पुरु और प्राची

– दिव्या माथुर

         
बद्रीनारायण ओसवाल का इकलौता वारिस था उनका बेटा, हरिनारायण जो एक अमेरिकन लड़की से शादी करके कैलिफ़ोर्निया में जा बसा था। हालांकि हरिनारायण की मां शीलवति बेटे से फ़ोन पर हालचाल पूछती रहती थी, बाप बेटे के दरमयान एक मौन घिर आया था। हाल ही में तो बात इतनी बढ़ गई कि बद्रीनारायण को बेटे और विदेशिनी बहु, कैरेन, के नाम वसीयत में कुछ भी छोड़ना आपत्तिजनक लग रहा था। शीलवति को फ़िक्र थी कि उसका झक्की पति कहीं सारी सम्पत्ति अपनी बहन धनवति के बच्चों के नाम न कर दे।

इसी बीच हरिनारायण को यकायक पिता की ज़रूरत आ पड़ी, जिसके लिए शीलवति ने ब्रह्मा जी का लाख-लाक शुक्र मनाया कि बेटे ने बाप को फ़ोन तो किया। रुड़की स्थित प्राची स्पेस सैंटर वालों ने अपनी बिक्री कला अमेरिका पर आज़माई थी। या तो चांद की सैर के लिए अमेरिकन यात्रियों में होड़ लगी हुई थी या वे हरिनारायण को मूंठना चाह रहे थे। हरिनारायण के फ़ोन पर फ़ोन आने लगे।

‘पूछ न वो कांई चावे?’ बद्रीनारायण जानते थे कि हरिनारायण उन्हें फ़ोन करने वालों में से नहीं था; उसे अवश्य कोई ज़रूरत होगी। चांद की सैर पर जाने के लिए बस एक दस करोड़ रुपयों की आवश्यक्ता थी और बद्रीनारायण के पास सैंकड़ों करोड़ थे।  

ख़ैर, हरिनारायण अपनी मां को पटाने और शीलवति अपने पति को मनाने में कामयाब हो गए। शीलवति ने पति को बेर-बेर समझाया कि पैसे के चक्कर में कहीं वे बेटे को पूरी तरह से बेगाना न कर दें। अर फिर ऐसी सम्पत्ति का क्या लाभ यदि बद्रीनारायण के परिवार का नाम चांद पर जाने वाले पहले सौ यात्रियों में भी न दर्ज हो सके? शीलवति पर अपनी झीक निकालकर वह किसी तरह बेटे से बात करने को राज़ी हुए।

‘बापुजी, पिसा तो साथ जावे कोनी, काल कुंण देख्यो है?’ हरिनारायण ने आज उन्हें ‘डैड’ की जगह ‘बापुजी’ कहकर बुलाया तो बद्रीनारायण ने झट हथियार डाल दिए।

‘पिसा की बात कोनी हरेभाया, जान होई तो जहान होई।’ हरि के मनमाने विवाह से चाहे बद्रीनारायण कितने ही नाराज़ क्यों न हों, उसकी बात वह टाल नहीं पा रहे थे; उन्हें बेटे की सुरक्षा की भी फ़िक्र थी; चांद से न लौटा तो? 

‘बापुजी, चांद की सैर तो घणी चोखी है। अब तांई अस्सी लोग चांद पर जार भी पाछा आ गिया हैं।’ मन ही मन वह सोच रहे थे कि यदि चांद की सैर इतनी ही सुरक्षित है और यदि पैसा बर्बाद हो ही रहा है तो वह स्वयं ख़ुद क्यों पीछे रह जाएं?

‘त ही चालबा लागया तो छोरा न कांई कैवा? अठै कांकी कमी है जो बाप र बेटा चांद पर जाबा लाग्या।’ शीलवति ब्रह्मा जी को मनाती रही किंतु बाप-बेटे ने उनकी एक न सुनी। शीलवति अब पछता रही थी कि उसने क्यों बाप बेटे का बीच बचाव किया। बद्रीनारायण हैरान थे कि उनकी घोर पतिव्रता पत्नी ने उनके साथ चलने से साफ़ इंकार कर दिया था, वह तो सोच रहे थे कि सीता जी की तरह वह उनके साथ चलेगी। वह चाहते भी थे, वहां उनकी देखभाल कौन करेगा? उन्हें लगा कि शीलवती से तो कैरेन ही अच्छी थी जो पति के साथ चांद पर भी जाने को तैय्यार थी। चलो, कैरेन को पति और ससुर दोनों का ध्यान रखना होगा।   

‘मनै पतो है चौन्द माते कुञ्ज कौनी हुसी, ऊबड़ खाबड़ बियाबान हुसी, नितर हवा, नितर पाणी, नितर साग फूल पाता की कौनी, मैं फिलम देखयोड़ी हूं। वैठे तो उचक उचक ने हाल्नो पड़ेला, मैं तो कौनी जावुला, म्हारी धोती उडगी जने?’
शीलवती को विश्वास नहीं था कि चांद से लौटकर कोई वापिस आ सकता किंतु फिर भी उसने पति और बेटे को जाने से नहीं रोका और न ही बहु से कहा कि वह घर पर ही रहे। जान गंवाने से तो अच्छा है कि वह धरती पर ही रहकर वृत उपवास आदि करे ताकि उसका परिवार सही सलामत घर लौट आए।

‘रामजी निगं राखसी, म्हारो टाबर ने देखो किस्यो क पुटरो लाग रियो है।’

‘चोखो भागवान, तनै जो करणो है कर पर चोखी तिरहां नीगें कर करजै नीतो किरन हम्ने गिवांर समझेलां।’ मियां-बीबी ने कैरेन को ‘किरन’ बना दिया था

हरिनारायण को बस एक यही शौक था कि किसी तरह वह एक ‘सैलेब्रिटि’ बन जाए; अमेरिका सैलिब्रिटीज़ का देश है और लोग ‘सैलेब्रिटि’ बनने के लिए कुछ भी करने को तैय्यार रहते हैं। जो अमेरिकन्स चांद की सैर करने के बाद भारत से लौटे थे, अख़बार, रेडियो और टेलिविज़न वाले उनके पीछ-पीछे कुत्तों से घूमते थे। हरिनारायण को यकायक लगा कि उसके अपने देश ने इतनी तरक्की कर ली थी और वह अभी तक अमेरिका में बैठा भाड़ झोंक रहा था। उसके आग्रह पर प्राची स्पेस सैंटर वालों का मार्केटिंग मैनजर, विशाल गोदारा, बद्रीनारायण से मिलने ख़ुद बीकानेर पहुंच गया था। उनकी बैठक की सफ़ेद दीवार पर उसने अपने लैपटौप के ज़रिये उन्हें बढ़िया बढ़िया तस्वीरें और फ़िल्में दिखाईं जिनमें यात्री आराम से सोते हुए चांद पर पहुंचे और फिर चांद की ज़मीन पर उतरकर एक फुदकते हुए पारदर्शक वाहन, जिसका नाम पुरु था, में मज़े करते हुए दिखाए गए थे। चांद पर स्थित सात-सितारा होटेल, प्रजापति, तो सचमुच ही निराला था। उसके कमरों के दरवाज़े स्टारवार्स फ़िल्म की तरह खुलते और बन्द होते थे; हर चीज़ बटन दबाते हाज़िर हो जाती थी। उन्हें तसल्ली हो गई कि यात्रा ख़तरनाक नहीं थी। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि इस यात्रा के लिए न तो किसी योग्यता की आवश्यकता थी और न ही किसी प्रशिक्षण की।

जैसे ही विशाल गोदारा ने हरिनारायण को ख़बर की कि उसके पिता ने रुचि दिखाई थी, वह अगली ही फ़्लाइट लेकर दूसरे दिन ही बीकानेर पहुंच गया कि कहीं बद्रीनारायण अपना फ़ैसला न बदल लें। घर पहुंचते ही कैरेन का फ़ोन आया; वह बहुत ग़ुस्से में थी। प्राची स्पेस सैंटर वालों के एक फ़ोन से उसे पता लग गया था कि बाप बेटा चांद की सैर पर जा रहे हैं। प्राची स्पेस सैंटर वालों को एक और टिकेट बिकने की पूरी उम्मीद थी और इसीलिए वे कैरेन को फ़ोन पर फ़ोन किए जा रहे थे। उन्होंने उसे आगाह कर दिया था कि उनके पास केवल एक ही सीट बची थी जो वे सुबह तक रोक सकते थे और यह कि यदि उसने ये फ़्लाइट ‘मिस’ कर दी तो न जाने उसका नम्बर कब आए। बीकानेर और कैलिफ़ोर्निया के बीच फ़ोन सारी रात घनघनाता रहा।

‘हाउ कैन यू बी सो मीन, हरि? इफ़ समथिंग हैपेंड टु यू औन दि मून, आइ विल किल माइसैल्फ़!’ यह तो भला हो प्राची सैंटर वालों का कि उन्होंने कैरेन को ख़बर कर दी; नहीं तो वह अमेरिका में पड़ी होती और बाप-बेटा चांद की सैर को निकल चुके होते। हरिनारायण एक तरह से पिता के साथ अकेले ही जाना चाहता था पर जल्दी ही कैरेन बीकानेर आ पहुंची और सति सावित्री की तरह ज़िद करके बैठ गई कि वह जियेगी और मरेगी तो केवल हरि के साथ। इसी चक्कर में बद्रीनारायण के दस करोड़ और ठुक गए। मन ही मन वह यह भी सोच रहे थे कि भारत की ख़ुशहाली और तरक्की देखकर शायद हरि वापिस बीकानेर आकर ही बस जाए। उन्हें विश्वास था कि गर्मियां शुरु होते ही कैरेन रेगिस्तान से भाग लेगी। फिर वह हरि का ब्याह किसी बड़े खानदान की छोरी से करके अपने परिवार का नाम रौशन करेंगे। वह महा कंजूस थे किंतु इसी ख़याली पुलाव के पकते वह दिल खोल कर ख़र्च कर रहे थे हालांकि जब तब उनकी जान सूखने लगती और लगता कि हृदय की गति कहीं बन्द ही न हो जाए। अपने पूरे जीवन में उन्होंने इतना ख़र्च नहीं किया था, जितना वह एक इस चांद की सैर पर कर चुके थे; और अभी तो सिर्फ़ टिकेट ही ख़रीदे गए थे।

उधर शीलवति ने दुनिया भर के रिश्तेदारों को ख़बर कर दी कि बेटा अमेरिकन बहु को लेकर आ रहा है। सारे काम-काज छोड़कर लोगों ने बीकानेर के टिकेट कटा लिए। हवेली में मुफ़्त में रहने और खाने पीने का मौका बार-बार थोड़े ही मिलता है। हवेली में जहां देखो वहां बिस्तर लगे थे, जो दिन में भी हटाए नहीं जाते थे कि कहीं कोई नया मेहमान उनकी जगह न घेर ले। सबके सिरहाने सुराहियां और चांदी के गिलासों के अलावा ढेर सी गठरियां रखीं थीं, जिनमें कपड़े-लत्ते और मठरियां-लड्डु आदि एक साथ भरे होते।  

‘सुणो जी, म्हारा बु ओर बेटा रो बियाव हिन्दु कांण कायदे से करणो चाऊं।’ शीलवति की अपनी एक अलग ही दुनिया थी। वह चाहती थी कि उसके बेटे-बहु का विवाह हिन्दु तरीसे से हो। कैरेन और हरि के विदेशी विवाह के फ़ोटोज़ देखते हुए मियां-बीवी सोच रहे थे कि सूटेड बूटेड हैंडसम बेटे के साथ एक सूती सफेद फ़्राक पहने कैरेन कैसी फीकी लग रही थी। उनका अनुमान था कि कैरेन के मां-बाप बेचारे ग़रीब होंगें तभी तो कैरेन के कान नाक और गला सूने थे।

‘हां हां कियुं कोनी पर पेली चांद सु तो पाछो आबा दे।’ बद्रीनारायन के पेट में भी गुदगुदी हुई पर अभी वह चांद की सैर की तैय्यारी में लगे थे। 

‘चोखो थे, चांद सुं पाछां आ जाओ, मुं अठै तियारिया चालु करूं।’ शीलवति ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था; अपने इकलौते बेटे का विवाह वह ऐसे राजसी ढंग से करेगी कि लोग मुंह में उंगली दबाए बस देखते रह जाएंगे। बद्रीनारायण को लगा कि अब समय आ गया था कि तिजोरी का मुंह पूरी तरह से खोल ही दिया जाए।

सास-ससुर और पति को रिझाने के लिए कैरेन भी बिल्कुल भारतीय बहुओं जैसा व्यवहार कर रही थी; अपने सुनहरी बालों को दो चोटियों में गुन्धवाए और कान के ऊपर एक बड़ा सा फूल लगाए वह बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी। शीलवति को फ़िक्र थी कि कहीं लुगाइयां उसकी गोरी बहु को नज़र न लगा दें। वह कभी कैरेन के कान के पीछे काजल लगा देती तो कभी लाल मिर्चों से उसकी नज़र उतारती; कैरेन खांसते खांसते ललमुही बन्दरिया जैसी दिखने लगती।  

‘होर कोनी, कैसी सुन्दर चिकनी बु लाया है हमारा बेटा।’ गोदाम से मिश्रानी जी को दाल-चावल निकाल कर देने के लिए जाती हुई शीलवति ने देखा कि हवेली के सारे प्राणी भौंचक्के खड़े थे। आंगन में जांघिया और बनियान पहने कैरेन हरि के साथ टैनिस खेल रही थी। बद्रीनारायण भी कौतुहलपूर्वक बहु की गोरी चिकनी और सुडौल टांगों को निहार रहे थे। शीलवती को देखते ही उन्होंने नज़रें फिरा लीं। 

‘हे रामजी, नौकरां ने तो कईं देखना वास्ते आड़ी देओला थें, ख़ुद ही उघाड़ी बिन्दनी ने बाका फाड़ ने देख फिया हो। आ किरनबाई जी तो अपाणे खानदान रो नाम डूबोवेला।’

‘तो पछे वा कईं घाघरो पेर टेनिस रमेला?’ बद्रीनारायण ने दबी ज़ुबान में पत्नी से पूछा। हरिनारायण तो मां की बात समझने को ही तैय्यार नहीं था पर कैरेन झट मान गई कि आगे से वह हवेली के अन्दर सावधानी बरतेगी। हरि उसे एक आधुनिक जिम में ले गया जहां जोधपुर के महाराजा स्वयं व्यायाम करने आते थे; जहां युवतियों की स्कर्ट्स कैरेन की स्कर्ट से कहीं छोटी थीं। 

नारायण परिवार को विदा करने के लिए लोग ऐसे चले आ रहे थे कि जैसे शायद फिर उनसे मिलना हो कि नहीं। हवेली के आस पास के सारे होटल और सराय तक भर चुके थे। चांद से परिवार के सही-सलामत लौट आने के लिए शीलवति ने रामायण का अखंड पाठ रखवाया था। बद्रीनारायन की बहन, धनवति अपने पति, सास ससुर और पांच बच्चों के साथ भाभी की छाती पर मूंग दलने आ बैठी थी। धनवति ने आते ही शीलवति को ही नहीं, पूरी हवेली को सम्भाल लिया था। दो बावर्ची रसोईघर में दिन रात चाय नाश्ते और भोजन बनाने में लगे थे। आंगन में औरतें सब्ज़ियां काट रही थीं; दाल और चावल बीन रही थीं, पापड़ बना रही थीं, मंगोड़ी तोड़ रही थीं। बिल्कुल शादी का सा माहौल था। हरि के ब्याह में जो न हो सका, वह सब अब हो रहा था। शीलवति प्रसन्न थीं।   

दिन रात भोंपुओं पर धनवति और उसका पति, जिनका व्यवसाय ही भजन कीर्तन करना था, अपनी फटी हुई और बेसुरी आवाज़ में रामायण के दोहे चौपाइयां गा रहे थे। जब वे भोजन अथवा आराम के लिए जाते तो अन्य रिश्तेदार, अड़ोसी और पड़ौसी भोंपू थाम लेते। ऐसा शोर था कि बद्रीनारायण दो दिन पहले ही रुड़की जाने को तैय्यार हो गए। उन्होंने हरि और कैरेन से बाद में आने को कहा किंतु वे दोनों पूरे घाघ थे; पैसा बचाने के लिए कहीं पिता उन्हें छोड़ ही न जाएं। हालांकि कैरेन को ससुराल में जो तमाशा हो रहा था, उसमें बहुत मज़ा आ रहा था पर वह भी एक दम चलने को तैय्यार हो गई। वह जानती थी कि बुढ़ऊ का मन उसे घर की औरतों के साथ छोड़ कर जाने का था। शीलवति ने बहु के लिए संतरी-फ़िरोज़ी रंग का भारी लहंगा बनवाया था, जो उसपर बेहद खिल रहा था।

‘यू कांट वियर दैट!’ परेशान हरि ने कैरेन से कहा।

‘वाए नौट?’ कैरेन ने पूछा, ‘दिस इज़ व्हाट इंडिन वीमन वियर।’ कैरेन ने चक्कर लगाते हुए पूछा। कहां कैलिफ़ोर्निया में उसे झाड़ू-पोचा लगाने, कपड़े धोने और इस्त्री करने, बर्तन मांजने और खाना बनाने से फ़ुर्सत नहीं थी और कहां मेमसाहब के इशारे पर दो दो नौकरानियां दौड़ी फिर रही थीं। अब उसे समझ आया कि अमेरिका में हरि कभी उसकी मदद क्यों नहीं करता था; उसने कभी काम किया हो तो जाने। यहां तो उसे कपड़े पहनाने के लिए भी एक नौकरानी थी।      

‘प्राची वाला कियो है कि म्है लोग कांई बी पेर सकां।’ सुनहरी अचकन और सतरंगी साफ़ा पहने बद्रीनारायण ने बहु का साथ दिया, ‘बिमाने बी थोड़ पड़े कि बीकानेरी सेठां री बुह है।’  

‘दे टोल्ड अस टु वियर समथिंग कमफ़र्टेबल।’ हरि ने कंधे उचकाते हुए कहा। उस भड़कीले माहौल में ट्रैकसूट पहने हरि बड़ा अजीब लग रहा था।

‘आइ एम वेरी कमफ़र्टेबल।’ जब उसने देखा कि कैरेन और पिता नहीं मान रहे तो उसने भी अमेरिकन स्टाइल की स्मार्ट पैंट और कमीज़ पहन ली। एक मन तो हुआ था उसका भी कि वह भी कुछ रौबीले कपड़े पहने पर अब वह उन्हें टोक जो चुका था।  

बद्रीनारायण की कार के पीछे हुजूम के हुजूम चले आ रहे थे। रंग बिरंगे परिधान पहने और लम्बे घूंघट निकाले, सिर पर कांसे की गगरियां उठाए लुगाइयां कार के साथ-साथ गाती हुई चल रही थीं।

‘चांद से लइओ सैय्यां चान्दनी रे सैय्यां बान्धनी! रेशम की चूनर लइयो, चान्दी का झूमर लइओ, चान्दनी रे सैय्यां।’ चांद की सैर पर युवतियों ने अच्छे ख़ासे गीत गढ़ लिए थे। गाढ़े रंग के कलफ़ लगे साफ़ों में मर्द और रंग-बिरंगे लहराते हुए घाघरों में लिपटी लुगाइयां घूमर, चारी, भवाई, तेरह-ताली, कलबलैय्या, चकरी और घूमर नाच गा रहे थे। हवा में  फ़िर्कियां चलाते बच्चे चहकते हुए इधर से उधर दौड़ लगा रहे थे। राजस्थान के प्रतिष्ठित पत्रकार हवेली के इर्द-गिर्द जमा थे। जहां देखो दूरदर्शन वालों की गाड़ियां खड़ी थीं और उनके नज़दीक तम्बु तने थे।

‘चन्दा कठै है मैं चन्दा से पूछूली, चन्दा की किरणां न म्हारो चोटी में गूंथूली,’ धनवति क्यों पीछे रहती, उसने भी एक अच्छा गीत रचा था पर किसी ने उसका साथ न दिया, इस मौज मस्ती के समारोह में विरह गीत का भला क्या काम?

‘स्टौप टेकिंग पिक्चर्स।’ हरि ने कैरेन का कैमरा छीन लिया, ‘यू विल एग्ज़ौस्ट दि डैम्न मैमरी; कीप इट फ़ौर दि मून।’  

‘दिस इज़ सो ब्यूटिफ़ुल हरि, वी कैन बाइ मोर मैमरी ऐट प्राची सैंटर।’ हरि से कैमरा वापिस लेकर कैरेन फिर शुरु हो गई। इतना मज़ा तो उसे जीवन में कभी नहीं आया था। सबकी निगाहें चांद की सैर पर निकले नारायण परिवार के तीन सदस्यों पर या कहें कि कैरेन पर केन्द्रित थीं। पूरा शहर एक मेले में तबदील हो गया था, जो कार के साथ-साथ स्टेशन तक जा पहुंचा था। आठ बजे लिंक एक्स्प्रैस के रुड़की रवाना होने के बाद नाचते गाते लोग हवेली लौट आए।  

उन लोगों के चले जाने के बाद शीलवति सैलिब्रिटि बन गई। टी वी और अख़बार वाले उसके साक्षात्कार ले रहे थे और शीलवति के सिर पर चढ़ी धनवति उन्हें बता रही थी कि वह क्या कहें और क्या न कहें।

‘मन्हे पतो है’ या ‘मनै पतो कोनी?’ शीलवति के बार-बार धकियाने के बावजूद धनवति का चौखटा कैमरे की परिधि से एक बार भी बाहर नहीं निकला।  

अगली सुबह क़रीब दस बजे के क़रीब चांद की सैर को निकली सवारियां सही सलामत रुड़की पहुंच गए। बद्रीनारायण ने भारतीय प्रौद्योगिकि संस्थान, रुड़की, से सिविल एनजीनियरिंग की थी। उनके कालेज की इमारत प्रभावशाली हुआ करती थी किंतु स्टेशन से बाहर निकले तो वह बौखला ही तो गए। लास-वेगास की तस्वीरें देखी थीं। कहीं वह सपना तो नहीं देख रहे थे? क़ैरेन और हरि की भी हालत कुछ-कुछ बद्रीनारायण से मिल रही थी। कुछ ही वर्षों में उनके जाने-पहचाने कस्बे रुड़की को यह क्या हो गया था? एक सफ़ेद लिमोज़ीन के बाहर सैल्यूट देता हुआ एक गोरा ड्राइवर दरवाज़ा खोले उनके इंतज़ार में खड़ा था। अन्दर गुदगुदे सोफ़ों पर बैठते ही ख़ूबसूरत गिलासों में उन्हें शैम्पेन पेश की गई। वातावरण में हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी का मीठा स्वर गूंज रहा था। उन्हें लगा कि बहुत जल्दी ही वे अपनी मंज़िल पर पहुंच गए हों। बाप बेटे के बीच सजी-धजी कैरेन पत्रकारों के लिए एक ‘पर्फ़ैक्ट पिक्चर’ थी। खटाखट फ़ोटोज़ लिए जा रहे थे।

प्राची स्पेस सैंटर को देखने के बाद बद्रीनारायण को लगा कि जीवन में उन्होंने अब तक केवल भाड़ झोंकी। हरि और कैरेन ने भी सोचा कि वह अमेरिका में अब तक क्या ख़ाक छानते रहे। रात और दिन में फ़र्क करना कठिन था। थर्ड-वर्ड-कंट्री का एक अदना सा नगर, रुड़की, स्विट्ज़र्लैंड या पैरिस जैसे किसी भी पौश शहर से मुकाबला कर रहा था।

प्राची स्पेस सैंटर में चौबीस घंटे सुहावनी शाम पसरी रहती। जलते बुझते सैंकड़ो बल्ब, संगीत, नृत्य, कम्प्यूटर जैनरेटड पर्छाइयां और जुआ-मशीनें जो पैसे निगलती चली जाती; कभी कभार सिक्कों की छनछनाहट सुनाई देती तो पर्यटकों की मुंडियां उसी ओर घूम जातीं। कहीं स्टारट्रैक जैसे सीरियल्स पर आधारित स्पेस स्टेशन्स बने हुए थे तो कहीं पैरिस की आएफ़िल टवर खड़ी थी; कहीं रोम का कोलौसियम खड़ा था तो कहीं वरोना शहर का वो मुहल्ला बसा दिया गया था; जहां युवतियां जूलियट के छज्जे पर खड़ी इतरा रही थीं और युवक नीचे खड़े दीवार पर चढ़ी बेलों को पकड़े उनसे प्यार का इज़हार कर रहे थे। फ़ोटोग्रैफ़र्स की तो चांदी ही चांदी थी। नोटों की गड्डियाँ एक जेब से दूसरी जेब में जा रही थीं। जहाजनुमां कारों से सड़कें भरी थीं जो दुनिया से आए पर्यटकों को इधर से उधर घुमाती फिरतीं। पूरा शहर एक बड़े धन्धे में तबदील हो गया था। दुनिया भर से आए यात्री चुन्धियाई आंखों से भारत की ख़ुशहाली से रश्क कर रहे थे।

जिन लोगों ने चांद पर ज़मीन ख़रीद रखी थी, वे चाहे चांद पर न जा पाएं, प्राची स्पेस सैंटर ज़रूर आते थे, जहां कम्प्यूटर के ज़रिए उन्हें उनकी ज़मीन की तस्वीरें दिखाई जातीं और भावातिरेक में लोग आंसु बहाते और उन्हें आंसु बहाते देख, बहुत से अन्य यात्री भी अपने दिल और पर्स खोल कर रख देते कि ये धन किसी के साथ तो जाएगा नहीं। चांद में ज़मीन की कोई कमी तो थी नहीं। अभी तक चाहे वहां केवल एक होटल ही खुला था, न जाने कितने होटलों और फ़्लैटों की रूप-रेखाएं प्राची स्पेस सैंटर की दीवारों पर सुसज्जित थीं, जिन्हें देखकर लोगों के मुंह में पानी भर आता। आंखें बन्द करके पत्नियां और बच्चे उन नक्शों पर कहीं उंगली रखकर अपने फ़्लैटस का चुनाव करते हुए दिखाई दे रहे थे।

प्राची स्पेस सैंटर सैंकड़ों पर्यटकों से दिन और रात भरा रहता था। उनमें से कुछ बिरले ही चांद की सैर के टिकेट ख़रीदने की हिम्मत रखते थे। बाकी के तो अपनी जेब के मुताबिक सस्ते महंगे संस्मरण खरीद कर दिल बहला लेते; टीशर्टस, सिगरेट-लाइटर्स, चाय की प्यालियां, तश्तरियां, चप्पलें, मैग्नेट्स आदि कितनी ही वस्तुओं से दुकानें भरी थीं। चांद से लाए गए पत्थर, मिट्टी और धूल तक बिक रही थी। यहां भी विदेशी बहुत थे, जिन्हें भविष्य की फ़िक्र नहीं होती; बेचारे भारतीय लोग, जो एक मुश्त पैसा ख़र्च नहीं कर सकते थे, शहर में खुले हुए ढेरों जुआघरों में पैसा उड़ाते, होटलों की बहार देखते, नग्न औरतों के शोज़ देखकर ही ख़ुश हो लेते। ऐसे पर्यटकों को मूठने के लिए यहां बहुत कुछ था। जब तक जेबें ख़ाली नहीं हो जातीं, ये लोग टिके रहते, फिर आहें भरते हुए घर लौट जाते; औरों को बताते उस स्वर्ग की बात जहां से वे होकर आ रहे थे; जो सुनता वही प्राची स्पेस सैंटर तैय्यार हो जाता और इस तरह भीड़ बढ़ती ही चली जा रही थी।

प्राची स्पेस सैंटर के सस्ते से सस्ते होटल में दो रातें रुकने का मतलब था दो लाख रुपयों की चपत पर क्या मज़ा आ रहा था नारायण परिवार को। हरि और कैरेन जानते थे कि पैसा कैसे ख़र्च किया जाता है; वो भी दूसरों का यानि बद्रीनारायण का, जिन्हें ख़ुद लग रहा था कि जैसे वह आज़ाद हो गए हों। न पैसे की फ़िक्र, न घर की। बस आनन्द ही आनन्द!  

‘बापु, लुक।’ कहकर कैरेन ससुर का हाथ जब तब पकड़ लेती और उन्हें कुछ न कुछ दिखाती रहती थी। पहले पहल तो बद्रीनारायण झेंपे, फिर वह भी खुल गए। फिर तो कैरेन और ससुर के बीच ‘लुक, लुक, लुक,’ होने लगी। रात के दो या तीन बजे वे अपने स्वर्ग जैसे निवास लग्ज़र में पहुंचते और नर्म-नर्म गद्दों पर लुढ़क जाते। जीवन में पहली बार बद्रीनारायण को न तो शीलवति की ज़रूरत महसूस हुई और न ही उन्हें व्यवसाय के बारे में कोई चिंता। उन्होंने मन ही मन सोच लिया था कि वापिस लौटने के बाद भी वह मौज मस्ती के लिए समय अवश्य निकालेंगे। पन्द्र साल की उम्र से लेकर अब तक जब कि वह पचास के होने को आए, बहुत रगड़ लिए जबकि हरि को देखो जब से पैदा हुआ था, छोकरा उनके गाढ़े पसीने की कमाई पर मज़े ही कर रहा था।

‘ओ माई डार्लिंग आई सो सो लाइक इट हियर; प्राची इज़ ए ब्यूटिफ़ुल नेम, डोंट यू थिंक, हरि।’ कैरेन ने अंगड़ाई लेते हुए हरि की आंखों में झांका। शैम्पेन का ख़ुमार उन दोनों पर चढ़ रहा था।

‘येस डियर, आइ काल दिस लाइफ़; ब्रिलिऐंट, आए कैन स्टे हियर फ़ौर एवर।’ हरि के हर्ष का कोई ओर-छोर न था।

‘इफ़ आई एवर हैड ए डौटर, आइ विल नेम हर प्राची।’ कैरेन ने एलान किया।

‘एंड इफ़ इट्स ए ब्वौय?’ हरि ने पूछा।

‘वेल देन, वी विल नेम हिम पुरु।’ हरि के इस प्रश्न के लिए कैरेन मानो तैय्यार ही बैठी थी।

‘दैट्स नाइज़ टू। वी कैन गैट ए लौट औफ़ पबलिसिटि फ़ौर दिस।’ हरि को इन नाज़ुक क्षणों में भी आत्म-प्रचार की पड़ी थी।

‘एण्ड रिमैम्बर, दिस इज़ माइ आइडिया।’ कैरेन ने हरि को सावधान किया। वह जानती थी कि पत्रकारों के आते ही हरि उसके आगे आ खड़ा होगा।

तीसरी सुबह, एक पतली और लम्बी सुरंग जैसे एक कैपसूल, जिसका नाम प्रजापति था, के अन्दर इन तीनों सहित दस अन्य यात्रियों को ले जाया गया, जिनमें तीन वैज्ञानिक भी थे; संसार के जाने माने वैज्ञानिक प्राची सैंटर के लिए मुफ़्त रिसर्च कर रहे थे कि एक दिन उन्हें चांद पर जाने का मौका दिया जाएगा। प्रत्येक यात्री के लिए रेल जैसे दो-टायर के बिस्तर लगे हुए थे, जिन पर लिटाकर उन्हें स्ट्रैप्स से बांध दिया गया। खाने के कैपसूल्स और संतरे की गोलियां उनके दायें और बाएं कन्धों पर स्ट्रैप्स से बंधी थीं ताकि भूख अथवा प्यास लगने पर यात्री इन्हें आसानी से मुंह में डाल सकें। पूरे बारह घंटों का सफ़र था। कैरेन और हरि लगातार बुड़बुड़ा रहे थे कि चांद की यात्रा का क्या फ़ायदा हुआ जब उन्हें भारहीनता का भी अनुभव नहीं हुआ; वे तो हवा में लहराना चाहते थे जैसा कि उन्होंने फ़िल्मों में देखा था।

वैज्ञानिक आपस में पेचीदा बातें कर रहे थे जैसे कि चांद की ज़मीन पर गुरुत्वीय आवेग पृथ्वी से क्षीण होने के कारण इंटरप्लैनेटरी ट्रांसपोर्ट वहिकल का मंगल और बृहस्पति जैसे ग्रहों पर रुकते हुए चांद पर पहुंचने में अधिक ख़र्चा नहीं होना चाहिए।

‘चौन्द रे साथै साथै मंगल री सैर भी फौघट में हू जाती।’ बद्रीनारायण ने हरि से कहा। वैज्ञानिकों की बातों से लग रहा था कि जल्दी ही चांद की सैर पर जाने वाले यात्रियों को मंगल की सैर मुफ़्त में कराई जाएगी, ‘बाई वन गेट वन फ़्री’। 

‘बापुजी, काल कुंण देख्यो है?’ हरिनारायण अपनी बात पर ही डटा था। 

मधुमेह के रोगियों अथवा उन यात्रियों को जिन्हें बार-बार पेशाब आने की बीमारी थी, डिसपोज़ेबल-नैपीज़ दी गई थीं। हरि के मना करने पर भी कैरेन संतरे की गोलियां चबाए चली जा रही थी, जो मुंह में जाते ही मीठे और ठंडे पानी में परिवर्तित हो जाती थीं। उनके गाइड वीरेन्द्र अस्थाना ने उन्हें हिदायत दी थी कि एहतियात न बरतने पर उन्हें अतिरिक्त गोलियों के लिए पांच-पांच हज़ार रुपये देने पड़ेंगे किंतु कैरेन का इसकी कोई फ़िक्र नहीं थी; बोरियत से उसका दम घुट रहा था।

‘एटला जाजा पैसा खर्च करि ने पण भूख्य रहियु पड़े छे।’ बद्रीनारायण को दाल-बाटी-चूरमा की याद आ रही थी; गोलियों से कहीं पेट भरता है?  

जल्दी ही कैरेन को पेशाब आने लगा। जब उससे नहीं रहा गया तो उसने अपने पोतड़े में मूत दिया; उसके बाद तो उसकी बेचैनी और बढ़ गई। बच्चा तो थी नहीं कि पेशाब में भीगी पड़ी रहती। उसे लगा कि जैसे वह एक भयानक सपना देख रही थी। काश कि वे उसे ज़बरदस्ती बीकानेर में ही छोड़ आते।

तभी घोषणा हुई कि प्रजापति चांद पर लैंड कर चुका था।

‘कठई प्राची वाला अपां नै उल्लु तो कोनी बना रिया है, की कोया न भी जार कै देवे कि ओ ही चांद है।’ कैरेन के अविश्वास पर बद्रीनारायण से भी नहीं रहा गया। वह पूछ ही बैठे, ‘झटको ही कौनी लागेयो और ठा ही कौनी पडियो कि चौन्द माते ही पूगगा?’

‘अपाणे साथे अमरीका रो मोटो वैज्ञानिक भी सफ़र माते चाल रियो है।’ हरि ने पिता को विश्वास दिलाना चाहा पर उनके पेट में खलबली मच हुई थी; यह कैसा सफ़र था, जिसमें कुछ महसूस ही नहीं हुआ? क्या करोड़ों रुपये उन्होंने खट्टी-मीठी गोलियों और भूखा-प्यासा रहने के लिए ख़र्च किए थे? उन्हें एक बार फिर अफ़सोस हुआ कि वह क्यों फिर हरि की बातों में आ गए।  

पारदर्शक ग़ुब्बारे पुरु में बैठकर दस मिनट तक धपधपाते हुए और हिचकोले खाते हुए वे ऊबड़ खाबड़ गड्ढों भरे रेगिस्तान को देखा किए पर देखने को कुछ हो तब ना।

‘आइ ऐम बोर्ड।’ कैरन अलग बड़बड़ाए जा रही थी।

‘शट अप, हू आस्क्ड यू टु कम?’ हरि चिल्लाया, वह ख़ुद ही परेशान था।

‘डिड वी गिव ए मिलियन ईच टु सी दिस रिडिकुलस डैज़र्ट?’ कैरन ने ससुर से पूछा; चांद से लौटना आसान होता तो अब तक वह पैर पटकती चल निकलती।

बद्रीनारायण मातम मनाने लगे कि इतने पैसों में तो पूरे राजस्थान में हरियाली लाई जा सकती थी। इससे ज़्यादा मज़ा तो प्राची में ही आ रहा था। कम से कम लोग उनसे रश्क कर रहे थे। चांद कितना ख़ूबसूरत दिखाई दे रहा था धरती पर। काश कि कोई उन्हें बता देता कि यह सफ़र कितना दुखदाई था और फिर देखने को कुछ भी तो नहीं; प्राची स्पेस सैंटर देखकर ही लौट जाते तो कितना अच्छा होता?  

‘कईं हुयो? ‘सू थ्यू?’ उधर बीकानेर में कोई भी फ़ोन बजता तो पचासियों कान और आंखें शीलवती की ओर घूम जातीं। मायूस शीलवति एक बार फिर ब्रह्मा जी को मनाने में लग जातीं। धनवति रिश्तेदारों को समझा रही थी कि चांद से पृथ्वी पर फ़ोन नहीं किया सकता।

‘चांद ऊपर जई सकिए छे तो फ़ोन केम नथि कर सकता?’ वे हैरानी में पूछते। हरिनारायण और कैरेन दोनों अपने मोबाइल्स लेकर गए थे किंतु प्राची के अधिकारियों ने उनके अन्य सामान के साथ उन्हें भी लौकर्स में रख दिया था।

चांद पर खुले एकमात्र सात सितारा होटल, मानक, उन्हें एक रात के लिए ठहराया गया था। ये किसी की समझ में नहीं आया कि सात सितारों का क्या मतलब हो सकता था। पुरु की तरह मानक भी पारदर्शी था; ऐसा लग रहा था कि जैसे उन्हें एक बुलबुले में कैद कर दिया गया हो। मानक के एक भाग में दो वैज्ञानिकों के रहने और अनुसन्धान करने की व्यवस्था थी, जिनमें से एक वैज्ञानिक हर हफ़्ते बदलता था। खाने के लिए सिर्फ़ सलाद, फल और काष्ठफल थे; प्राची अधिकारी का सुझाव था कि यात्रियों को हल्का-फुल्का खाकर जल्दी सो जाना चाहिए ताकि अगली सुबह का सफ़र आरामदायक रहे; हल्के फुल्के से उसका आशय यह था कि लोग सुबह-सुबह टट्टियाने न लगें। चांद पर किसी भी तरह का कूड़ा-करकट छोड़ना निषिद्ध था; सारा का सारा कचरा प्रजापति में ढोकर वापिस धरती पर ले जाना पड़ता था।

फलों के जूस के अलावा शैम्पेन का भी इंतज़ाम था। कैरेन और हरि ने अपनी निराशा शैम्पेन में डुबो दी। कैरेन के आग्रह पर बद्रीनारायण ने भी दो गिलास गटक लिए और फिर झट जाकर सो गए। बाकी सबकी चैं-चैं से दुखी वीरेन्द्र अस्थाना ने बाकी के लोगों को भी सोने की गोलियां बांट दीं थीं।

नींद के ख़ुमार में कब कैपसूल हरती पर लैंड किया किसी को पता ही नहीं चला। वीरेन्द्र अस्थाना ने जब स्ट्रैप्स के बटन दबाकर  उन्हें थपथपाया तो नींद की घुमेरी में वे उठ बैठे। सबके मुंह लटके हुए थे। आते समय की उत्सुकता, उत्कंठा और आतुरता सब ग़ायब थीं।

जैसे ही यात्री कैपसूल से बाहर निकले, कैमरों की चकाचौंध से उनकी आंखें चुन्धिया गईं; धूप निकलने पर जैसे सूरजमुखी खिल उठे हों। कैरेन ने झट से होंठों पर लिपस्टिक लगाई, हरि ने अपने अपने बाल संवारे और बद्रीनारायण ने सिर पर अपना सतरंगा साफ़ा रख लिया। लहंगा-चोली पहने हुए कैरेन की कमर में हाथ डाले हरिनारायण यूं मुस्कुराया कि जैसे पत्रकार उसी के इंतज़ार में खड़े थे। कैरेन, जो चंद मिनट पहले अपने को दुनिया की सबसे दुखियारी युवति का ख़िताब दे चुकी थी, पति और ससुर के आगे खड़ी दांत फाड़े पत्रकारों को पोज़ पर पोज़ परोस रही थी।

प्राची स्पेस सैंटर वालों ने कैरेन, हरि और बद्रीनारायण के इश्तेहार फटाफट निकलवा डाले जो अगली सुबह पूरी रुड़की की सड़कों पर लहरा रहे थे। हर दस मिनट के अंतराल पर टेलिविज़न पर उनके इश्तेहार दिखाये जा रहे थे। रेडियो और टी वी पर बद्रीनारायण की हिन्दी में और कैरेन और हरि की अंग्रेज़ी में बातचीत सुनवाई/दिखाई जा रही थी। यह एक ऐसा आदर्श परिवार था जिनकी चांद की सैर के बल पर प्राची सैंटर करोड़ों डौलर्स खड़े करने वाला था।    

एक अमेरिकन टेलिविज़न कम्पनी, इनफ़ोकस, ने भी नारायण परिवार को भुनाने की ठानी; एक फिल्म बनाने की एवज में पचास लाख डौलर्स मिल रहे थे। बद्रीनारायण कैसे मना करते? इनफ़ोकस के कैमरामेन उन तीनों के बाथरूम जाने तक को रिकार्ड कर रहे थे। बद्रीनारायण की हुंडी खाली होते-होते यकायक फिर भरने लगी; क्या सौदा था? उन्होंने प्रण किया कि बीकानेर पहुंचते ही वह ब्रह्मा जी पर सोने का मुकुट चढ़ाएंगे।

बीकानेर लौटे तो उनकी आंखें फटी की फटी रह गईं; कैसा भव्य स्वागत हुआ तीनों का और इन्फ़ोकस कम्पनी वालों का भी, जो अपने सौभाग्य पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे। उनकी ऐसी ख़ातिर हो रही थी कि कैमरे-वैमरे छोड़कर वे मस्ती में डूब गए। यह तो कहो कि हरि और कैरेन सावधान थे। समय का फ़ायदा न उठाया गया तो कल तक यह ख़बर बासी हो जाएगी। दस ही दिन में दूसरी फ़्लाइट जाने वाली थी; वे लोग लौटेंगे तो उन्हें कौन घास डालेगा?  

चारों तरफ़ बद्रीनारायण की वाह-वाह हो रही थी। बड़े-बड़े रईस उनकी बैठक में टिके थे कि समय मिले तो वे उनसे चांद की सैर के बारे में जानकारी लें पर उन्हें तो सांस लेने की भी फ़ुर्सत नहीं थी। प्राची स्पेस सैंटर वाले किस मर्ज़ की दवा थे? उनके दुभाषिए खटाखट अग्रिम पेशगी इकट्ठी कर रहे थे; बस कुछ ही सीट्स तो बची थीं!  

माथे पर बोरला लगाए और दांतों में पल्ला दबाए शीलवति शरमा-शरमा के कैमरामैन लैरी को बता रही थी कि वह क्यों पति के साथ न जा सकी, ‘औरतां रो चौन्द माते  कईं काम? घर री रुखाल कुण करेला?’ शीलवति पर जवानी लौट आई थी। बद्रीनारायण का दिल भी मचल उठा।

अख़बारों के मुख्य-पृष्ठ नारायण परिवार के चित्रों से भरे थे। उनकी गाय भैंसे, बकरियां और नौकर-चाकर तक के चित्र छपे थे। काम-धाम छोड़कर पूरा बीकानेर टेलिविज़न देख रहा था। धनवति दुखी थी; वह अपनी पूरी सज-धज में थी पर न जाने क्यों लैरी उसे छोड़कर किसी को भी पकड़ लेता था। सच तो यह था कि धनवति के लगातार घूरने की वजह से वह घबरा गया था।

पति और बच्चों के सही सलामत लौट आने पर शीलवति ने फिर से अखंड पाठ शुरु करवा दिया था। कानों में रुई डाले कैमरा-क्रू अब धनवति की चीख़-पुकार को रिकार्ड कर रहा था। मन्दिर, मस्ज़िद और गुरुद्वारों में नारायण परिवार के सही-सलामत लौट आने पर विशेष कार्यक्रम को रहे थे। शहर के जाने-माने राजनीतिज्ञ भारी-भरकम फूलों के हार लिए चले आ रहे थे। पूरा बीकानेर मानों एक शानदार और बड़े जलसे में बदल गया था। रात-रात भर जागकर फूल वाले हार और स्कूल के बच्चे झंडियां बना रहे थे, स्कूल बंद थे।  

नारायण परिवार का तो जीवन ही बदल गया था। दस महीने के भीतर ही कैरेन ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम उन्होंने पुरु रखा और उसके एक महीने के बाद ही शीलवति ने एक कन्या को जन्म दिया, जिसका नाम प्राची रखा गया। दोनों बच्चों को गोद में लिए मुस्कुराते और चहकते हुए ये दो जोड़े प्राची सैंटर वालों के लिए एक जीता जागता इश्तहार थे। बद्रीनारायण और हरिनारायण का व्यवसाय, जिसे उन्होंने प्रजापति का नाम दिया था, आसमान छू रहा था; करोड़ों का तो उन्हें ब्याज ही मिल रहा था।  

…और हरिनारायनण, उसे तो भविष्य की फ़िक्र खाए जा रही थी; प्राची और पुरु के जन्म के बाद ऐसा और क्या उपक्रम हो सकता था कि जिससे वे समाचारों की सुर्ख़ियों में सदा बने रहें?  

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