
१९ जनवरी १९९०, विस्थापन दिवस
उस भयानक रात को,
मैं शामिल था उन हज़ारों विचलित आत्माओं में
जिन्हें घर से बेघर करने का
षड़यंत्र रचा गया था सरहद पार
धधकती आग से, उस धौंस भरे माहौल में
मैं मेरा अस्तित्व, मेरी आत्मा मेरा रोम-रोम
सिहरा रह था, एक नहीं कई बार
आज विस्थापन के २९ वर्ष बाद भी
जब याद आती है छोटी बहनों और
माँ की भयग्रस्त आवाज़
तो निंदियाया सा, मैं समझ न सका
क्या है उनके भय का राज़
तब माँ ने खिड़की की झिरी से
मुझे कर्कश आवाज़ें सुनवाईं,
हज़ारों लाउड स्पीकरों पर जो जा रही थीं बजाई
जो लगे थे मस्जिदों की मीनारों से,
एक नहीं हज़ारों से
वो शांति प्रिय ग़रज़ रहे थे,
बरस रहे थे, पुकार रहे थे
ए दीन वालों,
अपने घरों से निकल आओ सड़कों पर
पवित्र जिहाद का वक़्त है,
ए रसूल के मतवालों
बाहर करो इन काफ़िरों को,
कि यहाँ बनेगा पाकिस्तान
इन पंडितों के बिना,
इनकी बहू बेटियों बहनों के साथ
हम रहेंगे अपना सीना तान
हम सबने अपने कानों में अपनी
उँगलियाँ ठूँस ली
उन वहशी आवाज़ों से बचने
हम काँप रहे थे,
हमारा अस्तित्व लगा था लरजने
धार्मिक कट्टरपंथी का विषधर
फन फैला रहा था मेरी ऋषि भूमि कश्मीर में
अब यही नाग लगा था हमें डसने
उस विषधर ने ऐसा फन फैलाया,
भयानक स्याह वह रात हो गयी इतनी लम्बी
अपने ही घाट से बेघर हो गए मेरे सह धर्मावलम्बी
कहते हैं उस रात का काला साया
आज भी, विचरता है सूनी वादी में
ढूँढ़ता है उनको
जिनका हाथ था इस
नरसंहार और एक शांतिप्रिय समुदाय की बर्बादी में
उस रात की कर्कश आवाज़ें
आज भी वहशी कहकहे
गूँजते हैं हर दिशा में
काली कालिमा ले धार्मिक कट्टरवाद
आज भी जीवित है
उस ऋषि भूमि की हर भोर और निशा में।
*****
– विद्या भूषण धर