प्रियतम तुम्हारा पत्र कितना छोटा है?

आज दिन की धूप में –
प्रियतम तुम्हारा पत्र कितना छोटा है?
इस विरह पथ पर बस एक ही सहारा था,
तुम्हारे मन की व्यथा सुनने का।
पर यह क्या?
चंद शब्दों में सिमट कर रह गया
तुम्हारा विरह रस।
आज दिन की धूप में –
प्रियतम तुम्हारा पत्र कितना छोटा है?

तड़पन का अपना ही आंनद होता है,
इस का एहसास कराओ।
चन्द्रमुख पर पीड़ा के बादल छाए हैं,
शब्दों में बतलाओ।
विरह की अग्नि जला रही है,
कह दो आँखें तरस गई हैं ।
प्यास मिलन की तड़पा रही है,
कह दो आ भी जाओ।
पर न जाने कहाँ है
मेरी कल्पना का वह लंबा पत्र?
आज दिन की धूप में –
प्रियतम तुम्हारा पत्र कितना छोटा है?

तुम्हारे पत्र पर न आँसू का छींटा है,
न काले काजल की धार।
चूम लेता उस अश्रु को,
समेट लेता उस मोती को अपने अधरों पर।
आज दिन की धूप में –
प्रियतम तुम्हारा पत्र कितना छोटा है?

हमारा पावन प्रेम केवल पत्रों के –
आदान-प्रदान तक ही सीमित नहीं रहेगा ।
यह प्रेम की पाती का सफ़र अब
शीघ्र ही हमे अपनी मंज़िल तक पहुँचाएगा ।
आशा का सवेरा लेकर
मिलन की शुभ वेला निकट आ रही है।
पर भय यह हो कि यह हमारा मिलन,
तुम्हारे पत्र की तरह भावनाहीन न हो।

मानता हूँ, सच्चा प्रेम
किसी भावना का,
किसी शब्द का,
किसी रस का मोहताज नहीं।
अधर मौन हों तो –
नयन बोलते हैं,
पर फिर भी मेरे प्रियतम,
आज दिन की धूप में –
प्रियतम तुम्हारा पत्र कितना छोटा है?

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– विद्या भूषण धर

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