कटघरा

रात का अँधेरा
सन्नाटा, और
मेरे वो एकाकी पल
चिन देते हैं मुझे
मन के कटघरे में
हर रोज़
पूछती हूँ
कितने सवाल
खुद से
देती हूँ हर जवाब
खुद ही
होती हूँ
कभी आरोपी, कभी दोषी
खुद ही पक्ष, खुद ही विपक्ष
और
खुद ही न्यायाधीश
घेर लेते हैं
मुझे
कितने द्वंद्व
कितने अन्तर्भाव
कभी ग्लानि
कभी क्षोभ
कभी संताप
कभी पश्चाताप
अधिकतर
बरी ही हो जाती हूँ मैं
रात के तीसरे पहर तक
क्यूँकि
जानती हूँ
कल भी तो खड़े होना है
मुझे
इस कटघरे में
इसी समय
नींद की गोद में
जाने से पहले !!!!!!

*****

– शशि पाधा

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