अभिलाषा

भिन्न हो चाहे रहन-सहन या फिर हमारी वेश-भूषा,
खान-पान में हो भिन्नता या अलग हो हमारी भाषा,
हों किसी भी गांव-शहर से.. किसी भी धर्म-जाति के हम,
मिलजुल कर सब साथ रहें, यही है बस अभिलाषा,
अलग हो के भी अलग नही, संतान हैं जो भारत मां की हम।

प्यार-दुलार..रूठना-मनाना..आदर और सम्मान,
नोक-झोंक..लड़ाई-झगड़ा..क्षमा और बड़प्पन,
हर रिश्ते में है माफी, और हमें ये सब, है सहजता से स्वीकार,
भूला कर हर वैमनस्य तथा द्वेष.. रह क्यों नही सकता फिर,
हर एक भारतवासी इस संपूर्ण भारत का, जैसे संयुक्त परिवार।

कोई भी हमको तोड़ ना पाए, ये बंद मुठ्ठी खोल ना पाए,
अस्तित्व हमारा, है भारत से ही.. इसे जोड़े रखना, है कर्त्तव्य हमारा,
ऐसी हो हमारी एकता कि, अनेकता में भी हो, एक अटूट अखंडता,
दुर्लभ ही मिलेगी देखने..इस पूरे संसार में, ऐसी विविध विविधता,
ये तो केवल मेरे देस की मिट्टी की..है और इक अनूठी विशेषता।

भावना जागृत होंगी जब सद्भावना, नैतिकता और मानवता की,
तब ही होगा विकास..होगी प्रगति-उन्नति हम भारतीयों की..
.. तो चलों शपथ लें..
दसों दिशाएं मिला दें, गुजरात से बंगाल और कश्मीर से कन्याकुमारी,
सरहदों को आओ हम..बना लें अब से, घर की सशक्त चार दिवारी,
हृदय में बसा लें देश को अपने, एक-दूजे के दिल में घर कर लें,
भारतवर्ष को एक करने का, आज ये हम प्रण कर लें..

श्रेष्ठ भारत को एकजुट हो, आओ हम सर्व श्रेष्ठ कर लें।

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-अंतरा राकेश तल्लम

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