भारत एकता आधार शंकरा

परिचय

जब सनातन हो रहा था खंड खंड हो पाखंड से बाधित
जब बौद्ध धर्म प्रतिक्रिया से वह हो रहा था अपमानित
तब पुनः करने वेद शास्त्र पुराण अद्वैत को प्रतिपादित
शिव ने लिया दक्षिण में धर्म सूर्य अवतार सुशोभित।

बारह सौ वर्षों से अधिक वह सनातन दर्शन का आधार
तब से ही वह राष्ट्र के आध्यात्म का चैतन्य रूप साकार
उनकी महिमा में हैं अर्पित ये मेरे शब्द छंद स्वच्छंद दो चार
कर त्रुटियाँ सब क्षमा करें कृतज्ञ मुझे कर इनको स्वीकार ।

दुविधा

पूछा माँ आर्यम्बा ने पंडित से

‘गर्भ में मेरे जो पल रहा शिशु – वह कैसा होगा?’
बोले वह
‘अल्पज्ञ-दीर्घजीवी या अल्पजीवी-सर्वज्ञ
जैसा तू चाहे माँ तुम्हें पुत्र वैसा ही होगा ।’

इस दुविधा में भी विचार कर माँ ने चाहा केवल सर्वज्ञ।

पुत्र नहीं चाहती थी वह केवल अपने लिए
और नहीं चाहती थी वह कि पुत्र को हो मातृवियोग ।
पुत्र चाहती थी वह धर्म दर्शन उत्थान के लिए
और इसलिये स्वीकारा उसने मन में सहना पुत्रवियोग ।
सोचा यह भी कि उसकी छाया में ही अल्पजीवी जिएगा
और नहीं कोमल मातृछाया बिन वह कोई कष्ट सहेगा ।

विलक्षण

जब देखा माँ को स्नान करने जाते दूर उठा कष्ट असाध्य
तप से नदी को गाँव निकट बहने पर उसने किया बाध्य ।

सात वर्ष की आयु से ही पहले दो वर्ष रह गुरुकुल अधीनस्थ
करे वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत उसने कंठस्थ ।

शीघ्र ही लौटा वह घर पाकर हर गुरु सम्मान
लेकिन मन में उसके नित् रहे जागते कुछ प्रश्न महान –
हैं क्या आत्मा-परमात्मा अंतत् एक समान?
क्या जीवनमुक्ति, क्या मोक्ष, क्या परम निर्वाण?

लीला रची जल में मगर से स्वयं को दिखा होते क्षति
ताकि मिले माँ से अल्पायु में ही सन्यास की अनुमति ।

नियति

कर माँ से प्रण की लौटेगा वह उस तक श्वास बचें जब चार
आठ वर्ष में वह बन संन्यासी चला पा माँ का आशीष प्यार।

सब त्याग वह मातृभक्त चलने लगा वह बस कर वरण माँ का आशीर्वाद
धर्म दर्शन उत्थान हेतु करना था उसे अमर संघर्ष कर वेद शास्त्र पर वाद ।

सदियों बाद यूँ जगा सूर्य सनातन दूर दक्षिण धरा
नाम था उसका ज्ञान योगी शंकर अवतार शंकरा ।

हाय नियति !

जब काल ने मृत्युशय्या पर माँ को पहुँचाया
दिव्यशक्ति ने शंकरा को उसका भास कराया
स्थगित कर यात्रा वो काशी से लौट घर आए
और करा बदरी दर्शन उसने माँ के प्राण तराए।
यूँ पुत्रछाया में तजे प्राण माँ ने
रीति रूढ़ि सब तोड़े शंकरा ने ।
समाज विरोध पर भी ना माना यह संन्यासी कोई संस्कार
केले के गीले पत्तों पर अग्नि दी माँ को कर तप से उपचार।

कर्म

यूँ किया शंकरा ने माँ को दिया निज प्रण पूरा
और निकल पड़े पुनः पूरा करने काम अधूरा ।

धर्म दर्शन की सेवा को धाम बसाने
ज्योति सनातन हर दिशा फैलाने ।

खोल भेद आत्माहीन बुद्ध प्रतिक्रिया के तर्कपूर्ण आदर से
धर्म को कर मुक्त मीमांसा कर्मकांड के अंतहीन सागर से
खोल गुणी मुनि जन के अद्वैत दर्शन से बुद्दी चक्षु वातायन्
कर मर्यादा गरिमा से धर्म सशक्त सनातन को पुनः पावन
उत्तर, पश्चिम, पूरब, दक्षिण बहती जहाँ भी थी विरोधारा
स्थापित कर पुण्य रामेश्वरम,पुरी, द्वारका, बदरी- केदारा
चहुंदिशा पलट दी शंकरा ने दर्शन की उलटी बहती धारा
हर नगर ग्राम में जन जन ने उनके धर्म तर्क को स्वीकारा।

दस उपनिषदों पर लिख कर टीका
आत्मा – ब्रह्म में स्थापित कर एका
फैला शुभ दर्शन अद्वैत का – कर पुण्य निज धर्म धरा
सहस्त्र वर्षों से अधिक भारत एकता आधार है शंकरा ।

स्वर्गारोहण

जब प्रकाशित जन मन करते थमे नहीं शंकर अवतारा
तम बढ़ने लगा स्वर्ग में और चिंतित देवों ने मिल विचारा
कैसे घर लौटेंगे पृथ्वी से अथक ज्योति पथिक शंकरा ?
दिखाया उनको देवदूत स्वप्न भेज स्वर्गमार्ग पास देवधरा
देवलीला पात्र बनने तब चले सर्वज्ञ तज सब जल आहारा
बत्तीस वर्ष में ये पूर्ण अद्वैत अंत दिखे चलते पीठ केदारा।

*****

– अजेय जुगरान

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »