विस्मृति के द्वार: बाबा-अम्मा और मैं

दिव्या माथुर

ये संस्मरण 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत के हैं। पड़दादा और पड़दादी को मैंने केवल फ़ोटोज़ में ही देखा है पर हाँ, दादा और दादी, बुआओं और चाचाओं से जो कुछ उनसे सुना या फिर जो कुछ स्वराज चाचा द्वारा संपादित पुस्तक, ‘मता-ए-शाद’ में पढ़ा (रेख़ता की वेबसाईट पर प्रकाशित) के आधार पर न केवल मैं उन्हें अच्छे से जान सकी, अपितु उनके माध्यम से मैं अपने दादा-दादी को और अच्छे से जान पायी। मेरा पूरा बचपन उनके साये में गुज़रा किंतु जब कोई अपने बहुत नज़दीक होता है तो उसके महत्व से हम अपरिचित रह जाते हैं।  

तो आइए पहले मिलें एक प्रतिभाशाली व्यक्तित्व, मुंशी बिशन दयाल से, जो मुग़ल आर्टिस्ट, ख़ुशनवीस और शायर थे; साहित्य के साथ साथ संगीत और अदाकारी में भी गहरी रूचि रखते थे। आपने शायद ‘शाद देहलवी’ का नाम सुना हो; चाँदनी चौक-दिल्ली में उनकी एक आर्ट-गैलरी हुआ करती थी। शाद साहब के पिता और हमारे पड़दादा, मुंशी बुलाकी दास, दिल्ली के धनवान और प्रभावशाली लोगों में गिने जाते थे, वह भी चित्रकला में रूचि रखते थे, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण रसाला तज़करा-ए-आलम है जिसमें मुग़ल बादशाहों और बेग़मात के अप्राप्य रंगीन चित्र से प्रकाशित हैं। उन्होंने 1905 में सीताराम में पार्सन हिन्दू अनाथालय की भी स्थापना की। उनकी हवेली कायस्थों के गढ़ छत्ता सूफ़ी जी पीपल महादेव-हौज़ काज़ी में थी और वहीं था उनका प्रसिद्ध मेयो प्रैस, जहाँ शायरों की बहुत आवभगत होती थी। गोपी नाथ अमन तो उन्हीं के यहाँ ठहरते थे। नीचे की मंज़िल पर दीवानख़ाना था जहाँ कीमती चित्र सजे थे, वहीं मुशायरे होते थे, जिनमें जोश मलसियानी, जोश मलीहाबादी, नवाब सायल, पंडित बृजमोहन दत्तात्रेय कैफ़ी, अर्श मलसियानी, क़तील शिफ़ाई, ख़ुमार बारहबंकवी, कमर बदायुनी, मुनव्वर लखनवी, बर्क देहलवी, रौनक देहलवी, पंडित राज देहलवी, मुंशी चंद्र भान कैफ़ी, गुलज़ार देहलवी, खार देहलवी आदि नियमित रूप से भाग लेते थे। मुशायरों के अलावा, उनके दीवानख़ाने में भाषण-प्रतियोगिताएँ, साहित्यिक गोष्ठियाँ, अंताक्षरी और नाटक भी प्रस्तुत किए जाते थे। तो ऐसे वातावरण में पले बढ़े मेरे दादा मुंशी बिशन दयाल, जो खुद भी एक सर्वांगीण कलाकार थे।

तो जनाब, लुब्ब-ए-लुबाब यह कि मेरा जन्म इसी गौरवशाली परिवार में हुआ, 13 वर्ष की उम्र तक मुझे बाबा-अम्मा (दादा-दादी) ने पाला-पोसा। बाबा मुझे प्यार से ‘ग़ुल’ (फूल) कह कर पुकारते और अम्मा ‘बिट्टो’। मेरे पिता राष्ट्रपति भवन में वास्तुविद थे; उन्हें जब रीडिंग-लेन में बँगला मिला तो वह अपने परिवार सहित वहाँ रहने लगे; पर अम्मा-बाबा ने मुझे अपने पास रख लिया। चाचा और बुआ अपने पिता और माँ को बाबा और अम्मा कह कर पुकारते थे तो मैं भी उन्हें अम्मा और बाबा कहने लगी और अपने पिता-माँ को भैय्या भाभी; किसी ने टोका भी नहीं। अम्मा और बुआएं मुझे बताया करती थीं कि जब मैं पैदा हुई तो बाबा ने एक बहुत बड़ी दावत दी। मै घर में चौथी संतान थी और तीसरी बेटी; फिर भी उन्होंने बैंड-बाजे बजवाए, हिजड़े नचवाए और पकवान बँटवाए – इन्हीं सबका बखान थी वह कविता, जो मैंने शायद आठ-नौ वर्ष की उम्र में लिखी थी। एक अन्य कविता जो दादा की एक कविता ‘एक चिड़िया के बच्चे चार’ से प्रभावित हो कर लिखी थी, ‘काश कि मैं एक पंछी होती, स्वछन्द विचरती नील गगन में, काश कि मैं पेड़ों पर सोती, ठुमकती फिरती बन उपबन में।’

मुझे बहुत लाड़-प्यार से पाला गया; तेरह साल की उम्र तक मैंने कभी अपने बाल तक कभी खुद न सँवारे थे। बाबा ही बाल मेरे सँवारते और फिर चांदी का क्लिप लगा कर निहारते कि कहीं कोई कमी तो नहीं रह गई। अम्मा काजल की एक मोटी सी बिंदी मेरे माथे के बाई ओर लगा कर देतीं थीं, जिसे मैं अपने बालों में छिपाने के प्रयत्न में रहती थी। उनकी सबसे बड़ी फ़िक्र यही थी कि कहीं उनकी बिट्टों को कोई नज़र न लगा दे। अम्मा बहुत सुंदर थीं, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, कलाइयों में लाल हरी और सुनहरी चूड़ियाँ, कानों में सोने के बड़े बड़े टॉप्स, जिनके बीच में माणिक लगे थे; पाँवों में भारी पाजेब और नाक में लौंग, जिस पर अंग्रेज़ी का ‘आर’ लिखा था, जो कि उनके नाम रतन देवी का पहला अक्षर था। वह अपना सिर हमेशा ढक कर रखती थीं; उनकी तीनों बहूएं भी माथे तक पल्लू रखा करती थीं। अम्मा बहुत कम बोलती थीं; शायद इसलिए सब उनसे थोड़ी दूरी बनाए रखते थे। समय की पाबंद अम्मा को चाय या खाना मिलने में एक मिनट भी इधर से उधर हो जाता तो वह मुँह फुला कर बैठ जातीं और ऐसी स्थिति में मजाल है कि घर में कोई और खाने को मुँह तक लगा ले। बहुओं पर बड़ा रौब था उनका।

अम्मा-बाबा की राजदुलारी ‘बिट्टो’ यानी कि मैं उनकी आँखों से पल भर भी ओझल न हो सकती थी और यही कारण था कि स्कूल जाने की उम्र निकली जा रही थी और उन दोनों की ज़िद कि ‘बिट्टो को पढ़ा के क्या करना है, नौकरी करानी है क्या?’ चाचाओं व बुआओं के विरोध के बावजूद वह अड़े रहे। शुक्र है कि मेरी एक बुआ, जो मुम्बई में रहती थीं, उन्हीं दिनों शाहदरा आईं और मुझे ज़बरदस्ती एक स्थानीय स्कूल में भर्ती करवा आईं। बाबा-अम्मा की एक न चली, वे दोनों सिर्फ पुष्पा बुआ से ही घबराते थे क्योंकि एक वही थीं जो बुरे समय में उनके काम आती थीं। मैं बहुत रोई-चिल्लाई; हैरान थी कि पहली बार न बाबा का दबदबा काम आया और न ही अम्मा का मुँह फुलाना।

जिस दिन बुआ बम्बई लौटीं, उसी दिन मैं स्कूल से आँखों में आँसू भरे घर भाग आई; अम्मा ने बाबा को भड़काया; बाबा को भी मौका मिल गया अपनी भड़ास निकालने का। अपनी छड़ी घुमाते तमतमाते हुए वह मेरे स्कूल पहुँच गए; बिना मुझसे पूछे कि हुआ क्या था। आगे-आगे हेडमास्टर, पीछे-पीछे, स्कूल बंद करवाने की धमकी देते हुए सुनहरी हत्थे वाली काली चमकती छड़ी घुमाते बाबा। याद नहीं आता कि हेडमास्टर ने कैसे अपनी जान छुड़ाई थी या स्कूल बंद क्यों नहीं हुआ क्योंकि बाबा का रौब उस छोटे-से इलाके में डर की सीमा तक हावी था।

स्कूल जाने से पहले अम्मा एक रोटी पर दूध के पतीले पर जमी मोटी मलाई को बिछा बूरा  बुरक कर मुझे अपने सामने बैठ कर खिलाया करतीं थीं। ये काम वह मिश्रानी जी पर नहीं छोड़ती थी। हर शाम मलाई खा खाकर मेरे गाल कश्मीरी सेब जैसे लटक गए थे और अम्मा को सदा यही लगता कि बिट्टो पढ़-पढ़ के दुबला गई है। अम्मा के इस लाड़ दुलार के दौरान, बाबा खुद ऐसे तैयार होते मानो वह किसी ख़ास निमंत्रण के तहत राजमहल जा रहे हों। काली अचकन और सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा पहने और हाथ में सुनहरी मूठ वाली काली चमचमाती छड़ी उठाए, यह मेरे साथ शाही अंदाज में स्कूल पहुंचते। छड़ी की नोक को अपने सामने हवा में तान कर वह ज़मीन पर रखते हुए आगे बढ़ते थे। न जाने क्या था उनकी शख्सियत में, राहगीर तो क्या, बड़े-बड़े लोग हाथ बांधे खड़े रह जाते थे। समय के बड़े पाबंद थे, घंटी बजी और उनकी छड़ी स्कूल में दाखिल।

बचपन में मैं अपने पिछले जन्म के क़िस्से सुनाया करती थी; जिससे अम्मा-बाबा बड़े परेशान रहते थे। अम्मा का मानना था कि पिछले जन्म की बातें याद करना अपशकुन होता है इसलिए वे मुझे टाल जाया करते थे। हतोत्साहित होकर मैंने कुछ कहना ही बंद कर दिया पर मेरी यादें इतनी जीवंत और स्पष्ट थीं कि मैं उन्हें आज तक नहीं भूल पाई। पड़ोस में जब किसी की मृत्यु हो जाती तो मुझे स्कूल तक नहीं जाने दिया जाता था कि मुझे कहीं ठेस न लग जाए। इसके बावजूद, बच्चियों पर टोकाटाकी उन दिनों आम बात थी, उठने-बैठने, रोने-गाने, हँसने, सब पर टिप्पणियाँ, किसी की हिम्मत नहीं थी कि मुझसे सीधे कहते। ‘अच्छी बच्ची’ कहलवाने के लिए उन निर्देशों का पालन किया करती थी। पुरानी दिल्ली के हम रुतबेदार लोग थे; अदब का ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान रखा जाता था।

हमारे घर में लगभग हर रोज़ एक त्यौहार मनाया जाता था और अम्मा के लिये हर त्यौहार इतना महत्वपूर्ण था कि उस दिन मेरा स्कूल जाना उन्हें गवारा न था; तिस पर कभी बिटटो को छींक आ जाती तो कभी बिटटो के पेट में दर्द हो जाता। कई मर्तबा तो बिट्टो को स्वयं ही पता नहीं होता था कि उसके पेट में दर्द है या सिर में। मेरी बड़ी चाची, जो हरदोई से थीं, त्यौहार मनाने में अम्मा की भी गुरु थीं; जब देखो तब वह ऐपन, हल्दी, रोली और चावल के घोलों से पूरे आँगन में शानदार रंगोलियाँ बनातीं, आकार और प्रकार में परिपूर्ण, सिर्फ़ अंदाज़े से। नाग-पंचमी पर अम्मा बाबा से कोरे कागज़ के टुकड़ों पर छोटे-छोटे नाग पेंट करवा लेतीं और उन्हें हर कमरे के बाहर दोनों ओर चिपका दिया जाता। बसौड़े पर अजीब से आकार के रंग-बिरंगे पकवान एक रात पहले बना लिए जाते; जो अगले दिन पूजा के बाद बासे खाए जाते। त्योहारों से अधिक मुझे त्योहारों पर सुनाईं जाने वाली कहानियाँ बहुत पसंद थीं। कभी नागपंचमी, कभी गणगौर तो कभी करवा चौथ, अब पूछिए अम्मा से कि करवा चौथ पर बिट्टो रानी क्या करेगी? और कुछ नहीं तो हाथ पैरों में मेंहदी लगा कर वह मुझे और मेरी चाचा की बेटियों को खटोले पे लिटा देतीं, हाथों पर गिलाफ़ चढ़ा देतीं कि कहीं हम चादर या दीवारों पर चित्र न बना दें।

स्वराज्य चाचा को बाल-साहित्य और मोहन चाचा को गाने-बजाने के अलावा जासूसी उपन्यास पढ़ने का भी शौक़ था। रात को मोहन चाचा अपने सिर पर सफ़ेद चादर डाल कर हमें भूतों की कहानियाँ भी सुनाया करते थे; डर के मारे हम सब एक कोने में एक दूसरे के पीछे छिपने की कोशिश में रहते। बिम्मो बुआ आल-इंडिया रेडियो में गायिका थीं, पुष्पा बुआ कविताएं लिखा करती थीं और उषा बुआ नाच-गाने की दीवानी। दोनों वक्त मिलते तो सब पूजा घर में बाबा द्वारा रचित और संगीतबद्ध भजन और आरतियाँ गायी जातीं और फिर खाने के उपरांत शाम होते ही हमारी लंबी-बड़ी बैठक में गाना बजाना होता, अंताक्षरी खेली जाती, रंग-बिरंगे कंचे, खो-खो या कोना-कोना जैसे खेलों के मैच होते।

बाबा जब वह तस्वीर बनाने बैठते, मुझे अक्सर अपनी बायीं ओर बैठा लेते, उनका बायाँ हाथ मेरे दायें कंधे पर होता और दायाँ कैनवस पर मुगल राजदरबारों को जिलाने में लगा रहता। बीच-बीच में क्षण भर को उनका हाथ रुकता बाइस नम्बर की बीड़ी जो ऐशट्रे में सुलगी रखी रहती थी, उसके एक-दो कश लगाते व मुझे देखते जैसे मुझमें कुछ खोज रहे हों और फिर सहजता से कैनवस पर उनके खयाल उतरने लगते, अबाध। मुफ़लसी में हुक्के की जगह बाइस नम्बर की बीड़ी ने ले ली थी, मुझे जिसकी खुशबू इतनी अच्छी लगती थी कि जब भी मौका लगता, मैं उनके टुकड़ों को उठा के सूँघा करती। आज भी मुझे जब वह बीड़ी मिल जाए तो मैं उसे सुलगाती ज़रूर हूँ और तब तक सूँघती रहती हूँ जब तक वह खतम न हो जाए। सारी यादें मानो ताज़ा हो आती हैं। चित्र बनाने के दौरान घंटों हम दोनों ही न कुछ खाते‌-पीते और न ही कभी बात करते। मैं हिलती तक नहीं थी कि कहीं उनका ब्रश हिल न जाए! मुफ़लसी में उन्हें कुछ पैसों के लिए कुरआन को उर्दू और फ़ारसी में लंबे-लंबे स्क्रॉल्स पर खूबसूरत सुनहरे बॉर्डर्स के बीच अपनी ख़ुशख़ती से संवारना पड़ा, जिसके उन्हें पूरे दाम तक नहीं मिलते थे पर उन्होंने इसका ज़िक्र अपने बड़े-बड़े और निजी दोस्तों तक से नहीं किया। ग़र्दिश के दिनों में वे शाहदरा के एक बड़े मकान में आ बसे थे; जिसका नाम रखा गया ‘शाद-कौटेज’। उन दिनों वहाँ केवल इक्का दुक्का पक्के मकान थे।

मैंने पढ़ना-लिखना जल्दी ही सीख लिया था, मेरे छठे जन्मदिन पर ‘चन्दामामा’ का आजीवन सदस्य बना कर स्वराज्य चाचा ने मुझे पढ़ने की आदत डाल दी थी। चन्दामामा की कहानियां इतनी रोचक और कौतुकपूर्ण होतीं कि साँझ ढले मैं बिस्तर में घुस जाती और लैम्प की रौशनी में एक-एक कहानी को न जाने कितनी बार पढ़ती। बेताल की कहानी पढ़ते डर लगता था। साहित्य से यही मेरा पहला सम्पर्क था। गाने-नाचने से ज्यादा मुझे बाँसुरी बजाना पसंद था, जो मैंने मोहन चाचा से बजाना सीखा था। वह बहुत सुंदर और संवेदनशील गीत और ग़ज़लें गाया करते थे; उनके ‘जदों मेरी अर्थी उठा के चलनगे, मेरे यार सब हमहुमा के चलनगे’ और ‘मैं निर्गुनिया, गुण नहीं जाना, एक धनी के हाथ बिकाना’ सुन कर श्रोता भाव-विह्वल हो उठते थे। वे तबला, ढोलक, हारमोनियम और बाँसुरी भी बजाते थे, ये सभी वाद्य बजाने उन्होंने मुझे बड़े प्यार से सिखाए क्योंकि मैं भी संगीत की शौकीन थी।

बाबा की विशिष्टता का अनुसरण करने की हुड़क शायद सदा से मन में रही पर मन में ये डर हमेशा बना रहता कि मैं उस मुकाम पर शायद ही कभी पहुँच पाऊँ। एक बार बाबा ने, बिना किसी स्पष्टीकरण के, मेरा बनाया हुआ महात्मा बुद्ध का एक चित्र देखते ही फाड़ दिया। मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरी सृजनशीलता को नकार दिया गया हो। इस सदमे से मैं एक लम्बे अन्तराल के बाद भी उबर नहीं पाई। उसके बाद मैं सब कुछ छिपा कर करने लगी; मलाल मुझे सालों साल रहा। फिर एक दिन, बैठे-बैठे मुझे एहसास हुआ कि उन्होंने ऐसा किसी दुर्भाव से तो किया नहीं होगा। मैंने उनकी पेंटिंग की नक़ल की थी और वह चाहते थे कि मैं जो कुछ करूँ, उसे ओरिजिनल होना चाहिए, मैं अपनी शैली, अपना रास्ता खुद चुनूँ। तब से कोशिश रहती है कि जो भी लिखूँ अलग क़िस्म का हो, लीक से हट कर हो।

संगीत का रसिया तो हमारा पूरा परिवार ही था; ‘शाद कौटेज’ में एक हफ्ते में एक महफिल तो अवश्य जमती जिसमें जाने-माने कलाकार बुलाये जाते, नाच-गाना, शेरो-शायरी देर रात तक चलती। मेज़ों पर बड़ी बड़ी सफ़ेद चांदनियाँ बिछाई जातीं, बड़े-बड़े सफ़ेद गाव तकिए और हुक्के रखे जाते, बढ़िया विदेशी क्राकरी, कटलरी और क्रिस्टल के ग्लाससेज़ सजाए जाते। इस दावतों में कुछ अंग्रेज़ भी शरीक होते थे; जो बाबा को राय साहब कह कर पुकारते थे। जिस चीज़ की भी कोई तारीफ़ कर दे, वह उसकी हो जाती, इतने दरियादिल थे बाबा। कभी-कभी उनकी चाटुकारिता से प्रसन्न होकर बाबा उन्हें अपने आदमकद चित्र उपहार में दे दिया करते थे। मेहमाननवाज़ी का खास अंदाज़ था; उनके बनाये शामी कवाब और नरगसी कोफ़्ते, जिन्हें तोड़ते ही शोरबा बह निकलता। इन्हें बनाना भी गज़ब की नज़ाकत का काम था; आजकल तो उनमें उबला हुआ अंडा भर दिया जाता है।

1962-63 में हालात ने ऐसा रुख बदला कि अम्मा बाबा को बड़े बेमन से मुझे आगे पढ़ाने के लिए मुझे दिल्ली भेजना पड़ा जो उनके लिए ही नहीं, मेरे लिए भी बहुत पीड़ादायक था। दादा की आर्थिक दशा अत्यंत ख़राब हो चुकी थी। उन्हें अपने बहुत से आदमक़द चित्र, जिस पर सोने और चाँदी के पानी से जटिल बॉडर्स बने थे, और मुग़लों के लिए कलिग्रैफ़ी-स्क्रॉल्स वगैरह बहुत सस्ते में बेचने पड़े। वही गोरे और कुछ अपने भी, जो उन्हें राय साहब-राय साहब कहते नहीं थकते थे, उनका क़ीमती सामान और पेंटिंग्स लेकर कब के ग़ायब हो चुके थे। वह बेहद टूट चुके थे किन्तु उन्होंने मरते दम तक किसी के आगे कभी हाथ नहीं फैलाया।

घर छोड़ते वक्त मैंने अपने कोई खिलौने या पुस्तकें अपने साथ नहीं लीं, मुझे विश्वास था कि जल्दी ही मैं शाद कौटेज लौट आऊँगी। एक तांगे मे बैठ कर हम दिल्ली पहुंचे, जहां मेरा परिवार रहता था। बिरला मंदिर, काली बाड़ी व तालकटोरा उद्यान में जीवन घूमता रहा कई साल। अपनी रचनाएं अपने छः बहनों-भाइयों से बचा के रखना आसान न था, खासतौर पर बड़े भाई से, जो बचपन से ही इन्जीनियर तबियत के थे और जिनकी आंख से कोई चीज़ न बचती थी। शुरू शुरू में बाबा अम्मा को जब जब मेरी याद आती वे तांगे से आ जाते, प्यार का समंदर उड़ेलते, और लौट जाते। सात पोते-पोतियों में से एक को यदि अपार लाड़-प्यार दिया जाये तो किसे ईर्ष्या न होगी! ‘बिट्टो ने खाना खा लिया,’ ‘बिट्टो ने चाय पी ली? या ‘बिटटो के सोने का समय हो गया,’ वगैरह वगैरह। मैं भयभीत हो जाती कि भाई बहन मुझ से कहीं और न चिढ़ जाएं, कहीं पापा को कहीं गुस्सा ना आ जाए। 

पापा सूफ़ी थे, लखनऊ से पधारे उनके गुरु महाराज और उनके शिष्य हमारे घर में ही ठहरा करते थे, इन दिनों सत्संगों की मात्रा बढ़ जाती थी; और मेहमानों की भी। मेरी शक़्ल-सूरत और रंगत मेरे परिवार से अलग थी; जो सबके लिए अचरज का विषय था। घर में आने वाले मेहमान विश्वास ही नहीं करते थे कि मैं इसी परिवार का हिस्सा हूँ। ‘ये कौन है? अब तक कहाँ थी? अब क्यों आई है? श्रीवास्तव जी की बेटी जैसी तो नहीं दिखती?’ जैसी अनेकों आशंकाओं से भरी फुसफुसाहट कान में पड़ती।

मैं बहुत संवेदनशील थी। मम्मी-पापा और भाई-बहनों की चिढ़ को ख़ूब समझती थी पर अम्मा नहीं समझती थीं, न ही मैं उनसे कुछ कह सकती थी, बस यही प्रार्थना करती कि वह यहाँ ना ही आएँ तो अच्छा है। मेरे भाई बहनों में से किसी ने भी मेरे करीब आने की कोशिश नहीं की और इस तरह नए परिवार से मेरी दूरी बढ़ती चली गई। मम्मी-पापा बेहद व्यस्त रहते थे। इसका मुझ पर बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ा; मैं डरी-दबी और भी ख़ामोश रहने लगी; सख्त ज़रूरत की चीज़ों के लिए भी मैं मुंह नहीं खोलती थी; उठा लिया करती थी, जिसका ज़िक्र न मैं करती, न वे, दूरी बढ़ती चलती चली गई।

बाबा की तरह ही पापा भी पाक-कला में निपुण थे; लज़ीज़ खाना पकाते थे, विशेषतः शाम के भोजन की मुख्य डिश वही बनाया करते थे। हम बहनों का काम था घर को सजा-सँवार कर रखना, शाम को खाने की मेज़ सजाना और सलाद काटना। मुझे पेंटिंग का बहुत शौक था, कुछ न मिले तो घर के परदों और कुशन-कवर्स पर ही चित्रकारी कर दिया करती थी, फिर कढ़ाई और बुनाई का शौक चढ़ा। बड़ी बहने शिक्षिकाएं बन चुकी थीं, वे मुझे चादरें, धागे आदि ला दिया करती थी।

पिता सूफ़ी थे, व्यावहारिक भूतल पर मुझे लगता है मम्मी कहीं अधिक सूफ़ी थीं। हर सप्ताहांत पर दुनिया भर के लोग हमारे घर में इकट्ठे होते, नामी गुरु और विद्वान अपने शागिर्दों के साथ हमारे घर में नियमित रूप से ठहरते, हमारा चौका चौबीसों घंटे आबाद रहता। चकरघिन्नी सी नाचती मम्मी फिर भी हम बच्चों से कभी सहायता न लेकर हमसे सिर्फ़ पढ़ाई पर ध्यान देने को कहा करतीं। बहुत से बिन माँ के बच्चे भी हमारे यहाँ ठहरते थे, जिन्हें वह अपना समझ कर पालतीं।

स्कूल में तीन साल कब गुज़र गए, पता भी नहीं चला। पढ़ाई में मैं अव्वल तो नहीं आती थी किंतु हाँ, दूसरे तीसरे चौथे नंबर पर रहती थी; हिंदी अध्यापिका की विशेष छात्रा थी क्योंकि मुझे तुलसी, सूर और मीरा इत्यादि रटे पड़े थे, अध्यापिकाओं कि अनुपस्थिति में हम अलमारियों और मेज़ों को बजा बजा कर नाच-गाना करते, जैसे ही अध्यापिका लौटती, मेरे सिवा सबको डांट, जगजीत और जसबीर को तो वह आते ही क्लास से बाहर कर देतीं।

हायर सेकेंडरी में आर्ट और अंग्रेज़ी में मेरे नंबर बहुत अच्छे थे; मैं आगे आर्ट में बी.ए करना चाहती थी लेकिन घर वालों ने कहा कि आर्ट में क्या रखा है, बड़ी बहनों की तरह अध्यापिका बनो। मुझे सब कुछ गँवारा था सिवा अध्यापिका बनने के तो यह तय किया गया कि, क्योंकि अंग्रेज़ी में मेरे नंबर अच्छे थे, मुझे उसी में बी.ए कर लेना चाहिए।

मेरी सभी सहपाठिनें अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ी हुई थीं, उनसे बातचीत करने, उनको समझने में मुझे कठिनाई से अधिक झिझक होती थी। उन दिनों बाज़ार में अंग्रेज़ी की किताबें मिलना इतना आसान नहीं था; फिर युद्ध के कारण बाज़ार में अंग्रेज़ी की पाठयपुस्तकों की भारी कमी हो गई। एक जहाज़ जिसमें विदेश से पुस्तकें आ रही थीं, डूब गया था। तिस पर हमारी अंग्रेज़ी की सभी प्राध्यापिकाएँ फ़ौरन-रिटर्न्ड थीं, जिन्होंने कक्षा में मुझे सम्मिलित करना ज़रूरी नहीं समझा। एक नेक सहेली, अलका गुप्ता, की मदद से मैं उबर पाई। वह अपनी एक पुस्तक मुझे सप्ताहांत के लिए दे देती और मैं चौबीस घंटों में उसकी डिट्टो कॉपी कर लेती, पृष्ठ दर पृष्ठ। पहला साल तो मेरा इसी पशोपेश में गुज़र गया। सालाना परीक्षा में मेरे नंबर अच्छे आए तो सहपाठिनों और प्राध्यापिकाओं ने भी यही अंदाज़ा लगाया कि मैंने टीप के लिख लिया होगा। वे क्या जाने कि कॉपी बनाते समय मुझे किस पृष्ठ पर कौन सा शब्द कहाँ लिखा है, तक याद हो गया था।

स्कूल में जगजीत सिंह से मेरी अच्छी दोस्ती हो गई, जितनी डरपोक मैं थी, उतनी ही वह दिलेर, लड़कों तक से भिड़ जाया करती थी। उसका काम था बकबक करना और मेरा ख़ामोशी से उसे सुनना। जाने क्यों उसने जैसे मेरे जीवन का ठेका ले लिया था; स्कूल के बाद कालेज में भी हम एक साल साथ रहे। विवाह के बाद वह डैनमार्क चली गई पर जब भी दिल्ली आती, मुझे ढूँढ निकालती। मैं नहीं चाहती थी कि वह मेरे ससुराल की उस भयावह स्थिति को देखे जिसमें मैं रह रही थी पर मेरे पापा-मम्मी से पता ठिकाना पूछ कर वह मुझ तक पहुँच जाती थी; मुझे बहुत संकोच होता था। स्कूल और कॉलेज की सभी सहपाठिनों से मैं सम्बन्ध तोड़ चुकी थी।

1967 में भारत-चीन युद्ध के दौरान, जब सभी छात्राओं के लिए एन.सी.सी. में प्रशिक्षिण लेना अनिवार्य था, मैंने भी उसमें भाग लिया, शिमला में दस दिन का शिविर लगता; छात्र-छात्राओं को घर से दूर रहने का पहली बार मौका मिला, जो सभी के लिए आश्चर्यजनक था; शूटिंग में मेरा निशाना उत्तम था। पाठ्येतर गतिविधियों में अच्छी थी और शाम को होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़ कर भाग लेती थी; विशेषतः बाँसुरी बजाने पर मुझे पुरस्कार मिल जाया करते थे। युद्ध के दौरान, मैंने अपनी एक कहानी, ‘सदा सुहागिन’, कॉलेज की पत्रिका के लिए चुपचाप भेज दी, जो भारत-पाक युद्ध के समय एक गुमशुदा सैनिक के परिवार द्वारा उसकी पत्नी पर अत्याचार ढाने की कहानी है। जब वह छप गई तो मुझे हैरानी हुई कि कैसे छप गई; मेरी क्लासमेट्स ने भी उसकी तारीफ़ की।

हाँ, इसके पहले कि मैं भूल जाऊँ, 1964 की बात है, मम्मी-पापा किसी शादी में दिल्ली से बार थे। रात के करीब दस बजे, हमें लगा कि कोई सीढ़ियाँ चढ़ा रहा है, डर के मारे हम सब एक ही बिस्तर में घुस गए। बाहर का दरवाज़ा बंद था लेकिन सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ कोई हमारे शयन कक्ष के दरवाजे के बाहर आकर रुका और फिर वापिस चला गया; जैसे हमें काटो तो खून नहीं। डर के मारे हम पूरी रात जागे रहे, सुबह पापा मम्मी ने लौट कर बताया कि रात को बाबा चल बसे थे। मुझे लगा कि वह अंतिम समय में मुझसे मिलने आए थे। क्या यह संभव है?

बाबा की मृत्यु के उपरांत स्वराज चाचा ने उनकी शेरो शायरी, उनके सैंकड़ों चित्रों में से जो बचे, वे चित्र, और उनकी यादों का एक संकलन ‘माताअ-ए-शाद’ के शीर्षक से प्रकाशित किया, जो हमारे परिवार धरोहर है। इस पुस्तक में दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्रमुख प्रो सादिक़ ने दादा के बहुत से चित्रों का बख़ान बख़ूबी किया है और साथ ही साथ उनके अच्छे बुरे समय को सविस्तार प्रस्तुत किया है। वर्षों बाद जब मैं नेहरु केंद्र-लंदन में थी; इल्मी मजलिस द्वारा नेहरू केंद्र में आयोजित इस पुस्तक का लोकार्पण किया डॉ पवन के वर्मा, मंत्री (संस्कृति), भारतीय उच्चायोग-लंदन और नेहरू केंद्र के निदेशक ने, इस पुस्तक पर बेहतरीन तपसिरा पेश किया क्रिस्टीज़ के जाने-माने इतिहासकार, मूल्यांकनकर्ता और इल्मी मस्जिद के संस्थापक डॉ ज़िया शाकेब ने। विशिष्ट अतिथियों में सोहन राही, अकबर हैदराबादी, अदील सिद्दीकी, रिफत शमीम, मुस्तफा अली खान, यशाब तमन्ना, डॉ हिलाल फरीद, अकील दानिश, सिद्दीका शबनम, बासित कानपुरी और डॉ गौतम सचदेव शामिल थे।

बाबा के बाद तो अम्मा की कुछ बरस जिंदा रहीं; निहायत बेचारगी की हालत में, ज़माना तेजी से बदला, उनका रुआब जाता रहा, कोई पूछने वाला नहीं बचा, बेटे-बहूएं सब अलग थलग हो गए। आना जाना न के बराबर था, शादी-ब्याह में मिलना हो जाता, वह अब और भी खामोश हो गई थीं। आखिरी बात जब मैं उनसे मिली तो वह मुझे अपनी अंधेरी कोठरी में ले गयीं, संदूकची में से लाल कागज़ में लिपटी एक नन्हीं सी लौंग निकाल कर कहा, ‘बिटटो इसे पहले ले,’ और बस, उनकी और उनसे अंतिम भेंट। उनके जीते जी न जाने क्यों मैंने हमेशा बाबा को ही तरजीह दी, आज उनके जाने के बाद मुझे उनकी कीमत का एहसास हो रहा है। जीवन की भागा-दौड़ी में मैं खुद को भी भूल चुकी थी। उनकी खुशनुमा यादें और कुछ ऐतिहासिक चित्र पाठकों से साझा करते हुए मन उद्वेलित है, ग़मों ने मुझ पर हावी रहने की पूरी कोशिश की पर ये बाबा-अम्मा की दुआओं और बेइंतहा मोहब्बत का ही अंजाम है कि मैं टूटी नहीं। सचमुच, मैं बहुत खुशनसीब हूँ।

अंत में, बाबा के कुछ मतलए:

कान खोले सुन रहा है गुंचा-ए-फ़रज़ाना कुछ / सुबहदम गुल कह रहा है रात का अफ़साना कुछ / बेसबाती है हुवेदा देख ली / चार दिन में नब्ज़-ए-दुनिया देख ली / ताक़-ए-क़ाबा में जाम धर आये / रिन्द इतनी तो राह पर आये।  

आलूदा-ए-ग़रज़ जाओ ज़बां गर दुआ के साथ / इक सूरत-ए-मज़ाक़ है गोया ख़ुदा के साथ। 

वो मस्त ख़याल में मैं मस्त हाल में / इस तौर निभ रही है मेरी पारसा के साथ। 

‘शाद’ हैं कुछ मस्त ऐसे भी के जिनके सामने / कोई सूरत है मसर्रत की न बेज़ारी का ग़म।

बाबा की द्वारा बनाई गयी एक तस्वीर जिसमें जहाँगीर और नूरजहाँ बेशक़ीमती सफेद पोशाकों में चित्रित किये गए हैं, को देख कर कुंवर महेंद्र सिंह बेदी ने तो बरबस एक रुबाई लिख डाली थी:

तू ब्रहमन ओ शेख़ की बातों पे न जा, इस दोज़ख़ ओ जन्नत के तक़ाज़े को मिटा / रहमत को तो इक अश्क़-ए-निदामत है क़ुबूल, रहमत पे भरोसा है तो पी और पिला। 

होते हैं ‘शाद’ मिल कर पर ऐ  देखना तो यह है / इस बज़्म-ए-बेवफ़ा में सादिक़ है यार कितने।’

पड़दादा मुंशी बुलाक़ी दास और दादा मुंशी बिशन दयाल ‘शाद’,
अपने क़रीबी शायर दोस्तों के साथ।

देखा फ़क़त ग़म को नसीब का शरीक-ए-हाल / यूं तो हज़ार दोस्त रहे आशना रहे। वो जिनकी याद अक्सर शाहदरे में शाद करती है / वो अरबाब ए करम अब लुत्फ़ फ़रमाने नहीं आते।’

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