
सिर्फ़ एक बूँद
मुझे तो आस थी
एक बूँद की
उस बूँद की जो
मेरी आँसुओं के
खारेपन में मिठास भर दे!
आस तो स्वाति नक्षत्र के
उस बूँद की थी जो
सीप को मोतियों के उजास से भर दे!
हाँ, आस तो उस बूँद की ही थी जो
हँसते-हँसते मेरी आँखों में आ
मन को भिगो दे
बालों से टपकते हर
एक बूँद को हथेली में
सजाना चाहती थी पर,
बूँद के अस्तित्व को नकार
तुमने तो आँखों में दरिया ही दे दिया!
दरिया में डूबी मैं
उस बूँद को देखती हूँ
जो काँपते पत्ते पर बैठी
मूक! धूप को तकती है
मुझे आस है उस बूँद को
अपनी पलकों पर बिठाने की
बूँद और सिर्फ़ एक बूँद!
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– वंदिता बन्दिनी