा करने वाली हरियाली वहाँ  थी। आषाढ़ , सावन और भादो के दिन जी भर भीगने के लिए और जीने के लिए मिलते थे। मेघदूत के अलग अलग आकार के बादल दिखाई देते। ऐरावत, पुष्कर, आवर्तक, कुंजर  आदि। 

उसे मेघों के नाम याद आते।  फिर उसे पत्नी के विरह में व्याकुल हुए शापित यक्ष की याद आ जाती। धीरे धीरे उसे पता चला कि  उसकी जिंदगी का यक्ष भी इसी तरह शापित है। 

कुबेर के श्राप से दग्ध। उसे कुबेर की तरह अमीर बनना है। इसलिए शायद कुबेर ने श्राप दिया उसे ‘अमीर हो जाओगे पर मानवता भूल जाओगे।‘


अब उसे अपनी गृहस्थी का आसमान रुखा-सूखा, निरभ्र लगता था। कभी कभी भटकनेवाले आवर्तक बादल आते थे। धुनके हुए सफ़ेद ऊन की तरह! रूखे से………

क्या  करें इसका ? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। ऐसे ही कभी मन हुआ तो कविता की कुछ पंक्तियाँ लिखती, उन बाँझ मेघों पर।  पर वह पंक्तियाँ कागज के टुकड़े पर ऐसे ही विलीन हो जाती। क्या करें? रोज रोज के डरानेवाले, गृहस्थी के प्रश्नों के सामने कविता की यह चार पंक्तियाँ  उसे कैसे राहत दे सकती है?

जिंदगी में धन की स्पर्धा दिन-ब-दिन बढ़ती ही गयी। उसका यक्ष पैसा और प्रसिध्दि के व्यसनों में फँस गया। उन्होंने राक्षसी रूप धारण किया। उनमें से एक राक्षस उसके यक्ष को उससे दूर ले गया। शरीरऔर मन से भी। बेहद महत्वाकांक्षा के उस राक्षस ने उसके घर में कभी का प्रवेश किया था। धीरे धीरे उसने भीषण रूप धारण किया।  वह नहीं समझ सकी कि  कब उसके शापित यक्ष को वह दूर ले गया। जब ध्यान में आया तब बहुत देर हो चुकी थी। 

उसके दूर जाने के बाद शहर का दावानल उसे असह्य होने लगा। जब वह साथ में था तब भी दावानल तो था ही , वैसे बारो मास।  लेकिन तब मध्यरात्र उसके तन मन को सजीव करती थी। वे दोनों मध्यरात्रि का चाँदओढ़ लेते थे और किसी चीज की जरूरत ही नहीं थी। अब तो उन दोनों ने सिर्फ कहने के लिए अपना निरर्थक रिश्ता संभाला है। 

आज अटारी समेटते हुए बहुत पीछे धकेला हुआ मेघदूत अचानक उसके हाथ लग गया और उसके मन का आसमान सिसकियों से भर गया। कितना कुछ तय किया था ,अब मैं तुम्हारा क्या करूँ ? वह अपने मन से बाते कर रही थी। उसने प्यार से किताब हाथ में ले ली और उसे निहारती रही। उसके पीले  पड  गए पन्ने धीरे से उलटते हुए उसकी व्याकुल नज़र उसके एक एक शब्द पर सरकती रही। 

पत्नी विरह से विह्वल शापित यक्ष, उसने देखा हुआ काला बादल , कैलास पर्वत की अलका नगरी में रहनेवाली उसकी राह देखनेवाली पत्नी, उसे सन्देश देने के लिए यक्ष द्वारा किया हुआ उस मेघ का चुनाव, उसे अलका नगरी का मार्ग बताना, अलका नगरी और अपनी विरह-व्याकुल पत्नी का वर्णन करना  आदि आदि. ….. 

यह सब पढ़ते पढ़ते मेघदूत की छाया में वह अपने आप को खो बैठी।  देखो न कितने साल बीत गए हमारी भेंट ही नहीं हुई। उसने मेघदूत से कहा ‘ मैं तुम्हे कविता में मिलती  थी तब लगता था तुम मेरी जिंदगी में हमेशा रहोगे। कही नहीं जाओगे।  

लेकिन बाद में पता चला तुम्हारी राह देखना भयानक तकलीफ  है और  मुझे मिलने तो तुम  बिलकुल ही नहीं आए। मुझे भी जिंदगी में एक शापित यक्ष मिला। तुम्हारी कहानी के यक्ष की तरह उसे भी कुबेर का श्राप था। लेकिन वह मेरे लिए विव्हल नहीं हुआ। इस जगमगाती अलका  नगरी में मुझे अकेली छोड़ कर सात समुद्र पार चला गया।  उसे नहीं आती मेरी याद।  आयी भी तो व्यवहार के लिए।  अब मेरा यक्ष मेरे पास नहीं है और हे मेघदूत, तुम भी नहीं। मैं मात्र शुष्क नदी हो गई हूँ।” 


मेघदूत हाथ में लेकर वह अकेली अपने मन से बतिया रही थी। 


आज दोपहर में अचानक अँधेरा छा गया। धीरे धीरे हवा चल रही थी। सूखे पत्ते ऐसे ही गोल गोल चक्कर ले रहे थे।तप्त तारकोल के रास्ते शांत हो गए। तारकोल पर फैली गीली मिटटी की  गिली  सुगंध हवा में फ़ैल गयी। 


वह दौड़ती हुई गॅलरी में आ गयी।  गीली हवा का स्पर्श और गंध, वही व्याकुल स्पर्श, बहुत पुराना।  उसने सृष्टि का वह सर्जन गहराई से अपनी साँसों  में, देह में, मन में समा लिया। गॅलरी  से आसमान का गहरा नीला टुकड़ा  दिखाई दे रहा था।  उसमें कुछ अँधेरा लेकर आया हुआ अजस्र कृष्ण मेघ! उसे निरखते हुए उसके मन में बिजली कौंध गई।  ‘क्यों नहीं?’ उसने खुद से पूछ लिया। 

‘मैं कर सकती हूँ। खुद को सिध्द करने के लिए, स्वावलम्बी हो सकती हूँ।” उसे अपने मन की गवाही मिल गई। उस रात चांदनी के अक्षरों को एक साथ गूंथते हुए गॅलरी में  वह अकेली बैठी थी।  कितने सालो बाद उसने हाथ में कलम उठायी थी।

‘अब इसे ही अपना जीने का, ख़ुशी का, संतोष का साधन बनायेंगे।‘ उसने मन ही मन तय किया। उसका रत्न से जड़ा हुआ कलम चुस्ती से कागज पर चलने लगा। 
एक शापित यक्षिणी के लिए 
एक ‘नये मेघदूत‘ के लिए

‘आषाढस्य प्रथम दिवसे‘……… 

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