1. प्राण रिसाव
हम धीरे धीरे खत्म हो रहे थे,
जैसे एक बादल बूँद-बूँद बरस रहा हो-
देर तक हवा में झूलने की इच्छा लिए हुए।
हम कम-कम ख़्वाब देख रहे थे,
मानो सारा ख़्वाब आज ही देख लिया तो
सारी साँसें भी आज ही ख़तम हो जाएँगी।
हम और जीना चाहते थे
लेकिन धरती भारी हुई जा रही थी
और हमारा मरना कब से ही तय था।
हमारे पास नीले गुलाब थे
लेकिन अनदेखे लाल गुलाब की अबूझ आस ने
सांस को जन्मों तक अटकाए रखा।
हमारी हड्डियाँ चुरा हुए जा रहीं थीं
और हम दिन रात.. नाहक ही प्रेम-प्रेम रट रहे थे।
कोई तमाशा चल रहा था आँखों के आगे,
टांगें मरगिल-सी थीं,
किन्तु मन.. ठुमकता रहा प्राण रहने तक।
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2. समाज
बेड़ियाँ शब्दों की,
दीवार विचारों की,
ताने बदरंग सोच के,
इन सबके पीछे छिप कर
समाज अदृश्य रहता है।
मगर दृश्य में है स्त्री,
दृष्टिगोचर है उसका
गर्वित मस्तक।
सार्थक सत्य-सा
चमकता है औरत का
आत्मविश्वास कर्म रूप में।
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3. मानव
तुम हिन्दू हो,
तुम मुस्लिम हो,
तुम सिख हो,
तुम ईसाई हो,
तुम कश्मीरी हो,
तुम जाट,
तुम राजपूत,
तुम मराठा,
तुम मद्रासी हो।
इतने-इतने हिस्सों में
परतंत्र बनाया गया तुमको
कि
तुम तो भूल ही गये कि
तुम्हारी स्वतंत्र पहचान
क्या रही होगी!
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4. उपहार
इतनी अँधेरी गुफाओं में
मुँह छिपा कर
रोने से क्या होगा लड़की?
नयन जल की लकीरें
किसी उबटन से न मिटेंगी।
जिसने तुम्हें वो अश्रु दिए हैं
कहो उससे कि
अस्वीकार किया तुमने
उसका यह उपहार!
उठो, जाओ,
उस क्रूर देवता को
पुन: समर्पित कर आओ
उसकी यह भेंट।
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5. रिक्त स्थान
कितने सारे रिक्त स्थान हैं वहाँ!
स्कूल की किताबों सें
सीखा हमने
‘शब्दों’ से रिक्त स्थान भरना,
जीवन की कापी में मगर
रिक्त स्थान भरना
किसी ने न सिखाया।
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6. लड़का – स्त्री देह में
मुंडेर पर पाँव झूलाता है, सामने
देखता है झूले पर उमगती लड़की
बचपन से सीखा था उसने,
लड़के पतंग उड़ाते हैं
कबड्डी खेलते हैं
तैर कर नदी पार जाते हैं,
झूला लडकियां झूलती हैं,
श्रृंगार के लिए आइना देखती हैं
हंसी ठिठोली में शाम नष्ट करती हैं
तब से झूले पर नहीं बैठा वो
हैरानी होती उसे कि
उसके भीतर कोई स्त्री तत्त्व नहीं रहता!!
जो कुछ था वो क्यों बस पुरुषत्व था?
स्त्री पुरुष का अलगाव उसे बुरा लगता
धारणाओं से लड़ना चाहता था
चाहता था कि उसकी बावरी
खेतों में उसके साथ दौड़े
तैर कर नदी पार चले
चाहता था कि बावरी के झूले में
वह भी सवार हो चाँद छू ले
कल्पनाओं में कई बार
घेरदार घाघरा चुनर ओढ़
बावरी-सा घूमर नृत्य किया उसने
आईने के आगे काजल पहना
माथे पर टिकुली सजाई
कई बार बढ़ाई झूले पर पेंग,
कई बार सेकी बाजरी की रोटी
अपने हाथों से खिलाई प्याज संग
अपनी रूपमती स्त्री को, उसके
पग पखार पंखा झलता रहा
तभी खेत से गुजरती हुई
माँ सामने आ खड़ी हुई उसके
कल्पनाएँ हलकी थी, हवा हुई
माँ के आगे नज़र न उठा पाया
झेंप कर मुंडेर से गिर पड़ा वो
बावरी ने लपक कर थामा
खुद लोट गई उसके पाँव तले
माटी सनी उसकी देह
पुरुषत्व को लगी बल देने…
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7. अनन्त ( इंफीनिटी )
जैसे जैसे उम्र बढ़ रही है,
गणित के प्रति मेरी कड़वाहट कम होती जा रही है,
‘बड़े होकर हमें कोई आर्यभट्ट तो बनना नहीं’,
स्कूल के दिनों की, यह झल्लाहट भी समाप्त होती जा रही है।
प्रतीत होता है जैसे मेरे रोज़मर्रा के कार्यों में
आकर चुपचाप उपस्थित हो गया है गणित।
घड़ी की सुईयों के साथ,
मेरा दिन विभाजित होता है पहर-पहर…
आटे, दाल, चावल, की मात्रा
गुणा होता है घर में उपस्थित सदस्यों के अनुसार ,
सब्जी में नमक की गणना
टी स्पून के ग्राम से दर्ज कर लेती हूँ,
शरीर पर चर्बी न चढ़े,
तेल घी में इसका भी हिसाब रख लेती हूँ।
रोटी बनाते समय ज्यामिति की उपयोगिता काम में लाती हूँ,
वैसे तो चलन वृत्ताकार रोटी का ही है,
किन्तु कभी त्रिभुज अथवा कभी चतुर्भुज आकार का बना परांठा,
भोजन में नयापन ले आती हूँ।
जीवन की सारी रेखाएं परिवार और दोस्तों तक पहुंचती हैं,
इन रेखाओं के किसी बिंदु पर ठहर कर दो घड़ी विश्राम पा जाती हूँ,
और किसी बिंदु पर ठहर गीत भी गा लेती हूँ।
दोहा, सोरठा, छंद, ग़ज़ल लिखने में
मात्रा की गिनती का जमा घटाव भी कर लेती हूँ,
कितना नपा तुला शब्द कहना है
इसका अनुमान तनी हुई भृकुटि या चौड़ी मुस्कान से लगा लेती हूँ,
किन्तु शब्दों को तोलने का तराजू अब तक कहीं बना नहीं,
तभी कभी-कभी कोई शब्द किसी को कर जाते हैं आहत,
और कभी बनते हैं ख़ुशी का सबब…
ग्राफ पेपर पर बने ग्राफ़ के समान
ऊबड़-खाबड़ चलती है ज़िन्दगी,
कभी ऐसी ऊंचाई तक ले जाती है कि
ऊंचाई पर पहुँचने का आनंद बहुगुणित हो जाता है,
और कभी इतना नीचे है गिराती कि
होता है कठिन स्वयं से नज़रें मिलाना।
कितने सारे समीकरण बन कर टूट गए, यह टूटे रिश्तों ने सिखाया,
कितने सारे प्रमेय घेरे खड़े रहे जीवन पथ की परिधि और त्रिज्या।
हाँ, देखो न, मैंने सीख लिया है कि
उदासी के दिनों में दुःख बढ़ता है चक्रवृद्धि ब्याज के समान,
और सुख की कामना है…
जैसे अनन्त पथ पर कभी न समाप्त होने वाली यात्रा।
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8. औचक विदा
कच्ची नारंगी धूप हो गई माँ
पकी नीम की छांव हो गई माँ
कुछ मीठा कुछ खट्टा स्वाद आम का
जूने अचार की गंध हो गई माँ
गुलमोहर का लाल ओड़ लिया
पीले चम्पा के फूल हो गई माँ
ताज़ी हल्दी, पीसी अदरक
कसूरी मेथी की याद हो गई माँ
ऐसे कैसे, कुछ कहे बिना
धरती से आसमान हो गई माँ?
माता रानी, होठों की मुसकान से
क्यों आँख का आँसू हो गई हो माँ?
चौखट की काठी, आँगन का बिरवा,
तुलसी चौरा, घर में बहती हवा हो गई माँ
कल तक यहीं थी हँसती बोलती, उठते बैठते
धम् से औचक विदा हो गई माँ।
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9. मैं शब्द तुम्हारा
बहुत समय से मैंने कोई पत्र नहीं लिखा,
बहुत समय से मैंने कोई पत्र नहीं पाया,
हाँ, तुम्हारे सारे पत्र खूब संभाल कर रखे हैं मैंने,
उठा कर अक्सर पढ़ती रहती हूँ उन्हें,
शायद तुम्हें मालूम हो कि
उन पत्रों की महक, शब्दों से अधिक चंचल है!
कभी-कभी मुझे सम्पूर्ण सुवासित कर जाते हैं!
तब मैं यह सोचती हूँ,
स्वयं से ही पूछती हूँ,
क्या प्रेम जितना पुराना होता जाता है,
उतना अधिक प्रबल होता जाता है?
तुम चाहे जो भी कहो मुझसे, लेकिन
मैं तो हर बार यही कहती हूँ तुमसे,
कि तुम, मुझसे अधिक प्रेम नहीं करते!
किन्तु देखो न, कितना महकती हूँ मैं!
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10. अधूरेपन का असबाब
अधूरे, कितने अधूरे!
सपने, बिखरे सपने!
मुआफ़ी, हज़ार मुआफ़ी!
हालात, बेक़ाबू हालात!
तुम, बेख़बर तुम?
नींद, गाफ़िल नींद!
याद, फ़लसफ़ानी याद!
साँस, आख़िरी साँस!
निगाह, अधूरी निगाह!
बात अधूरी, आह अधूरी,
राह अधूरी, चिट्ठी अधूरी,
रात अधूरी, आस अधूरी!
अभी तो दूर तक जाना है सनम,
क्यूँ अधूरेपन का असबाब ले चलें?
जहाँ रख छोड़े थे, वहीं से उठाओ ज़रा,
हम अपने पूरे-पूरे ख़्वाब ले चलें।
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-पूजा अनिल