
ललित निबंध कृति “नदी तुम बोलती क्यों हो” की भूमिका का अंश
निबंध-लेखन की पुरानी और समृद्ध परम्पराओं में जब ललित निबंध आया तो उस निबंध के बारे में यही धारणा बनी कि यह तो कोमलकांत पदावली की तरह होता है जिसका उद्देश्य लोकरंजन है और इसके लेखक चूँकि साहित्य के मनीषी विद्वान् हैं इसलिए यह साहित्यिक विधा है, ये कम लिखे जाते हैं इसलिए विरल विधा है। इस सोच ने इस विधा का बहुत अहित किया। इससे ज़्यादा अहित उस प्राध्यापकीय शैली ने किया जो इन निबंधों पर हावी हुई अपने पांडित्य को दर्शाने के चक्कर में और जिसकी वजह से यह आम पाठक से दूर होते गए। ललित निबंध ऐसे भी हो सकते हैं, जो ज़्यादातर पढ़नेवालों की समझ में आएँ, जिनमें स्पष्ट निष्कर्ष हों, जो अपने अतीत की उत्कृष्टता से परिचित कराते हुए बिना वादों प्रतिवादों और मत-मतांतरों में उलझे मनुष्य की बेहतरी के लिए लिखे जाएँ।
बहुत संभव है इस विराट साहित्यिक हिन्दी जगत् के विदग्ध मनीषियों, मौलिक रचनाकारों और अपने शाश्वत साहित्यिक अवदान के लिए चर्चित रहने वाले महाव्यक्तित्वों के सोच के बीच मेरी यह धारणा अछूत समझी जाए, इसे हास्यास्पद करार दिया जाए, लेकिन इतना ज़रूर है कि इसी दृष्टि से जो ललित निबंध मैंने लिखे हैं उन्हें पढ़कर वे लोग ज़रूर स्पंदित हुए जिनके लिए, जिनके बारे में और जिनकी पहिचान को शब्द देने के लिए मैंने ये ललित निबंध लिखे। मुझे लगा कि ऐसे ललित निबंधों ने उन्हें गहरे छुआ है और फिर एक के बाद दूसरा निबंध स्वतः रचा जाता रहा। यह कृति ऐसे ही सुधि पाठकों की प्रेरणा का प्रतिफल है। ये पाठक ग़ैर-साहित्यिक ज़रूर कहे जा सकते हों लेकिन किसी लेखक के लिए इससे बड़ी क्या उपलब्धि होगी कि वह जिस उद्देश्य के लिए लिख रहा है वह उसे पूरा होता दिखाई दे !
जड़ कोहेनूर का नूर, बेनूर मगर स्पंदित कंकर के सामने बड़ा फीका और प्राणहीन है। कोहेनूर की तरह मुकुट में जड़ा जाकर, इतिहास में पड़े रहकर निर्वासन की पीड़ा भुगतने से यही अच्छा है कि नर्मदा किनारे कंकरों के बीच कंकर की तरह रहो और नर्मदा के सहज और निर्मल प्रवाह को आत्मसात् करते उसे बाँटने की कोशिश करो।