
चाँद को ताकूँ मैं
चाँद को ताकूँ मैं
सारी सारी रात
और सोचूँ अक्सर
बस एक ही बात।।
बाबजूद दाग़ के भी
वो क्यों लगे
इतना ख़ास हमको,
बाबजूद दाग़ के भी
खूबसूरती क्यों लगे
बेदाग हमको।
चाँद को ताकूं मैं
सारी सारी रात।।
हर कमी को उसकी
चाँदनी की चमक-
कर देती है धुंधला,
चाँद पूरा हो या फिर
चाहे हो अधूरा।
चाँद को ताकूँ मै
सारी सारी रात।।
हो नहीं पाती
निष्कलंक क्यों
रोशनी अच्छाइयों की,
हो नहीं पाती
नज़रदाज क्यों
हर खामियां इंसान की।
चाँद को ताकूँ मैं
सारी सारी रात।।
काश देख पाते
एक दूसरे में…
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– अंतरा राकेश तल्लम