स्वीकार

नैया पर मैं बैठ अकेली
निकली हूँ लाने उपहार
भव-सागर में भँवर बड़े हैं
दूभर उठना इनका भार
ना कोई माँझी ना पतवार
खड़ी मैं सागर में मँझधार

फिर भी जीवन है स्वीकार।
राहों में कंटक भरमार
अगणित जलते हैं अंगार
अभिशापों का है भंडार
पग-पग पर मिलती है हार
वृष्टि की पड़ती बौछार
मंज़िल मेरी दूर अपार
फिर भी जीवन है स्वीकार।

कोई नहीं उन्माद शृंगार
ना कोई प्रीत, ना मनुहार
ना गेंदा है ना गुलनार
साज ना कोई ना स्वर-ताल
टूट रहे संयम के तार
सृजन करूँ मैं बारम्बार
फिर भी जीवन है स्वीकार।

दर्द-दु:खों की है भरमार
मिलता ना कोई है उपचार
आँचल के झीने हैं तार
कर्कश नयनों की है मार
खड़ी हूँ प्यासी, ना जलधार
गिनती रहती ऋतुएँ चार
मन का छूटा है आधार
फिर भी जीवन है स्वीकार।

हो रहे नव आविष्कार
सकुचाया नभ का विस्तार
कितना भी कर लो उपकार
होता फिर भी अत्याचार
तर्क करूँ मन में कई बार
क्यों निकली लाने उपहार
झूठा-मिथ्या है संसार
झूठा-मिथ्या है संसार।

*****

– सविता अग्रवाल ‘सवि’

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