उसके श्रम के आँसू
अब्र से कल्पित कोमल चक्षु उसके भींग गए
उसके श्रम के आँसू वह हृदय स्थल तक भीत गए
मेरी कामना की प्यास का नज़ारा एक यह भी था
उसकी करुण व्यथा का कारण एक जमाना यह भी था
तैरती प्यासी उन आँखों को अमृत सी मेरी दृष्टि
शायद उस क्रीड़ा ग्रह में दया की न होती भर्ती
तेज लहर की तीव्र गति सा उमड़ता वह जल प्रपात
बहा ले गया बीज कूरता के सारे अपने साथ
देखा था मैंने पहले भी जश्न स्वप्न के सच होने का
शुष्क भूमि पर अँकुरता के बीज प्रफुलित फिर होने का
उसके मन का क्रंदन वह छू ले गया लेकिन आज
आखरी कण भी जो रहा भीतर मन के किसी कपट का मेरे पास
स्याह पटल पर लिखावट की चढ़ती किसी लेप की भांति
अद्भुत रत्न से बेजोड़ क़ीमती हैं उसके श्रम के वे आँसू
उसके श्रम के वे आँसू !
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– सुयोग गर्ग