कवि और कविता
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हिन्दी के कवि और कविता की
देखो कितनी लाचारी है।
बिना मानदेय छप-छप कर भी
संपादक का आभारी है।

कोविड ने जब से दिखलाई
राह नई अंतर्जालों की
ज़ूम बराबर ज़ूम हो रहा
झड़ी लगी कविता वालों की
सुनने वाला बचा न कोई
कवि की कविता पर जारी है।
बिना मानदेय छप-छप कर भी
संपादक का आभारी है।

एक अगर ढूँढो, मिल जाएँ
ढेरों ढेर कवि, कविताएँ
लेकिन मुश्किल उनका मिलना
जिनके लिखे अमर हो जाएँ
घर-घर कविता, घर-घर कवि ने
फैलाई ये बीमारी है।
बिना मानदेय छप-छप कर भी
संपादक का आभारी है।

हिन्दी के साहित्यिक मंचों
की संख्या का हाल न पूछो
एक-एक ने खोल रखे है
छुटकर फुटकर मंच बतीसों
दिन दिनभर होती चर्चाएँ
अगले दिन किसकी बारी है।
बिना मानदेय छप-छप कर भी
संपादक का आभारी है।

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– विनीता तिवारी

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