
लौट आई हूँ लन्दन
लौट आई हूँ लन्दन
छोड़ के वृन्दावन
साफ़-सुथरी पक्की सड़क पर
हरे और घने दरख्तों से घिरे
एक बेधूल और सुसज्जित घर में
जहाँ गर्मी में पसीना नहीं
न ही सर्दी में ठिठुरन
दाल-चावल में कंकड़ नहीं
किन्तु बीनती हूँ मन में सैंकड़ों कुंठाएं
डिब्बों में बंद दाल-साग की तरह
फ्रीज़ कर दी हैं
मैंने अपनी तमाम इच्छाएँ
चेहरे पर उगा ली है सपाटता
और दबा लिया है मन में क्रंदन
हाँ, मैं लौट आई हूँ लन्दन
छोड़ के वृन्दावन।
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-दिव्या माथुर