
डॉलर वाले बैंगन जी
– नूपुर अशोक
देशी आदमी जब दोस्तों को इम्प्रेस करना चाहता है तो उन्हें पिज़्ज़ा और बर्गर खिलाता है। वही देशी आदमी जब विदेश पहुँचता है तो रोज़ पिज़्ज़ा बर्गर खाते हुए इस आशा से अपना स्टेटस अपडेट पोस्ट करता है कि हर अपडेट के साथ वह स्वयं को अपडेटेड घोषित कर रहा है और उसकी स्टेट्स में भी इजाफा हो रहा है। लेकिन एक सप्ताह के बाद उसे पिज़्ज़ा और बर्गर की शक्ल वैसी ही लगने लगती है जैसी आज के लड़कों को दो महीने बाद गर्लफ्रेंड की सूरत लगने लगती है- आज भी वही?
जैसे महिला-पुरुष-समानता-शिविर में भाग लेने आई तन्वंगी सुंदरी जिस सौभाग्यशाली पुरुष प्रतिभागी के चाय के निमंत्रण को स्वीकार करती है वह सातवें आसमान पर विचरण करने लगता है। लेकिन जब वही सुंदरी ‘चाय’ के साथ भारी-भरकम ‘शाय’ का बिल उन्हें थमाकर, समानता की बातें ताक पर रखकर उन्हें टा-टा करके चल देती है तो उन्हें बिना किसी बिल के रोज़ चाय पिलाने वाली अपनी बेरौनक़ पत्नी वाली ज़मीन याद आने लगती है। ठीक उसी तरह विदेश प्रवास के एक सप्ताह बाद आपको घर की दाल-रोटी की याद सताने लगती है।
इसी याद के सताए हुए हम अपने विदेश प्रवास के एक सप्ताह के स्वर्णिम समय की अवधि पूर्ण करने के उपरांत वहाँ के सब्ज़ी बाज़ार पहुँचे। अंडरग्राउंड कार पार्किंग, वातानुकूलित भवन, एस्केलेटर लगे प्रवेश द्वार – हम कृष्ण के महल के बाहर खड़े सुदामा की मनोदशा उस समय समझ पाए।
बाजार में सब्ज़ियाँ भी इज़्ज़त के साथ शेल्फ में सजी हुईं। हमारे देश के गाँवों में तो आज भी दलित आदमी किसी कुर्सी पर बैठने में भी हिचकता है, पता नहीं कब कोई लात मार कर धकिया दे। यहाँ सब्ज़ियों की शान देख लो, जिस पंक्ति में ब्रोकोली अकड़ रही है, उसी के पास बेअदब मूली भी इतरा रही है। यही ब्रोकोली जब हमारे देश आती है तो अपने विदेशी मेहमानों की तरह हम उसे पूरा सम्मान देते हैं। अदना गाजर-मूली को तो उसके साथ सटने भी नहीं देते। उसे बाकायदा इज्ज़त से अलग टोकरी में सजा कर रखते हैं।
कोंहड़ा तो हमारे यहाँ मुख्य सब्जियों के पीछे कहीं फेंका हुआ सा, कटा-फटा सब्जी विक्रेता के चाकू प्रहार की प्रतीक्षा में भयभीत सा पड़ा रहता है। उसे अपने घर साबुत तो कोई ले जाने से रहा। एकाध टुकड़ा ही जाएगा और वह भी खाने की मेज़ पर क्रिकेट टीम के बारहवें खिलाड़ी की तरह मुंह लटकाए पड़ा रहेगा। वही उपेक्षित कोंहड़ा यहाँ बाकायदा एक चौथाई टुकड़े में कटा, सेलोफेन में लिपटा, बारकोड के साथ 2 डॉलर का प्राइस टैग दिखाकर मुँह चिढ़ा रहा था। जिसे आज तक हमने पच्चीस रुपए के लायक नहीं समझा उसकी कीमत दो डॉलर यानी सौ रुपए से भी अधिक?
आगे बैंगन जी सजे थे। बैंगन ‘जी’ इसलिए क्योंकि जिस मुए बैंगन को हमने देश में मुंह भी नहीं लगने दिया था, उसे हाथ लगाने के लिए जब 7 डॉलर यानी साढ़े तीन सौ रुपए चुकाने पड़ें तो उसे ‘जी सर’ तो कहना ही पड़ेगा।
उस दिन मुझे समझ आया कि अपने मुहल्ले के मास्टर साहब के फिसड्डी बेटे ने ‘उल्लू के पट्ठे’ से ‘जी सर’ की यात्रा कैसे तय की। जिसे अपने देश की धरती पर कोई स्कूल पास होने देने के लिए तैयार नहीं था और कोई कॉलेज लेने के लिए भी नहीं, वह हवाई मार्ग से विदेशी धरती पर आकर यहाँ की किसी सुसज्जित शेल्फ में बैठा इतरा रहा था। यहाँ से जब वह अपने डॉलर वाले अवतार में वापस अपने देश में अवतरित होता है तो सारे लोग उसे ‘जी सर, जी सर’ कहकर ही संबोधित करते हैं।
उस दिन वह विदेशी बाज़ार मुझे कुरुक्षेत्र की तरह लग रहा था जिसमें बड़े-बड़े महारथी, जिन्हें हम अभी तक फूल गोभी, बंधा गोभी, पालक, बैंगन कहकर हिकारत की नज़र से देखते थे वे सभी कौली फ्लावर, कैबेज, स्पिनेच और एगप्लांट जैसे नामों के टैग लगाए अपने डौलर वाले दामों की तलवारें मेरी ओर चमका रहे थे- कोई तीन सौ, कोई चार सौ- पाँच सौ! उस दिन मुझे कृष्णवर्णी बैंगन ने महाज्ञान दिया – “देखा तुमने, अभी तक तुम मुझे काली-कलूटी-बैंगन-लूटी कह कर चिढ़ाते रहे। मुझे खाने की मेज़ पर देखते ही नाक-भौं चढ़ाते रहे। इसीलिए मुझे अपने देश की धरती का त्याग कर यहाँ आना पड़ा। यहाँ एग्प्लान्ट का नाम पड़ते ही मेरी कीमत भी बढ़ गई और इज़्ज़त भी। आज तुम भले ही अपने सात डॉलर बचाकर निकल जाओ लेकिन सत्य यही है कि तुम एक दिन लौट कर आओगे और मुझे मेरी कीमत अदा कर इज्ज़त के साथ लेकर जाओगे क्योंकि अब तुम जान चुके हो कि यह पिज्जा-बर्गर की दुनिया केवल माया है। असली संतुष्टि मेरे अंदर ही है।“ उसी बैंगन की कसम, हमने मास्टर जी के बेटे सहित देश के अन्य सभी बैंगनों से क्षमायाचना की, चुपचाप डॉलर वाले ‘बैंगन जी’ को उठाया और ससम्मान अपने थैले में स्थापित किया।
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