
चुप रही वितस्ता
चुप्पी उत्तर नहीं है हर प्रश्न का,
क्यों तुम बहती रही चुपचाप?
हुई एक प्रलय,
मेरी पावन ऋषि भूमि लहूलुहान हुई
निर्दोषों की, माताओं की, बहनों की
चीख़ो-पुकार से घाटी गुंजायमान हुई
पर तुम बहती रही चुपचाप?
जो थे तुम्हारे तटों पर बसे
जो थे ईश्वर की कृपा के पात्र
स्वर्ग भूमि के जो थे वासी
प्रहरी बन कर खड़े थे चीड़ और देवदार!
हुआ उसी माँ का आँचल तार-तार!
जब हम हुए अपने घरों से बेघर,
हुआ वनगमन का आदेश
हुए रिफ्यूजी अपने ही देश
आज २९ वर्ष बाद भी बैठे हैं
निसहाय दिशाहीन
कहा था श्री कृष्ण ने,
होगी जब-जब धरा पर पाप लीला
आऊँगा मैं तुम्हारा उद्धार करने
अवतार बन कर
पर न आए प्रभु; वस्तुत:
महाभारत में आने का था प्रण
इस भारत के आस टूट रही है क्षण-क्षण
न आए श्री राम न गौतम बुद्ध
हे माँ वितस्ता अब बन जा तू ही धार गंगा की
बह निकल गंगाधर की जटाओं से
उठा ले शंख और त्रिशूल
रचा ले तांडव फिर से एक बार
बुझा ले आतंक की विकराल अग्नि को
पवन कर ले महाराज्ञी,
ऋषियों की, संतों की तपो भूमि को
माँ सुन ले प्रार्थना हमारी
न कर अब देर हुआ बहुत अँधेर
पर तुम चुप हो आज भी
चुप्पी उत्तर नहीं है हर प्रश्न का,
क्यों तुम बहती रही चुपचाप?
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– विद्या भूषण धर