सारे अपने तारे

आकाश में तारे गिनना
सबसे पहले सात तारे गिनना
हम बहनों और सखियों का एक
खेल ही नहीं अपितु एक होड़ होती थी

उजास भरी साँझ से ही
सर ऊपर उठाए
हम तारे ढूँढ़ने लगते,
साँझ गहराती जाती
और हमें ढेर सारे तारे मिलने लगते,
एक, दो, तीन, चार, पाँच, छः और
ये रहा सातवाँ तारा,

उत्साह के साथ
अपनी सात अंगुलियाँ निकाल
सात तारे गिनते आकाश में
हमें सप्तर्षि मिलते,
घोड़े, हाथी, लम्बी पूँछ वाला पुच्छल तारा
तो हमेशा एक ही जगह स्थित
ध्रुव तारा मिलता
इन तारों को ढूँढ़ने में
एक बार नहीं कई बार
पैरों में ठेस लगी पर,
तारों को गिन आँखें चमकती रहीं
आज भी आकाश में तारे निकलते हैं

एक और सात नहीं
अगिनत निकलते हैं
इन तारों को देखने में
ठेस अब भी लगती है
परंतु पैरों में नहीं
दिल में लगती है
हर तारे में मेरे अपनों का
चेहरा नज़र आता है,
किसी तारे में माँ तो
किसी में बाबूजी नज़र आते हैं,
मेरे कई अपनों ने वहाँ
संसार बसा रखा है,
हरएक तारे में मेरे अपने नज़र आते हैं

मैं तारे अब भी गिनती हूँ पर
एक, पाँच, सात नहीं गिनती,
हर तारे का नाम धरती हूँ,
अपनी नम आँखों से
मैं तारे अब भी गिनती हूँ

*****

– वंदिता बन्दिनी

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