भली थी
इक लड़की
कितनी
भली थी
नाज़ बिछौने
पली थी
माँ अँगना में खेलती
जूही की
कली थी
पिता हथेली पे रखी
गुड़-मिश्री
डली थी
अल्हड़ हिरना झूमती
थोड़ी सी
पगली थी
भावी की गलियों में
स्वप्न संजोए
चली थी
ब्याही तो बेगाने घर
धू-धू कर
जली थी
बस इतना ही सुना कहीं
चंगी थी
भली थी !!!!!
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– शशि पाधा