
हाथ से फिसलती जमीन…
तेजेंद्र शर्मा एम.बी.ई.
“ग्रैंड पा, आपके हाथ इतने काले क्यों हैं? आपका रंग मेरे जैसा सफेद क्यों नहीं हैं?…आप मुझ से इतने अलग क्यों दिखते हैं?” एंजेला के ये शब्द उसके दादा जी के दिल को जैसे छील गए।
क्या इतिहास फिर अपने आपको दोहराने जा रहा है? नरेन भारत छोड़ कर ब्रिटेन इसी चक्कर में तो आकर बस गया था कि अपने मुल्क में उसकी जात तरक्की के आड़े आ रही थी। उसमें हिम्मत नहीं थी कि सवर्णों और पिछड़ों की लड़ाई का मोहरा बन सके। बी.ए. में स्वर्ण पदक जीत कर भी उसे सवर्णों के साथ बैठने का हक नहीं मिला था। लड़कियाँ भी उसके साथ तब तक ही बात करतीं थीं, जब तक उन्हें किसी विषय के बारे में जानकारी चाहिए होती थी। लंच टाइम उसके लिए दहशत से भरा होता। नरेन अचानक अपने आप को अकेला पाता। कोई उसके साथ खाना बाँट कर नहीं खाता था। उसके लिए होती थी माँ के हाथ की बनी मोटी रोटी के साथ सूखी सब्जी!… बिल्कुल अकेला!
अकेला तो वह आज भी है। भला स्थिति कहाँ बदली हैं! वैसे कहने को उसकी पत्नी है, एक पुत्र तथा एक पुत्री है एक पौत्र, एक पौत्री। दो जुड़वाँ दोहते भी हैं नरेन के… किंतु उसके कमरे में उसका साथी उसका अकेलापन ही है।
रिटायरमेंट के बाद से उसका हर दिन एक सा होता है और हर रात समान। घड़ी की सुइयाँ भी कभी-कभी नरेन के टाइम टेबल के हिसाब से अपना समय ठीक कर लेती हैं। अपने कमरे में अकेला सोता है। सुबह साढ़े पाँच उठता है। सबसे पहले अपने लिए एक कप चाय बनाता है। कभी-कभी तो इंग्लिश चाय बनाता है सीधे-सीधे टी-बैग वाली। मगर कभी-कभी नया प्रयोग करता है। कप में दो टी-बैग रखता है और उसपर दूध डाल देता है। उसमें थोड़ा सा चाय मसाला छिड़क देता है। फिर उसे करीब पैंतालीस सेकंड तक माइक्रोवेव में गरम करता है। उतने में ही दूध अच्छी तरह गर्म हो जाता है। कप बाहर निकाल कर टी-बैग को चम्मच से अच्छी तरह हिला लेता है। दूसरी तरफ केतली में पानी उबलने के लिए रख देता है। पानी उबलने के बाद, उसे आहिस्ता आहिस्ता कप में डालना शुरू करता है। चाय अच्छी तरह ब्रू हो जाती है। एक बार फिर टी-बैग थोड़ी देर के लिए अच्छी तरह हिलाता है, और अंततः उन्हें निकाल कर फेंक देता है। अतिरिक्त पत्ती और अतिरिक्त दूध वाली बिना चीनी की उसकी चाय तैयार हो जाती है। इत्मीनान से बैठ कर चाय का मजा लेता है। जैकी, उसकी पत्नी, सुबह आठ बजे उठती है।
चाय की पहली प्याली खत्म करने के बाद ही उसके दिन की शुरुआत होती है। आजकल उसे विचित्र-सा शौक लग गया है। अब वह बी.बी.सी., स्काई या आई. टीवी नहीं देखता। उसका भारत के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है। उसके साथी अब एन.डी.टी.वी., स्टार न्यूज और आज तक का समाचार चैनल बन गए हैं।
दिल्ली से, एक समाचार बन कर, जान बचा कर भागा था। कितने वर्षों तक मुड़ कर न दिल्ली के बारे में सोचा और न घर के बारे में। करोल बाग के रैगरपुरा का रहने वाला। जात-पात को कभी नहीं मानता था। मगर नहीं जानता था कि बेरवा तो बेरवा ही रहेगा। वह क्षत्रीय नहीं बन सकता। उसे हक नहीं कि मीना चोपड़ा से इश्क करे। जब मीना चोपड़ा के भाई उसकी हड्डियों का हिसाब कर रहे थे तो कोई बचाने नहीं आया था। पुलिस के दो कांस्टेबल उनके साथ थे। पूरे मुहल्ले में किसी की हिम्मत नहीं थी जो उसके साथ खड़ा हो सके।
उसकी माँ चिल्लाए जा रही थी…कहे जा रही थी कि भगवान के लिए उसके बेटे को न मारें, छोड़ दें। अब भगवानजी की भी अपनी समस्या थी, क्योंकि वे नरेन के चक्कर में कन्फ्यूज्ड थे। नरेन अपने आपको छोटी जाति का मानता नहीं था। हमेशा कहता, “अरे भैया यह जात-पात भला क्या भगवान जी ने बनाई है?” इसलिए वह कभी छोटी जाति के मंदिरों में भी नहीं जाता था। उसे रविदास मंदिर जाने में कोई रुचि नहीं होती थी। एक ही बात कहता, “भगवान कैसे अलग हो सकता है? जो मीना का भगवान, वही मेरा भगवान। जब हम एक-दूसरे को प्यार कर सकते हैं तो भला हमारे भगवान एक क्यों नहीं हो सकते।”
भगवानों की परेशानी को समझना कौन सा आसान काम था। सोचने की बात यह कि मीना के भगवान तो सवर्णों के भगवान थे। वे भला नरेन को मीना के भाइयों की मार से बचाने क्यों धरती पर आते और रविदास को तो वह अपना भगवान मानता ही नहीं था, उन्हें क्या पड़ी थी। बस, उस पर गालियों, जूतों और डंडों की बरसात होती रही, “साले रैगर, अपनी औकात में रह। अब अगर हमारी बहन की तरफ देखा भी न तो जिंदा जमीन में गाड़ देंगे।” बस वही संवाद जो वह न जाने कितनी फिल्मों में सुन चुका था।
राजकपूर की बॉबी देखने तो दोनों फरीदाबाद गए थे। दिल्ली के वितरकों ने फिल्म रिलीज नहीं की थी। हरियाणा में रिलीज हो गई थी। लोग-बाग फरीदाबाद, रोहतक और चंडीगढ़ तक जा रहे थे फिल्म देखने।
मगर नरेन की फिल्म का पटाक्षेप हो गया था। उसके इश्क का भूत इतनी मार खाने के बाद ऐसा सरपट भागा कि मुड़ कर देखने का नाम नहीं लिया। किंतु यह भूत नरेन के दिमाग पर एक इबारत लिख गया…रैगरपुरा में जिंदगी खराब नहीं करना है। चाहे उसकी मोटर साइकिल के पीछे उसकी बॉबी बैठे या न बैठे…उसे यात्रा पर निकल पड़ना है…और यात्रा समाप्त हुई लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे के टर्मिनल तीन पर।
यहाँ की समस्या दूसरी किस्म की थी। साउथहॉल में रहना नहीं चाहता था। पंजाबियों से पिटाई करवाकर आया था, फिर भला पंजाबियों के मुहल्ले में कैसे रहने की सोच पाता। मन में एक विचित्र-सी खींचतान मची थी। एकदम अन्जान इलाके में गोरों या कालों के बीच रहना भी तो आसान नहीं था…अपने पराए लग रहे थे और पराए तो थे ही पराए…विडंबना गहरी थी…।
मन में कुछ प्रश्न भी उठे…क्या इस धर्म को छोड़ ही दे जिसने उसे अछूत करार कर दिया है?… तो फिर कौन सा धर्म अपनाए। अगर सिख धर्म अपना ले तो कुछ खास करना भी नहीं पड़ेगा। हिंदू भगवानों को मान कर भी सिख बना रह सकता है। उसके बाद तो साउथहॉल में आसानी से खप भी जाएगा। मगर ऐसा क्यों करे? बुराई तो उसके अपने मजहब में है… छुआछूत की समस्या से भाग कर जाएगा कहाँ? उसे बदलाव के लिए लड़ना चाहिए।
बदलाव लाना क्या इतना ही आसान होता है? सदियों की परंपराएँ, रूढ़ियाँ क्या इतनी आसानी से हमारा पीछा छोड़ सकती हैं? नए देश के नए शहर में एक सीलन भरा कमरा वैंबले के इलाके में किराए पर मिला था। कुछ भी नहीं बदला था। शायद लंदन के रैगरपुरे में ही पहुँच गया था। एक घर में सात कमरे थे और सातों में अलग-अलग किराएदार। सभी भारतवासी थे।
उसका संघर्ष अब शुरू हुआ था। साठ पैंसठ जगह अर्जियाँ भेजने के बाद भी कोई दफ्तरी नौकरी नहीं मिली। दिमाग का इस्तेमाल किया। एक रेस्टोरेंट में नौकरी कर ली। रेस्टोरेंट का सबसे बड़ा लाभ होता है कि खाना मुफ्त मिल जाता है। घर में बनाने का कोई चक्कर ही नहीं। वेटर के काम का कोई अनुभव तो नहीं था। मगर बातें बनाने में शुरू से ही तेज था। जल्दी ही ग्राहकों में लोकप्रिय होने लगा। वहीं इलियास से मुलाकात हुई थी—रेलवे का एक ड्राइवर।
इलियास से दोस्ती ने नरेन को बहुत कुछ सिखाया। औरंगाबाद का इलियास लंदन में जैसे नरेन का एकमात्र सगा था। दोनों एक-दूसरे को प्यार से ‘बाऊजी’ कह कर बुलाते। हैरानी तो नरेन को तब हुई जब इलियास ने नरेन के रेस्टोरेंट में आना बंद कर दिया, “बाऊजी, आपके रेस्टोरेंट का खाना तो अच्छा लगता है, पर यार अपने रेस्टोरेंट में तुम हमारे साथ बैठ कर खाना नहीं खा सकते। अब मेरे परिवार को लगने लगा है कि तुम हम में से ही एक हो। ऐसा करते हैं कि जिस दिन तुम्हारी छुट्टी होगी तभी हम सब किसी और रेस्टोरेंट में जा कर ऐश किया करेंगे।” इलियास की तलाकशुदा बहन रेहाना नरेन को विशेष निगाहों से देखने लगी थी। नरेन को भी लगने लगा था कि “जरा सा कुछ हुआ तो है!” फिर याद आई मीना के भाइयों के हाथ हुई पिटाई की। रेहाना तो दोस्त की बहन है। मन ही मन धर्म परिवर्तन के लिए भी तैयार हो गया। इस्लाम का भारत में सबसे बड़ा फायदा यह भी तो है कि वहाँ का हर मुसलमान धर्म परिवर्तन करके ही तो मुसलमान बना है। सबके सब पहले तो हिंदू ही थे। अगर एक और हिंदू अपना मजहब बदल कर मुसलमान बन जाएगा, तो कौन सा आकाश टूट पड़ेगा?
इलियास ने अपनी दोस्ती का फर्ज निभा दिया और नरेन को रेलवे में गार्ड की नौकरी दिलवा दी। नरेन का रुतबा बढ़ा…अब रहने के लिए बेहतर जगह के बारे में सोचने लगा। फिर दिल ने यह भी कहा कि रेहाना को साथ में रखना है तो कम से कम दो बेडरूम का घर तो खरीदना ही पड़ेगा।
उसने अपने जीवन की एक और अहम गलती कर दी। इलियास से दो हजार पाउंड उधार माँग बैठा, “इलियास भाई, एक घर देखा है…दो बैडरूम का है…वैंबले में ही है। अगर आप दो हजार पाउंड उधार दे दें तो मैं डिपॉजिट जमा करवा दूँगा। बाकी तो मॉर्गेज मिल ही जाएगी। घर अपना हो जाएगा।”
इलियास ने उसे जीवन की सबसे बड़ी सीख दे दी, “देखो नरेन, तुम्हें मुझसे पैसे नहीं माँगने चाहिए थे। इससे हमारी दोस्ती में फर्क पड़ जाएगा। अगर मैं तुम्हें पैसे दे दूँ और तुम पैसे वापस नहीं कर सके, तो हमारी दोस्ती टूट जाएगी और अगर मैं तुम्हें पैसे देने से मना कर दूँ तो तुम्हारा दिल टूट जाएगा और हमारी दोस्ती टूट जाएगी। अगर दोस्ती टूटनी ही है तो कम से कम मेरे पैसे तो मेरे पास ही रहने चाहिए। मुझ से पैसे माँग कर तुमने अपनी दोस्ती का गला घोंट दिया है। पैसा हमेशा रिश्तों के लिए घातक सिद्ध होता है।”
इलियास ने उसे मुसलमान होने से बचा लिया था। रेहाना बिना उसकी बने ही पराई हो गई थी। वह दिन-रात एक ही बात सोचता- “क्या रेहाना भी मुझे प्यार करती थी?” जीवन में जो कभी अपने से होते हैं, कितनी जल्दी ‘थे’ में परिवर्तित हो जाते हैं।
पुरानी बातें याद आती हैं, दर्द का अहसास करवाती हैं…दर्द मीठे से शुरू हो कर गहराई तक असर करने लगता है। लंदन में अकेलापन हर मोर्चे पर तंग करता था। रेडियो के नाम पर इल-लीगल चैनल थे। हिंदी फिल्में केवल साउथहॉल के सिनेमा हॉलों में दिखाई जाती थीं। टिकटें बहुत महँगी होती थीं। कार अभी थी नहीं। हेडस्टोन लेन स्टेशन के निकट कार्मेलाइट रोड पर घर खरीद लिया था। स्टेशन से करीब आधा मील दूर। लंदन अंडरग्राउंड की बेकरलू लाइन उन दिनों वॉटफर्ड जंक्शन तक जाया करती थी। फिर उन्नीस सौ बयासी में बंद हो कर हैरो एंड वील्डस्टोन तक सिमट गई। जीवन के सभी परिवर्तन उसके अनुभवों को पुख्ता बना रहे थे।
वैसे रेलवे के जिस हिस्से में वह काम कर रहा था, उसमें इलियास केअतिरिक्त कोई भारतीय मूल का ड्राइवर नहीं दिखाई दिया। बस दो अश्वेत ड्राइवर और थे। बाकी सब श्वेत ही थे। उसे अपने रंग का अहसास होने लगा था। आज उसकी पोती ने उसे फिर याद दिला दिया था कि उसका रंग काला है और वह इस समाज का हिस्सा नहीं बन सकता।
वर्षों पहले जैकी ने नरेन के हाथ को हाथों में लेकर कहा था, “नरेन, तुम्हारे बदन का रंग कितना खूबसूरत है! तुम इंडियंस की स्किन कितनी खूबसूरत होती है। हम तो पूरे साल गर्मियों का इंतजार करते रहते हैं। फिर समुद्र किनारे टैन लोशन लगा कर अपने शरीर के रंग को बदलने के लिए मेहनत करते फिरते हैं। उसके बावजूद तुम जैसा रंग नहीं बना पाते। आई लव यू एंड योर बॉडी!” अब तो बस उन दिनों की बातें ही याद आती हैं…
नरेन जब जैकी से मिला था तो ब्रिटिश रेल में गार्ड के रूप में स्थापित हो चुका था। वह हैरान भी होता था कि दिल्ली विश्वविद्यालय का स्नातक—विज्ञान स्नातक—और लंदन में कोई भी कंपनी उसे नौकरी देने को तैयार नहीं थी। उसे जल्दी ही समझ आ गया था कि उसे कोई ऑफिस टाइप का काम नहीं मिलने वाला। जब इलियास ने उसे रेलवे में गार्ड की नौकरी दिलवाने की बात की तो उसने लपक कर ले ली थी।
जैकी भी दौड़ते हुए लपक कर गाड़ी पकड़ने का प्रयास कर रही थी। तब तक नरेन रेलगाड़ी के दरवाजे बंद कर चुका था। जैकी ने लगभग मुनव्वल करते हुए नरेन की ओर देखा था। उन आँखों में जो भाव नरेन ने पढ़े उन्होंने उसे जैकी को अपनी ‘कैब’ के दरवाजे से रेलगाड़ी के भीतर आने को मजबूर कर दिया। वैसे यह रेलवे नियमों के विरुद्ध था। मगर बहुत से नियम कागजों में लिखे रहते हैं और समय आने पर हालात के अनुसार निर्णय लिए जा सकते हैं।
जैकी के कपड़े और उसकी साँसों से आती अल्कोहल की खुशबू ने नरेन को संदेश दिया था कि लड़की किसी पार्टी से वापस आ रही है और इस विचार से ही घबरा गई है कि यदि यह गाड़ी छूट गई तो अगली गाड़ी एक घंटे के बाद है। उसे अकेले लंदन यूस्टन स्टेशन पर बैठे रहना पड़ता। देर रात को गाड़ियों के चलने में वफ्फा बढ़ जाता है। मेनलाइन की गाड़ियाँ तेज चलती हैं और पैंतीस चालीस मिनट में यूस्टन से हेमेल हेंपस्टेड पहुँचा देती हैं।
नरेन दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़ा है। अंग्रेजी सेंट स्टीफन कॉलेज के विद्यार्थियों की तरह पटर-पटर बोलता है, जिसे ब्रिटेन में क्वींस इंग्लिश कहा जाता है। जैकी भी हैरान थी कि यह ‘पाकी’ शक्ल का लड़का इतनी बेहतरीन अंग्रेजी कैसे बोल रहा है। नियमों के अनुसार, होना तो यह चाहिए था कि नरेन गाड़ी के प्लेटफॉर्म छोड़ते ही जैकी को अपनी ‘कैब’ से बाहर जाने को कहता और दरवाजा खोल कर उसे मुख्य कंपार्टमेंट में भेज देता। मगर यह हो न सका और हेमेल हेंपस्टेड आते-आते दोनों अपना अपना फोन नंबर एक-दूसरे को दे चुके थे। नरेन के पास एक ही नंबर था; जो उसके घर का था, जबकि जैकी के पास घर और दफ्तर दोनों के नंबर थे। यानी कि नंबर के लेन-देन में भी नरेन को लाभ ही हुआ कि एक नंबर दे कर दो-दो वापस ले लिए। यह अभी मोबाइल युग नहीं था।
रेलगाड़ी की यह यात्रा नरेन के दिलो-दिमाग पर आज भी अंकित है। लंदन से हैरो, बुशी, वॉटफर्ड जंक्शन, किंग्स लैंगली और ऐप्सली रुकती हुई रेलगाड़ी हेमेल हेंपस्टेड पहुँची थी और दोनों को महसूस हुआ कि तीस मिनट जैसे पंख लगा कर तीन मिनट में ही उड़ गए थे। हेमेल से नॉर्थंपटन तक के स्टेशनों पर नरेन यंत्रवत रेलगाड़ी के दरवाजे खोलता रहा… यात्रियों को उतारता रहा और दरवाजे बंद करता रहा। शैंपेन जैकी ने पी रखी थी और नशा वह दे गई थी नरेन को।
दरअसल, बातों का सिलसिला शाम की पार्टी से होते-होते फिल्मों और नाटकों तक पहुँच गया। जैकी को बहुत अच्छा लग रहा था कि कोई रेलवे का गार्ड फिल्मों और नाटकों के बारे में इतनी मैच्योर बातें कर रहा था और नरेन को समझ ही नहीं आ रहा था कि वह क्या कह रहा है। जैकी के भूरे बाल, भूरी आँखें और आँखों में तैरते शैपैन के लाल डोरे सभी उस पर जादुई असर कर रहे थे।
जैकी की स्लीवलेस काली ड्रेस अपने आप में गजब ढा रही थी। कहीं नरेन के मन में भी कुछ होने-सा लगा था। जैकी की आवाज में शैंपेन का सुरूर कुछ अधिक ही हस्कीपन ला रहा था। यदि नरेन इस समय ड्यूटी पर नहीं होता यानी कि यूनिफॉर्म में नहीं होता तो हालात ही कुछ अलग से होते। मगर यह भी तो हो सकता है कि यदि वह यूनिफॉर्म में न होता तो ये हालात पैदा ही नहीं हो पाते। उसने संयम से काम लिया।
हेमेल हेंपस्टेड आते आते उसने जैकी से एक सवाल भी पूछ लिया, “जैकी क्या तुम्हें ठीक से थैंक्स करना आता है?” उत्तर में जैकी ने केवल मदहोश नजरों की पलकों को आहिस्ता से झुका लिया। नरेन ने माइक उठाया और घोषणा करने लगा, “यात्रियों को सूचित किया जाता है कि अगला स्टेशन हेमेल हैंपस्टेड है।” पिछले हर स्टेशन पर यह घोषणा करता आ रहा था किंतु यहाँ अचानक उसे महसूस हुआ जैसे कि वह यात्रा में अकेला रह जाएगा।
गाड़ी लगभग रेंगने लगी थी। अचानक जैकी ने कहा, “हाँ, मैं जानती हूँ कि ढंग से थैंक्स कैसे किया जाता है।” और उसने कसकर नरेन के चेहरे को अपने हाथों में लेकर एक जोरदार चुंबन उसके होंठों पर जड़ दिया। यह सब इतने अप्रत्याशित ढंग से हुआ कि नरेन के लिए जैसे सब कुछ थम गया था।
गाड़ी रुकी… उसने अपना लोकल दरवाजा खोला…बाहर देखा, बटन दबाया और यात्रियों के लिए दरवाजे खोल दिए। जैकी उतरी और जैसे नरेन के पास एक खलिश छोड़ गई। नरेन ने बेदिली से दरवाजे बंद किए और ड्राइवर के लिए दो घंटियाँ बजा कर चलने का संकेत दे दिया। गाड़ी आहिस्ता आहिस्ता गति पकड़ने लगी। जैकी लैंप पोस्ट के नीचे खड़ी नरेन को तब तक हाथ हिला कर बाय करती रही जब तक नरेन का चेहरा दिखाई देता रहा।
नरेन ने नॉर्थेपटन तक बहुत से सपने देख डाले। भारतीय मानसिकता उसे पल भर में ही जैकी के साथ विवाहित जीवन के स्वप्न दिखाने लगी। वह सोच ही नहीं सकता था कि एक पुरुष और नारी केवल मित्र भी हो सकते हैं। जैकी का गहरा चुंबन उसे बेचैन किए जा रहा था। संतोष यह था कि वह जैकी को अपना अगले दिन का रुटीन बता चुका था। अगले दिन वह तीन बार हेमेल हेंपस्टेड से गुजरने वाला था। एक उम्मीद की किरण मन में कहीं आशा जगा रही थी कि जैकी अगले दिन अवश्य ही हेमेल हेंपस्टेड रेलवे स्टेशन पर उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी।
आज तक उसे नींद में सपने आते थे। मगर आज की घटना उसे ऐसे सपने दिखा रही थी कि अब नींद आँखों से गायब थी। क्या इसकी कोई दवा भी हो सकती है? वैसे दवा तो जैकी के पास ही होगी…क्योंकि जैकी केमिस्ट है और बूट्स कंपनी में ही केमिस्ट का काम करती है। जी चाह रहा था कि काश! जैकी उसके दिल की हालत समझ कर अगले दिन कोई दवा अपने साथ ही लेती आए।
रात कितनी लंबी हो सकती है…और अगर अगली सुबह भी रात का ही हिस्सा बन जाए तो भला कयामत क्या होती होगी।…नरेन की आज फिर दोपहर की शिफ्ट थी। वह वॉटफर्ड डिपो से काम शुरू करता था। दोपहर को साढ़े बारह बजे काम शुरू करना था। आज वह आधा घंटा पहले ही बुकिंग-ऑन पाइंट पर पहुँच गया था। एस.डी.एम. ने उसे देखा, फिर अपनी घड़ी देखी, “क्या बात है बंधु, आज इतनी जल्दी? क्या रेलवे से इश्क हो गया है?”
रेलवे में अपने साथियों को ‘मेट’ कहने का रिवाज है। कुछ लोग इसे ‘मेइट’ कहते हैं तो कुछ अनर्थ करते हुए ‘माइट’ ही कह देते हैं। उसके एस.डी.एम. ‘माइट’ कहने वालों में से है। इन तीनों शब्दों का भावार्थ बंधु ही है। सभी साथियों के नाम याद रख पाना संभव नहीं हो पाता। शायद इसीलिए यह प्रथा शुरू की गई होगी। जब पहली बार उसे किसी ने ‘माइट’ कह कर पुकारा तो उसे लगा कि ‘माइक’ कह कर पुकारा जा रहा है। उसने भोलेपन से जवाब दिया, “माफ कीजिएगा मेरा नाम माइक नहीं, नरेन है।”
सामने वाला कन्फ्यूज्ड-सा खड़ा नरेन को देखता रह गया। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि नरेन किस ग्रह का निवासी है, जो इतनी बेसिक बातें नहीं समझता। मगर एक बात नरेन को सही-सही समझ आ चुकी थी कि जैकी कोई आम यात्री नहीं थी। वह उसके व्यक्तित्व पर इतना गहरा असर छोड़ गई है कि उसके व्यक्तित्व का ही एक हिस्सा बन गई है।
उसका पहला ट्रिप वॉटफर्ड से ब्लैचली तक का था। रास्ते में हेमेल हेंपस्टेड तो पड़ता ही है। ‘किंग्स लैंगली’ और ‘ऐपस्ली’ तक वह केवल प्रार्थना करता रहा कि हे प्रभु! हेमेल के प्लेटफॉर्म पर जैकी खड़ी उसकी प्रतीक्षा कर रही हो। गाडी हेमेल पहुँची…नरेन ने रेलगाड़ी के दरवाजे खोले…मगर उसकी निगाहें प्लेटफॉर्म पर ही लगी हुई थीं। जैकी वहाँ नहीं खड़ी थी। रविवार को जैकी की छुट्टी होती है…उसने कल रात ही बता दिया था।…आज सुबह भी जैकी का फोन नहीं आया। यानी अभी तक जैकी पर उसके प्यार का रंग नहीं चढ़ा। उदास, थके कदमों से उसने अपने शरीर को अपनी कैब में चढ़ाया और गाड़ी आगे बढ़ा दी।
गाड़ी ब्लैचली से ही वापस लंदन यूस्टन के लिए रवाना होनी थी। एक बार फिर उम्मीद की लौ ने दिल में जगह बनाई…। मगर सवाल यही दिमाग को मथे जा रहा था…क्या जैकी भी उसे याद कर रही होगी?…क्या उसकी ‘किस’ बस एक नशे में धुत लड़की की बेशरमी थी… र कुछ नहीं? ‘ट्रिंग’ से गाड़ी के निकलते निकलते उसके मन में कुछ ऐसे विचार भी आने लगे कि अगर नहीं मिलेगी तो क्या फर्क पड़ता है! मगर दिल को दबा पाना क्या इतना आसान होता है?
“ब्लैचली’ से गाड़ी चल पड़ी वापस लंदन के लिए। ‘चेडिंगटन’, “ट्रिंग’ और ‘लेटन बजर्ड’ आते-आते नरेन ने तय कर लिया था कि अब वह जैकी के बारे में नहीं सोचेगा। अगर उसमें अकड़ है, तो मुझे क्या फर्क पड़ता है। फिर अचानक जैकी के न आने के कारण खोजने लगा। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर वह इतना परेशान क्यों है। अगला स्टेशन फिर से हेमेल हेंपस्टेड है। क्या अबकी बार…?
गाड़ी धीमे धीमे हेमेल हेंपस्टेड के प्लेटफॉर्म पर रुकी। नरेन ने अपने केबिन का दरवाजा खोला मगर प्लेटफॉर्म पर आठ दस लोग ही दिखाई दिए। एक यात्री गाड़ी पर चढ़ने में अतिरिक्त समय ले रहा था। नरेन ने मुँह में सीटी डाली और बजा दी। यात्री दरअसल किसी को छोड़ने आया था। उसे रेलगाड़ी में चढ़ना ही नहीं था। नरेन ने दरवाजे बंद किए। कुछ पलों के लिए वह यह भी भूल गया था कि वह हेमेल हैंपस्टेड स्टेशन पर खड़ा है और उसे जैकी को ढूँढ़ना भी है। उसने दरवाजे बंद करने का बटन दबाया और गाड़ी चलाने के लिए दो घंटियों का सिग्नल दिया। वह वापस अपनी कैब में चढ़ने ही वाला था कि पीछे से आवाज सुनाई दी, “क्या मुझे लंदन ले चलेंगे?”
जैकी को सामने देख कर नरेन गड़बड़ा गया। जल्दबाजी में उसे अंदर खींचा। और गाड़ी चल पड़ी। “तुम कहाँ छिपी खड़ी थीं?… मुझे लगा कि तुम आओगी ही नहीं।”
“तुम मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे?…सच?”
“मुझे तो अपने पहले ही ट्रिप पर उम्मीद थी कि यहाँ दिखाई दे जाओगी।…
वैसे आज कहाँ जाने का इरादा है?”
“सच सच बता दूँ?”
“सच तो बताना ही पड़ेगा। अब हम दोनों के बीच झूठ के लिए तो कोई स्थान ही नहीं।”
“तो नरेन साहब, सच तो यह है कि मैं आपके साथ लंदन जाऊँगी और वापस आप ही की गाड़ी से लौट भी आऊँगी। मैं केवल आपसे मिलने आई हूँ। आप चाहेंगे तो बातचीत भी हो जाएगी।…फिर मुझे लगा कि यदि कल रात थैंक्स करने में कोई कमी रह गई हो तो…आज…!” शरारत जैकी की आँखों से टपक-टपक कर जैसे नरेन के दिल पर गिर रही थी। उसने आगे बढ़ कर नरेन के हाथ को अपने हाथ में ले लिया। नरेन ने देखा कि जैकी के गोरे हाथ के सामने उसका अपना हाथ खासा गहरे रंग का लग रहा था।
आज एंजेला ने भी तो यही याद दिलाया था कि वह अपने परिवार से अलग दिखता है। वैसे तो उसकी अपनी बेटी शीला ने भी बचपन में यही सवाल पूछा था। मगर उस समय यह सब लाड़ का एक हिस्सा लगता था। नासूर नहीं बना था। आज वह घर के अकेले कमरे में अपने आपसे बातें करता रहता है। उसके मित्रों का घर में स्वागत नहीं है। जैकी, शीला और तीनों की जैसे एक टीम बन गई है…
मगर उन दिनों जैकी का प्यार इतना शिद्दत से भरा था कि नरेन को चर्च की सीढ़ियाँ चढ़नी ही पड़ीं। उसने अपने माता-पिता को विवाह पर नहीं बुलाया था। मन ही मन चाह भी रहा था कि अपने माँ-बाप को और पूरे रैगरपुरे को बता सके कि देखो आखिर मैंने अपनी जात से मुत्तिफ पा ली है। आज मुझ से कोई नहीं पूछता कि मेरी जात क्या है। मेरे महान भारत के रहने वालो, अपनी संस्कृति और मूल्यों की दुहाई देने वालो, देखो…तुम्हारे देश में प्यार करने पर पिटाई हुई थी और यहाँ गोरों के देश में प्यार के बदले में स्वर्ग की अप्सरा-सी सफेद…रुई के फाहे से अधिक मुलायम पत्नी मिलती है। नरेन के विद्रोही स्वभाव और जैकी के प्यार के जादू के बाद भला कैसे हो सकता था कि विवाह न हो…बस हो गया। हनीमून के लिए दोनों कहीं बाहर नहीं गए। लेक डिस्ट्रिक्ट में एक सप्ताह बिता कर अपने विवाहित जीवन की यात्रा की शुरुआत की थी।
“नरेन, मुझे लगता है कि ये दिन बस यूँ ही चलते रहें। हमारा हनीमून कभी खत्म न हो…यह कोई ख्वाब है या हकीकत…! सामने देखते हो..यह वर्ड्सवर्थ का घर है। उसका कहना था कि जो यहाँ रह कर कवि नहीं बना, वह जीवन में कभी भी कवि नहीं बन सकता।”
“बचपन से सुनते आए थे कि जमीन पर अगर कहीं जन्नत है तो कश्मीर में है। मगर यहाँ आकर लगता है कि जन्नत की ब्रांचें कई जगह खुली हुई हैं।”
“तुम इतने रोमांटिक माहौल में भी मजाक कर लेते हो…! कमाल हो तुम भी।”
“देखो अब तो तुम्हें अपनी सारी जिंदगी इस जोकर के साथ ही बितानी है।
जोकर का सिर पत्थर का बना है—’हेडस्टोन…!”
जैकी भी नरेन के साथ रहने के लिए उसके ‘हेडस्टोन लेन’ वाले घर में आ गई थी। वहाँ से उसका बूट्स का स्टोर भी बहुत दूर नहीं था—बस तीन ही स्टेशन दूर—वॉटफर्ड हाई स्ट्रीट। वहाँ से करीब छह से सात मिनट का पैदल रास्ता।
जैकी को पियानो बजाने का शौक था और वह अपने साथ अपना पियानो भी नरेन के घर ले आई थी, “तुम्हें एक बात बताऊँ नरेन, तुम भारतीय बहुत जिम्मेदार किस्म के लोग होते हो। तुम्हारी उम्र में अधिकतर ब्रिटिश बच्चे तो भटक रहे होते हैं और तुमने दो बेडरूम का घर भी बना लिया है! मुझे तुमसे रश्क होता है… प्यार भी बहुत आता है।”
शरमाने की बारी नरेन की थी। फिर अचानक जैकी के पियानो को देख कर बोला, “जैकी क्या तुम इस पर हिंदी गानों की धुनें भी बजा सकती हो?… हिंदी गाने सुने बहुत दिन हो जाते हैं।…वैसे इसे हारमोनियम की तरह भी बजा सकते हैं क्या? मुझे हारमोनियम पर कुछ पुराने गाने बजाने आते हैं। आधा अधूरा-सा सीखा हूँ।”
“बजा कर दिखाओ न। यह ठीक से हारमोनियम का आनंद तो नहीं देगा मगर तुम काफी हद तक हिंदी गाना बजाने का सुख ले सकते हो।”
नरेन ने सबसे पहले नागिन की बीन बजाने का प्रयास किया और बीन बज भी गई। उसका हौसला बढ़ा। उसने तलत महमूद और सलिल चौधरी का गाना निकाला- “इतना ना मुझ से तू प्यार बढ़ा, कि मैं इक बादल आवारा…।” चौंक पड़ी जैकी, “तुम यह कैसे जानते हो?”
“यह एक हिंदी फिल्म का गीत है।”
“अरे नहीं! यह तो बीटोव्हिन की चालीसवीं सिंफनी है।…रुको मैं तुम्हें पूरी सुनाती हूँ।” जैकी बैडरूम में गई और वहाँ से अपने म्यूजिक्ल नोट्स की डायरी उठा कर लाई। उसने कुछ पन्ने पलटे और बैठ गई पियानो के सामने रखे स्टूल पर। कुछ ही पलों में नरेन के सामने उसके प्रिय संगीतकार सलिल चौधरी की पोल खुलने लगी। मगर उसे जैकी का पियानो बजाना बहुत पसंद आ रहा था। लगता था जैसे कि पियानो नरेन को रिझाने की कोशिश कर रहा हो।
ऐसे ही खूबसूरत पलों का नतीजा थे शीला और जै का जन्म। बच्चों के नाम भी कुछ सोच-विचार के बाद ऐसे रखे गए कि वे दोनों संस्कृतियों के लग सकें। शीला नाम अंग्रेज लड़कियों का भी होता है तो जै भारतीय लड़कों का भी। जैकी और नरेन भी नहीं चाहते थे कि बच्चों के नाम रखने में कोई अड़चनें पैदा हों। जैकी और उसकी माँ कभी यह बर्दाश्त नहीं कर पाते कि बच्चों के नाम भारतीय हों और वहीं नरेन को भी डर था कि उसके पहले से नाराज माता-पिता कहीं बच्चों के अंग्रेजी नाम सुन कर पूरी तरह रिश्ता ही न तोड़ लें।
“देखो नरेन मैं तुम्हारी दिक्कत समझ सकती हूँ। तुम सोचते होगे कि तुम्हारे माता-पिता बच्चों के नामों को लेकर क्या महसूस करेंगे। मेरे पास उसका हल है। मैं तुम्हें एक किताब खरीद कर ला देती हूँ, जिसमें अंग्रेज बच्चों के नाम दिए होंगे। जो नाम तुम्हें ऐसे लगें कि दोनों मजहबों में समान हैं, तुम बता दो। मुझे वे नाम रखने में कोई दिक्कत नहीं होगी।” जैकी की बात सुन कर नरेन को उस पर बहुत प्यार आया। कितनी समझदार है जैकी। उसके पास हर मर्ज की दवा मौजूद है। उसका कितना खयाल रखती है।
मगर आज जीवन कैसा बदल गया है। वह बुढ़ा गया है। उसके कमरे का बल्ब फ्यूज हो गया है। तीन दिन से बल्ब नहीं बदला जा सका। सोचता है, आज स्वयं ही बदल ले। जीवन के भीतर तो अँधेरा है ही, मगर बिना बल्ब के जीवन बाहर से भी अँधेरा हो रहा है। कभी-कभी सोचता है कि अभी तो इस घर की मिल्कियत में उसका नाम भी है। दरअसल, पहला नाम उसी का है। जैकी का नाम तो दूसरे नंबर पर है। मगर उसे कभी महसूस नहीं हो पाता कि यह घर उसका भी है। उसकी गाड़ी पटरी से ऐसी उतरी कि पटरी के साथ-साथ घिसटती चली गई। अब तो पटरी भी क्षतिग्रस्त हो चुकी है।
क्षतिग्रस्त तो नरेन का सारा जीवन हो चुका है। वह समझ नहीं पा रहा कि गलती कहाँ हो गई। जैकी और उसमें जो आपसी समझ थी वह कहाँ खो गई। जैकी प्रोटेस्टेंट क्रिश्चियन है। रूढ़िवादी भी नहीं है। सिर पर दुपट्टा ओढ़कर नरेन के साथ मंदिर भी जाती थी। फिर अचानक सब कैसे बदल गया? जैकी की पहली प्रेग्नेंसी में भी दोनों ने कितनी समझदारी से एक-दूसरे का साथ दिया था। जचगी के दौरान नरेन हमेशा जैकी के आराम के बारे में ही सोचता था। मदर केअर और जॉनसन अंड जॉनसन के बच्चे और जच्चा के सभी प्रकार के कपड़े लत्ते और अन्य सामान खरीदे थे नरेन ने।
अपनी माँ की ही तरह रुई के फाहे सा सफेद जै जब पैदा हुआ तो नरेन की खुशी का ठिकाना नहीं था। पिता बनने का अहसास जैसे उसके जीवन को संपूर्ण कर रहा था। जैकी की आँखों में खुशी की चमक थी। उसने नरेन की तरफ देखा। उसकी आँखें जैसे कह रही थीं कि देखो मैंने तुम्हें जीवन का सर्वश्रेष्ठ तोहफा दे दिया है। बिना बोले नरेन की आँखों ने जैकी की आँखों की भाषा में ही उसे उत्तर भी दे दिया था।
अभी जै पाँच महीने का ही था, “सुनो नरेन, मैं सोच रही थी कि या तो हम बस एक ही बच्चे से खुश हो जाएँ और अधिक बच्चों के बारे में सोचे ही नहीं। लेकिन अगर हमें एक या दो बच्चे और चाहिए तो हमें जल्दी-जल्दी बच्चे करने होंगे।” जैकी ने अपने दिल की बात नरेन के सामने रख दी।
“मगर क्यों?…अगर हम बच्चों में स्पेस रखेंगे तो बच्चे पालने में आसानी होगी।” नरेन ने अपनी राय सामने रखी।
“लुक नरेन, मैं अब तक काम से छुट्टी पर हूँ। अगर हम दूसरा बच्चा भी जल्दी कर लें तो मैं अपनी छुट्टी जारी रखूँगी और दोनों बच्चे साथ-साथ पल जाएँगे। जब ये दोनों क्रेश में रहने लायक हो जाएँगे, मैं दोबारा काम शुरू कर दूँगी। इस तरह ब्रेक के बाद हमारा जीवन एक बार फिर पटरी पर लौट आएगा।” जैकी ने अपना हिसाब-किताब पहले से ही पूरा कर रखा था।
नरेन के पास जैकी की बात मानने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था। वैसे भी तो इसका अर्थ यही था कि जैकी के साथ निर्बाध प्यार के पल। न कोई डर न कोई सुरक्षा कवच। वैसे नरेन एक बात नोट कर रहा था कि जैकी जब रात को उसके पास सोने आती तो इतनी थकी होती कि बिना कुछ खास बातचीत के हलके हलके खर्राटे लेने लगती। नरेन बस उसे निहारता रहता। अगर वह उससे लिपट कर सोने का प्रयास करता तो वह करवट बदल कर दूसरी ओर को होकर सोती रहती। एक बात और थी कि जै की तबीयत हलकी सी भी खराब होती तो जैकी सीधी अपनी माँ के घर पहुँच जाती। लगता था जैसे जैकी का परिवार नरेन के घर से कहीं दूर बसता जा रहा था। नरेन को अकेलापन चुभने लगा था। वह अपनी शिफ्ट से वापस आते हुए टेक-अवे खाना ले आता या फिर फ्रोजन खाने को ओवन में गर्म करके खा लेता। कई-कई दिन बीतने लगे कि दोनों मियाँ-बीवी इकट्ठे समय बिता पाते। नरेन जाहिर तौर पर सोचने पर मजबूर हो गया था कि क्या उसे दूसरा बच्चा पैदा करना चाहिए।
किंतु सवाल यह है कि क्या यह उसके बस में था? जैकी का दो पल प्यार से बात करना काफी था और वह दोबारा प्रेगनेंट हो गई। नरेन के लिए फिर वही मॉर्निंग सिकनेस के नजारे। जै के जन्म से पहले जैकी को उलटी होने से नरेन के मन में भिन्न भिन्न विचार आते थे। कुछ उसके दिल को छू जाते तो कुछ उसे परेशान करते। वह जैकी के साथ हो रहे प्रत्येक अनुभव को स्वयं अनुभव करना चाहता था। उसे अपनी पत्नी में हमेशा अपनी प्रेमिका दिखाई देती थी। उसने तय कर लिया था कि रोजमर्रा की जिंदगी में आने वाली दिक्कतों को कभी भी अपने रिश्तों पर हावी नहीं होने देगा।
क्या ऐसा हो सकता है? आप जिन हालात से बचना चाहते हैं, वे साये की तरह आपके पीछे लग जाते हैं। इन सायों को देखा नहीं जा सकता, बस महसूस किया जा सकता है। नरेन की माँ ने भारत से देसी घी, गोंद, और मेवे डाल कर बहू के लिए पंजीरी बना कर भेजी। अब नरेन के परिवार की यही परंपरा रही है कि कम से कम चालीस दिन तक जच्चा इस पंजीरी का सेवन करती है। मगर जैकी के परिवार की परंपरा भला नरेन के परिवार की परंपरा के आगे कैसे घुटने टेकती। नरेन की हर बात का जवाब एक ही होता, “नरेन, मेरी माँ है न! उसे जीवन का अनुभव है। वह सँभाल लेगी पूरी स्थिति को। तुम चिंता मत करो।”
जैकी की माँ ने स्थिति को कुछ ऐसा सँभाला कि जैकी और जै दोनों उसके जीवन से कुछ कटते-से गए और उस पर अब दूसरी प्रेग्नेंसी हो गई। कुछ आवाजें नरेन को सुनाई देतीं और जैकी अपनी माँ के घर पहुँच जाती…
“अब की बार मेरी तबीयत कुछ ज्यादा ही खराब रहने लगी है।”
“… मैं जी.पी. की सर्जरी से सीधे मम्मी के घर चली जाऊँगी।”
“तुम समझ सकते हो कि इस हालत में मम्मी से बेहतर मेरा ख्याल और कौन रख सकता है।”
नरेन को अपने पुत्र के साथ संबंधों का कोमल तंतु जोड़ने का अवसर ही नहीं मिलता था। जै अपने पिता की ओर सहमी नजरों से देखा करता कि यह अजनबी-सा चेहरा मेरे जीवन में क्यों और कहाँ से आ जाता है। इस में कुछ दोष नरेन की दाढ़ी का भी रहा होगा। हुआ कुछ यूँ कि उसके चेहरे पर कुछ फुंसियाँ निकल आईं। शेव करने से कट लग जाने का डर रहता। बस सोचा कि कुछ दिनों के लिए शेव करना बंद कर दिया जाए। साँवला रंग… ऊपर से दाढ़ी! भला जै उससे कैसे न डरता।
उसकी त्वचा के रंग को देख कर जैकी अकसर कहा करती थी, “नरेन, किताबों में पढ़ा करती थी टॉल, डार्क एंड हैंडसम। कितनी भाग्यशाली हूँ मैं। किताब का हीरो जैसे पन्नों से निकल कर मेरे जीवन में प्रवेश कर गया है।” मगर आज टॉल और हैंडसम कहीं खो गए थे। अपने परिवार के लिए वह केवल डार्क बन कर रह गया था।
जै ने कुछ झिझकते हुए अपनी माँ से कहा होगा या फिर शायद सीधे-सीधे कह दिया होगा। नई पीढ़ी में पुराने लिहाज भला कहाँ बचे हैं। नई पीढ़ी और वह भी पश्चिमी परवरिश में पलने वाली…अवश्य ही सीधे सरल ढंग से कहा होगा…झिझक तो जैकी की आवाज में थी, “नरेन, एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगे?”
नरेन जानता है कि जब कभी कोई व्यक्ति ऐसा सवाल पूछे और खास तौर पर जैकी पूछे तो बात बुरा मानने वाली ही होती है। मगर बुरा मानने से होगा क्या? बहस में जीतना तो जैकी को ही है। इसलिए बेहतर है कि उसे अपनी बात कर लेने दी जाए। “कहो।” एक सपाट सी आवाज उभरी।
“मैंने तुम्हें परसों की छुट्टी लेने को कहा था न… क्योंकि जै की रिपोर्ट लेने स्कूल जाना है। मुझे लगता है कि तुम अपनी छुट्टी कैंसिल कर दो। मैं अकेली ही जा आऊँगी।”
“मगर तुम… यार, मैं भी तो जै की टीचर से बात करना चाहता हूँ। जै के दोस्तों से मिलूँगा…उनके माँ-बाप से मिलूँगा। यही तो एक मौका होता है एक परिवार की तरह स्कूल जाने का।”
“तुम समझने की कोशिश करो न। जै को परेशानी होती है।”
“किस बात की परेशानी होती है। क्या मेरे स्कूल जाने से परेशानी होती है? वह तो पढ़ाई में अच्छा भला है और टीचर भी उसकी तारीफ करती है… फिर परेशानी काहे की?”
“प्लीज तुम खुद ही समझ जाओ न…!”
“कमाल करती हो जैकी। कैसे समझ जाऊँ। तुम मुझसे कह रही हो कि मेरे स्कूल जाने से जै को परेशानी होती है और चाहती हो कि समझ भी जाऊँ।”
“देखो मेरे कहने से रुक जाओ न। क्यों अपना मूड खराब करते हो?”
“मुझे पता तो होना चाहिए न कि आखिर हुआ क्या है। मेरे बेटे को मेरा उसके स्कूल आना क्यों गवारा नहीं है।”
“वो क्या है कि उसके स्कूल में अधिकतर बच्चे गोरे मूल के हैं। जब तुम स्कूल जाते हो तो बाद में बच्चे जै का मजाक उड़ाते हैं।…आई एम सॉरी, मैं कहना नहीं चाहती थी।…मगर तुम समझ ही नहीं रहे थे।”
“किस चीज का मजाक उड़ाते हैं बच्चे?…मेरे रंग का?…”
अब तक नरेन इसे मजाक में ही ले रहा था। मगर आज अचानक उसके भीतर कुछ टूट-सा गया था। जैकी कहा करती थी कि अंग्रेज मर्द और औरतें गर्मियों के मौसम में नंगे पंगे हो कर बदन पर सन-टैन लोशन लगा कर समुद्र के किनारे जा कर सूर्य की धूप में लेटे रहते हैं, ताकि नरेन जैसा रंग बना सकें। यीशु ने नरेन को कितनी खूबसूरत त्वचा दी है। आज यीशु भी पाला बदल गए।
नरेन को कभी भी शेक्सपीयर का चरित्र ‘ओथेलो’ समझ नहीं आया था। वह दिल खोल कर उसकी बुराई करता और शेक्सपीयर की भी। उसकी आलोचना की सीमा तय नहीं थी। वह इस नाटक को नाटक ही नहीं मानता था। अब उसे धीरे-धीरे ओथेलो का दर्द समझ आने लगा। अनजान गोरे लोगों के बीच अनाम जीवन जीने का मर्म समझ में आने लगा। कहते हैं न कि महायुद्ध करके सबको पछाड़ते हुए विवाह करना तो आसान है, मगर रोज-रोज घटने वाली छोटी-छोटी लड़ाइयों से पार पाना बहुत कठिन होता है। कठिनाइयाँ बढ़ रही थीं नरेन के लिए। जैकी का परिवार एक शत्रु शिविर की तरह उभर कर सामने आ रहा था। वह चाह कर भी उस शिविर के भीतर नहीं जा सकता था। उन्हें शत्रु कहना भी उचित नहीं होगा…दरअसल, वह उस शिविर में अजनबी था—अनजान।
नरेन इसे आतंकवाद समझ बैठा। पारिवारिक आतंकवाद! अपने ही परिवार से दूरी बढ़ने लगी। अकेलापन उसका मित्र बनता जा रहा था। अचानक दिमाग में बात आई कि चलो अपने परिवार को भारत ले चलता हूँ। वहाँ माता-पिता से जैकी और बच्चे मिलेंगे तो उनके प्यार से कुछ न कुछ बदलाव अवश्य ही आएगा। जैकी से बात की…
“नरेन मैं तुम्हारी बात समझ सकती हूँ। लेकिन इसका उलटा असर भी हो सकता है। देखो बच्चे तुम्हारे माता-पिता से पहली बार मिलेंगे। उन्हें भारत की गर्मी रास नहीं आने वाली। अगर वे वहाँ बीमार हो गए या उनको मलेरिया हो गया, तो उनके दिमाग में हमेशा के लिए वहाँ की एक निगेटिव इमेज बन जाएगी…आगे जो तुम्हारी मर्जी।”
“जैकी, तुम अपनी माँ से करीब-करीब रोजाना मिलने जाती हो। क्या मैंने तुम्हें कभी रोका है?”
“नहीं तो।”
“क्या मेरा इतना भी हक नहीं बनता कि मैं अपने बच्चों को अपने माँ-बाप से मिलवाने ले जा सकूँ। क्या इनको नहीं पता चलना चाहिए कि इनके दादा-दादी भी हैं, बुआ और चाचा भी हैं?”
नरेन की आँखों का दर्द जैकी को समझ में आ गया था। उसने भारत के बारे में इतनी बातें अपनी सहेलियों से सुन रखी थीं कि वह किसी भी तरह इस ट्रिप से बचना चाह रही थी। वहाँ की गर्मी, मच्छर, मलेरिया, धूल-मिट्टी, इनमें से बहुत सी चीजों के बारे में तो नरेन से ही सुना करती थी। मगर पहली बार अपने पति के सामने निरुत्तर हुई थी। फिर भी उसने एक विचार पति के सामने रखा, “देखो नरेन, यदि हम सब तुम्हारे गाँव जाने की बजाय तुम्हारे माता-पिता को यहाँ बुला लिया जाए, तो हमें बस दो ही टिकट खरीदने पड़ेंगे। हम ऐसा करते हैं कि उन्हें यहाँ बुला लेते हैं और यहाँ उनकी सेवा करेंगे।”
“जैकी, मेरी बहन भी है और भाई भी। मैं उन सबसे नहीं मिला। एक लंबे अर्से से मैं अपने वतन नहीं गया। अपने परिवार के साथ जाने, वहाँ अपने परिवार को अपनों से मिलवाने का एक सुख होता है। मैं चाहता हूँ कि सब देखें मेरी कितनी सुंदर पत्नी है, कितने प्यारे से बच्चे हैं। मैं स्वयं भी चाहता हूँ कि जा कर देखें वहाँ सब कैसे हैं। फिर हमारे बच्चों को भी पता चले कि उनका कोई ददिहाल भी है।”
अब जैकी क्या जवाब दे? नरेन जिद न करने के लिए मशहूर है। जैकी जैसा कहती है, वैसा होने देता है—अपनी पसंद नापसंद जाहिर नहीं होने देता। उसने एक नया शौक पैदा कर लिया है—पढ़ने का शौक। हिंदी के उपन्यास पढ़ने लगा है। आजकल रामकथा पर आधारित उपन्यास पढ़ रहा है। जहाँ कहीं से पता चलता है कि अमुक लेखक ने रामकथा पर कुछ लिखा है, बस मँगवा लेता है अपने मित्रों से। दरअसल, उसके इलाके की लायब्रेरी में हिंदी की किताबें उपलब्ध नहीं हैं। सारा अंग्रेजी इलाका है। वह हैरो की लायब्रेरी का भी मेंबर बन गया है। वहाँ हिंदी के उपन्यास हैं मगर न जाने क्यों वहाँ स्तरीय उपन्यास नहीं दिखाई देते। वहाँ पेपरबैक टाइप नॉवेल मिलते हैं, जो कि रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर मिलते हैं। वैसे कहानियाँ भी पढ़ता है। उसे भीष्म साहनी, यशपाल, मंटो, इस्मत चुगतई, बेदी, और प्रेमचंद पढ़ने में आनंद आता है। उसका मानना है कि उपन्यास केवल एक बार नहीं पढ़ा जाता। पहली बार में केवल कौतूहल शांत होता है। यदि उपन्यास को समझना हो तो कम से कम दो या तीन बार पढ़ना ही चाहिए। जैकी तो अंग्रेजी बेस्टसेलर पढ़ कर खुश हो लेती है।
खुशी कैसे उड़नछू हो सकती है, नरेन को जल्दी ही समझ में आ गया। पूरी तैयारी हो गई थी। टिकटें खरीद ली गई थीं। सभी के लिए उपहार ले लिए गए थे। बच्चों के काम की सभी वस्तुएँ भी ली गई थीं। हीथ्रो हवाई अड्डे के टर्मिनल तीन पर पहुँच भी गए थे। वहाँ पहुँच कर पता चला कि रात को बेमौसमी बर्फ पड़ने के कारण हवाई अड्डा ही बंद पड़ा है। अभी कुछ ही घंटे हुए होंगे कि अचानक उद्घोषणा सुनाई दे गई कि हवाई अड्डे की कर्मचारी यूनियन हड़ताल पर चली गई है। दो-दो बच्चों को सँभालते नरेन और जैकी को समझ ही नहीं आ रहा था कि किया क्या जाए? एअरलाइन के अधिकारियों से बात करने का प्रयास हो रहा था। उन्हें बताया गया कि पास के एक होटल में उन्हें रखने का प्रबंध किया जा रहा है। जब हड़ताल खत्म होगी और बर्फबारी रुकेगी, तब तय होगा कि वे कब भारत जा सकते हैं।
एअरपोर्ट की अफरा-तफरी और खराब मौसम ने रंग दिखाया और जै को बुखार हो गया। जैकी ने अपने पर्स में से थर्मामीटर निकाला और जै की बगल में लगा दिया। नरेन और जैकी दोनों के चेहरों पर तनाव साफ दिखाई दे रहा था। बगल में थर्मामीटर मुँह के मुकाबले थोड़े लंबे अर्से तक रखा जाता है। करीब दो मिनट तक लगाए रखा। देखा एक सौ दो डिग्री बुखार, “अगर बगल में एक सौ दो है तो सही तौर पर तो एक सौ तीन बुखार होगा।” जैकी की परेशानी स्पष्ट रूप से जाहिर हो रही थी।”—अब क्या किया जाए?”
“चलो वापस घर चलते हैं। इस हालत में जै का विमान की यात्रा करना ठीक नहीं रहेगा। रास्ते में कुछ हो गया, तो क्या करेंगे।” और पूरा परिवार वापस घर की ओर चल दिया। भारत दूर था, दूर ही बना रहा…दूरियाँ बढ़ती रहीं। इस बीच माँ चल बसी।…वह फिर भी नहीं जा सका। वह जानता था कि पिता ने सबके सामने क्या कहा होगा, “अरे ऐसी औलाद का होना न होना बराबर है। जो माँ के मरने पर न आया, वो बेटा काहे का?…इन ससुरे पंजाबियों ने हमारे बेटे को हमसे छीन लिया। जो मार देते तो हम तसल्ली कर लेते कि मर-खप गया। यह तो ऐसी कील है जो रोजाना मन में चुभे है ।
यह कील हर पल नरेन के अपने दिल में भी चुभती रहती है। इस बुढ़ापे में सोचता रहता है। पुरानी कहावतें जिन्हें वह हमेशा बेकार की बकवास कह कर उड़ा दिया करता था, आज सच्ची लगने लगी हैं। कहावत पुरानी होते हुए भी आजतक सटीक है…’ बोए पेड़ बबूल का…’ जब उसने स्वयं ही अपने माँ-बाप का साथ नहीं दिया तो अपने बच्चों से कैसे उम्मीद कर सकता है कि उसके साथ खड़े हो जाएँ।
हमेशा पैसे वह स्वयं कमाता था मगर उसका हिसाब-किताब जैकी ही रखती थी। बच्चे भी माँ से ही पैसे माँगते थे। सच तो यह है कि उसे अपने ही बच्चों का उच्चारण समझ नहीं आता था। बच्चे किस स्कूल में जाएँगे, किस कॉलेज में पढ़ेंगे सब माँ ही तो तय करती थी। उसके हिस्से में एक बहुत अजीब काम आता था—कुढ़ना। वह अकेले बैठ कर कुढ़ता रहता था। वैसे जब-जब बच्चे तरक्की करते दिखाई देते तो मन ही मन खुश भी हो लेता। मगर वह जानता था कि इन बच्चों की परवरिश में उसका अपना कोई हाथ नहीं है। बस वह एक बैंक है, जिसमें इकतरफा कार्यवाही होती है यानी कि वहाँ से केवल पैसा निकाला जाता है; कभी जमा नहीं करवाया जाता। न तो धन ही जमा होता है और न ही भावनाएँ।
अब उसे गायत्री मंत्र में रुचि होने लगी थी। बच्चे कब चर्च जाने लगे कुछ खबर ही नहीं हुई। जैकी तो उसके साथ मंदिर भी चली जाया करती थी। मगर अब तो उन बातों को भी बीते एक अर्सा हो गया है। इस सबके बावजूद उसके मन में कभी नहीं आया कि वह जैकी को छोड़ दे। वह जानता था कि जैकी उसे प्यार करती है। शायद वह और कुछ मानना ही नहीं चाहता था।
जै के जन्म के समय उसके मन में तीव्र इच्छा ने जन्म लिया था कि उसका गोरा चिट्टा पुत्र हिंदी बोले। सोच कर ही रोमांच हो उठता था। उसने जै को बुला कर अपने पास बिठाया, “देखो बेटा, आपके दादा-दादी जो भाषा बोलते हैं उसे हिंदी कहते हैं। कल को तुम अपनी दादी से मिलोगे तो बात करने के लिए हिंदी आना जरूरी है।… आओ तुम्हें…”
“दादा-दादी क्या होता है?” नरेन को जोर का झटका लगा था।
“बेटा पापा के पापा को कहते हैं दादा और पापा की मम्मी को कहते हैं दादी यानी कि ग्रैंडमाँ।”
“मगर मेरी तो ग्रैंडमाँ है ना। मम्मी की मम्मी मेरी ग्रैनी है ना।”
नरेन जानता था कि वह हारने वाला है। मगर उसने हिम्मत नहीं छोड़ी। चेहरे पर गुस्सा नहीं आने दिया, “बेटा हर बच्चे के दो-दो ग्रैंड-पेरेंट्स होते हैं। दादा-दादी होते हैं पापा की तरफ से और नाना-नानी होते हैं मम्मी की तरफ से। आप अपनी नानी से मिले हो। हम दादी की बात कर रहे हैं। दादी हिंदी बोलती है। आओ तुम्हें हिंदी सिखाता हूँ।”
जैकी के कान खड़े हो गए, “अरे नरेन जै के खाने का टाइम हो गया है। वह अब अपना चिकन पास्ता खाएगा। तुम फिर कभी हिंदी पढ़ा लेना। अभी तो जै बहुत छोटा है।”
अपमानित नरेन एक बार फिर बिना लड़ाई लड़े ही हार गया था। रात को वह एक और प्रयास करने के बारे में सोचने लगा, “जैकी, तुम्हें नहीं लगता कि मेरे और जै के बीच कोई रिश्ता नहीं पनप पा रहा?”
“देखो नरेन, तुम अब भी पास्ट में जी रहे हो। तुम अब ब्रिटेन में रहते हो। तुम्हें यहीं के बारे में ही सोचना चाहिए। क्या तुम्हारा रिश्ता जै से तभी बन पाएगा अगर जै हिंदी सीखे तो?”
“तुम्हें कभी महसूस होता है जैकी, कि मेरा भी कोई कल्चर है, कोई मजहब है?”
“तुम उसी कल्चर और मजहब से भाग कर इस मुल्क में आए थे, नरेन। बच्चों को अगर दूसरी भाषा सीखनी ही है तो फ्रेंच या जर्मन सीखेंगे। उनके लिए नौकरी के नए आयाम खुलेंगे। हिंदी केवल भावनात्मक फंडा है। इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं।”
“ऐसा तुम कह रही हो जैकी? तुमने तो मुझे प्यार किया है!”
“याद रखो नरेन, बच्चों का भविष्य भावनाओं से नहीं, सच्चाई का सामना करके होता है।”
सच्चाई का सामना तो कर रहा था नरेन। उसके सामने जैकी के व्यक्तितत्व की नई-नई परतें खुल रही थीं।
जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जा रहे थे, जैकी की मसरूफियत बढ़ती जा रही थी। एक ही छत के नीचे रहते हुए भी पति पत्नी में कभी आत्मीय बातचीत नहीं हो पाती थी। बच्चों के जन्मदिन भी तभी मना लिए जाते जब वह अपनी नौकरी पर गया होता। घर वापस आकर पता चलता कि वह पुत्री के जन्मदिन का केक खा रहा है।
बचपन में कभी-कभी केक खाया करता था। मगर चॉकलेट केक वह कभी नहीं खा पाता। जै और शीला तो चॉकलेट केक ही पसंद करते हैं। भारत में जब कॉलेज में पढ़ता था तो लंदन के हैरो स्कूल और कॉलेजों के बारे में सुन-सुन कर गौरवान्वित महसूस करता था। सोचता कि नेहरू जी जब वहाँ पढ़ते होंगे तो कैसा माहौल रहता होगा। बच्चों के कॉलेज जाने का समय आया तो बहुत उत्साहित था नरेन। बहुत लाड़ से बोला, “जैकी, हम जै को हैरो वील्ड कॉलेज में ही भेजेंगे। मुझे इस नाम से एक अपनेपन का रिश्ता सा लगता है।”
“नरेन, आपको यहाँ के एजुकेशन सिस्टम के बारे में कुछ पता तो है नहीं। यह काम मुझ पर छोड़ दीजिए। मेरी कोशिश होगी कि जै को सेंट डॉमिनिक्स में हैरो ऑन दि हिल पर एडमिशन मिल जाए। हमारे इलाके का बेस्ट कॉलेज है।…हाँ एक बात और…यह कॉलेज आपके नेहरू जी के स्कूल के बहुत करीब है। सिर्फ कॉलेज के नाम में हैरो नहीं है। मगर हैरो ऑन दि हिल पर ही है।”
एक बार फिर बेवकूफ बना। बच्चे ना तो उसे कुछ बताते हैं और ना ही कुछ पूछते ही हैं। टेनिस खेलने जाना हो तो जैकी…पियानो सीखना हो तो जैकी…ट्यूशन टीचर के लिए भी जैकी। उस पल को कोसने लगा जब अपनी पगार के लिए जॉयंट अकाउंट का नंबर अपने दफ्तर को दिया था। अगर उसका अकाउंट अलग से होता तो कम से कम पैसे माँगने के बहाने ही बच्चे और जैकी उससे अदब से बात करते। जैकी के सामने एक बार बिछना शुरू किया तो बस बिछता ही गया। अब कदम वापस लेने की कोई गुंजाइश नहीं थी।
बच्चे बड़े हो कर अपने-अपने घरों में बस गए। घर में केवल पति पत्नी ही रह गए मगर दोनों के बीच का अजनबीपन गहराता गया।
उसे हैरानी नहीं हुई जब उसे अपने ही बच्चों के विवाह में एक मेहमान की तरह बुलाया गया। लड़की पसंद करने जैसा तो कोई मौका ही नहीं मिलने वाला था। बच्चों ने अपने होने वाले जीवन साथियों को बस माँ से मिला दिया और हो गई हाँ। उसने सोचा भी कि क्या विवाह में उसके बदन का रंग आड़े नहीं आएगा। अब तो ब्रिटेन में रंगभेद खत्म होने के कगार पर है। शायद सबको आदत हो गई थी। उसे महसूस हुआ कि अंग्रेजों के मन में एक अपराधबोध बस गया था। उन्होंने सदियों तक पूरे विश्व में राज किया था। आज वे अपने तथाकथित गुनाहों का हर्जाना भर रहे थे। पूरी दुनिया के शरणार्थी जैसे इसी मुल्क में आकर बसना चाहते थे। देश के नाम पर एक छोटा सा द्वीप, कितनी आसानी से इतने लोगों को नया घर प्रदान कर देता है। यहाँ हर मजहब के मानने वाले अपना-अपना पूजा-स्थल बना सकते हैं। काश यह सब विश्व के तमाम देशों में संभव हो पाता। फिर भला ऐसे देश में उसके परिवार ने उसे अकेला क्यों छोड़ दिया है।
आज के अकेलेपन में मुकेश, रफी, किशोर कुमार के गीतों का ही सहारा था। पुराने जीवन के बारे में सोचता है तो पारसमणि फिल्म का एक गीत दिमाग को मथने लगता है—’वो जब याद आए, बहुत याद आए / गम-ए-जिंदगी के अँधेरे में हम ने / चराग-ए-मुहब्बत, जलाए बुझाए।’ एक दिन सोचने लगा आखिर यह गीत लिखा किसने होगा? उसे ले-दे कर पाँच छह गीतकारों के नाम याद थे। कई दिनों तक उलझता रहा और सोचता रहा। दो तीन मित्रों को दिल्ली में फोन करके पूछा। भला किसके पास समय था ऐसे बेवकूफी भरे सवाल के लिए। एक मित्र ने सुझाया कि भाई मेरा तो एक नया दोस्त बना है…उसका नाम है मिस्टर गूगल ! बस तुम भी गूगल और फेसबुक से जुड़ जाओ। परिवार की याद ही नहीं आएगी।
फारूख कैसर का नाम जानने के लिए लैपटॉप खरीदा। इंटरनेट से दोस्ती की और अपने लिए एक काल्पनिक दुनिया का निर्माण कर लिया। अब पत्नी और बच्चों के चेहरों की याद भी नहीं आती थी क्योंकि फेसबुक के चेहरे ही उसका परिवार बन गए। सुबह, दोपहर और शाम के अलग-अलग मित्र। बिना एक-दूसरे को जानते हुए भी अपने-अपने दुख-सुख साझा कर लेते थे। उसके भीतर का कवि जो कि लेक डिस्ट्रिक्ट में रह कर भी सक्रिय नहीं हो पाया, वह अचानक फेसबुक के मित्रों के बीच अपने मन की बात कहने लगा। उसने कुछ ग़ज़लें भी कह लीं। फेसबुक ने उसे नया जीवन प्रदान कर दिया था।
यू-ट्यूब पर पुराने गाने न केवल सुन ही सकता था बल्कि देख भी सकता था। जो फिल्में वह जीवन भर नहीं देख पाया, अब उन सभी फिल्मों का आनंद अपने लैपटॉप पर उठाता। कभी-कभी सोचता भी था कि वह क्यों अपनी पत्नी के साथ रह रहा है? उसे हासिल क्या होता है? मगर फिर जल्दी ही अपने आप को समझाने लगता। अपने पिता की कही हुई बात उसके कानों में गूंजने लगती, “जीवन साथी का कोई विकल्प नहीं होता। विवाह का अर्थ है निभाना।” जब पिता ऐसी औरत के साथ निभा सकते थे जिससे विवाह से पहले कभी कोई मुलाकात तक नहीं हुई थी, उसने तो जैकी के साथ प्रेम-विवाह किया था।
यह भी सच है कि उसे जैकी से कोई शिकायत नहीं है…वह स्वयं ही तो पीछे हटता चला गया। उसने कोई प्रयास ही नहीं किया कि बच्चों के साथ जुड़ सके। उसके भीतर के रैगरपुरिये ने कभी उसे यह हिम्मत ही नहीं करने दी। वह बस सोचता रहा, सोचता रहा और पीछे हटता रहा। उसके हाथों से उसकी जमीन फिसलती जा रही थी। वह अपने गोरे चिकने बच्चों के सामने हीन महसूस करता रहा। उनके स्कूल जाने से बचता रहा। उनके मित्रों के सामने कभी नहीं आया। क्या पूरे का पूरा दोष उसकी पत्नी और बच्चों का ही है?
उसकी सोच उसके अकेलेपन के बहुत काम आती है। वह पीछे मुड़ कर अपने जीवन की समीक्षा करता है। सोचता है ‘परिवार’ रचने से पहले मनुष्य बर्बर, जंगली था। परिवार की संकल्पना ने ही उसे जानवर से इनसान बनाया…समाज की रचना की…यदि मनुष्य से उसका परिवार ही छिन जाएगा तो फिर आखिर कैसे जिएगा मनुष्य? उसके पास अपनी पत्नी है…एक पुत्र है एक पुत्री है…पोता-पोती और दोहते भी हैं…एक अच्छा भला घर भी है…फिर उसका परिवार कहाँ है?
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(साभार : ‘ब्रिटेन की प्रतिनिधि हिंदी कहानियाँ’, संपादक- जय वर्मा, प्रकाशक- प्रलेक प्रकाशन, मुंबई)
