धरती कहे पुकार के

दूर-दूर तक फैली धरती,
देखो कहे पुकार के।
ओ वसुधा के रहने वालों!
रहो सर्वदा प्यार से॥

नाम अलग हैं देश-देश के,
पर वसुन्धरा एक है,
फल-फूलों के रूप अलग
पर भूमि उर्वरा एक है,
धरा बाँटकर हृदय न बाँटो,
दूर रहो संहार से॥

कभी न सोचो तुम अनाथ,
एकाकी या निष्प्राण रे!
बूँद-बूँद करती है मिलकर
सागर का निर्माण रे!
लहर-लहर देती संदेश यह,
दूर क्षितिज के पार से॥

धर्म वही है, जो करता है,
मानव का उद्धार रे!
धर्म नहीं वह जो कि डाल दे,
दिल में एक दरार रे!
करो न दूषि त आँगन मन का,
नफ़रत की दीवार से॥

सीमाओं को लाँघ न कुचलो,
स्वतंत्रता का शीश रे!
बमबारी की स्वरलिपि में मत
लिखो शान्ति का गीत रे!
बँध न सकेगी लय गीतों की,
ऐसे स्वर-विस्तार से॥

राजनीति में स्वार्थ न लाओ,
भरो न विष संसार में,
पशुता भरकर संस्कृति में,
मत भरो वासना प्यार में,
करो न कलुषि त जन-जीवन तुम,
रूप-प्रणय-व्यापार से॥

आज करो ‘आदेश’ जगत में,
प्रेमालोक अपार रे!
भ्रातृ-भाव से भरा हुआ हो,
जन-जन का व्यवहार रे!
जीवन का शृंगार करो तुम,
एक विश्व परिवार से॥

(शतदल काव्य संग्रह से)

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– हरिशंकर आदेश

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