
मन की मंदाकिनी
मन की मंदाकिनी में,
जब भी लहरें उठती है भावों की,
आती जाती इन श्वासों को,
वे याद दिलाती है आहों की,
सब दिवस गये पल क्षण बनकर,
देखो तो अति चतुराई से
सब बिछड़ गये धीरे धीरे,
बस बात ही रह गई अब बातों की।
कितनी करुणा, कितनी ममता,
है भरी हुई है इस जग में,
ये फिर भी तो पर्याप्त नहीं,
अब भी तो चर्चा है घावों की,
रूठे को मना तो सकते है हम,
पर झूठे कैसे जाना जाये,
ये प्रश्न बड़ा ही दुष्कर है,
आहट भी न सुन सकें पाँवों की।
है मोद बिना जीवन रूखा,
जैसे निर्जीव खड़ा रूखा (पेड़),
जीवन मे मोद विनोद भरो,
बिसरा के सब बातें दुर्भावों की,
आओ हम जीवन निष्काम करें,
अपनी वसुधा का मान करें,
दुखिया को कुछ सुख पहुँचायें,
पिछड़ों को गति दे पाँवों की।
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– भगवत शरण श्रीवास्तव ‘शरण’