बेक्ड-बीन्स

दिव्या माथुर

सुपरमार्केट के यूँ ही चक्कर लगते हुए बुढ़िया ने ग्राहकों और लोगों की नज़र से बचते हुए दो छोटे टमाटर और कुछ लाल अँगूर मुँह में रख लिए थे। जब तक वह अपने पति की व्हील-चेयर को घसीट कर सुपरमार्केट तक ला सकती थी; वह भी यही करता था; किंतु सीना ठोक कर क्योंकि उसने ताउम्र टैक्स भरा था। हालांकि उन्हें पेंशन मिल रही थी किन्तु उन दोनों की पेंशन का एक बड़ा हिस्सा उनका सहायक डैरन डकार जाता था क्योंकि अक्षम बूढ़ा और गठिया से लाचार बुढ़िया पेंशन लेने पोस्ट-ऑफिस अथवा बैंक नहीं जा पाते थे। यह अलग किस्सा है। कभी कभी बुढ़िया अकेले बड़ी कठिनाई से सुपर-मार्केट पहुँच पाती थी; डॉक्टर के उपदेश आदेश बस यही थे कि चलना बंद किया तो वह भी बूढ़े की तरह व्हील-चेयर पर बंध कर रह जाएगी। कम से कम बस और ट्रेन में सफ़र फ़्री ही पर उनके स्टेशन पर लिफ़्ट नहीं है, पच्चीस सीढ़ियाँ चढ़ना उतरना अब उसके लिए आसान नहीं रहा।

हाई-स्ट्रीट घर से करीब पाँच सौ कदम पर थी; दुकानें वहाँ भी थीं पर सुपरमार्केट से काफ़ी महंगी। मैकडोनाल्ड में वह सांस लेने को ठहर जाती थी, वहीं वह बाथरूम से भी निबट लेती; जहां से वह कुछ टिसूज़ फाड़ कर अपने बैग में ठूंस लेती थी; जब खाने के भी लाले पड़े हों, ऐसी विलासितापूर्ण सामान के लिए वे कहाँ से पैसे जुटाऐं। बुढ़िया को लाचार बैठा देख, कभी कोई दयालु ग्राहक उसके सामने चाय का गिलास रख जाता तो कभी वहाँ की सफ़ाई कर्मचारी उसे फ़्री में चिप्स पकड़ा देती, जिसमें से आधे से ज्यादा बचा कर वह पति के लिए घर ले जाती। 

‘ब्लडी स्टोन-कोल्ड,’ शिकायत करता हुआ बूढ़ा उन्हें फटाफट सपोट जाता।

कल दोपहर बुढ़िया ने साठ पैंस के एक छोटे दूध के कैन की जगह बेक्ड-बीन्स के दो कैन्स खरीद लिए थे, जिनमें से एक को पति-पत्नी ने आधा आधा बाँट कर खा लिया था, वो भी बिना डबल-रोटी के। चाय के कप में पुराना बासा दूध डाला तो चाय फट गई, टी-बैग बर्बाद हुआ सो अलग, बूढ़े ने फुफकारते हुए फटी चाय पीने से साफ़ इनकार कर दिया।   

फटे दूध की चाय लिए बुढ़िया मेज़-कुर्सी पर बैठ गई और, रोज़ की तरह, अपने मोबाइल फ़ोन पर बेटी लाना को एक संदेश भेजा। लाना ने आज तक उसके एक भी संदेश का जवाब नहीं दिया। शायद उसने अपना नंबर बदल लिया हो। छै महीने पहले उनका वाई-फ़ाई काट दिया गया था पर बुढ़िया ने संदेश लिखने नहीं छोड़े। गैस-बिजली के बिलों का भुगतान डैरन ­करता नहीं था। जब भी वह उसकी मनुहार करते, वह कहता, ‘डोन्ट वरी, बूढ़ों की गैस-बिजली कंपनी नहीं काट सकती, पर वे बीमार पड़ गए तो उनकी देखभाल कौन करेगा, कौन उन्हें घर बैठ कर खिलाएगा? यदि उन्हें बूढ़ा घर भेज दिया गया तो डैरन उनका पुश्तैनी घर भी हड़प लेगा। 

बुढ़िया को तसल्ली थी कि, चाहे कसैला ही सही, उसके हाथ में फटी चाय का कप गरम तो है। बार बार गुसलखाने के चक्कर लगाते भूखे पेट रात गुज़ारना आसान नहीं था; बिस्तर में जो थोड़ी बहुत गरमाई होती, वो झट से निकल जाती है। हीटिंग का स्विच औन करते उन्हें डर लगता था, मीटर ऐसी तेज़ी से भागता कि जैसे उसे कोई रेस जीतनी हो। तीन-चार कपड़ों की तह पहने रहने के बावजूद भी वे ठिठुरते रहते। बुढ़िया अस्सी की थी और बूढ़ा चौरास्सी का, मौत के साये तले जीते उन्हें लगता कि जैसे अकेले रहते सदियाँ गुज़र गयीं हों, उनके द्वार कोई नहीं आता – बेटी, दूधवाला, पोस्टमैन, यमदूत – उनका घर का पता शायद सब भूल चुके हैं। अड़ोसी पड़ोसी के नाम पर बाईं ओर वाले पिछले वर्ष एक के बाद एक चल बसे और दायीं ओर वाली बुढ़िया को बूढ़ाघर भेज दिया गया। दोनों मकान उजाड़ पड़े हैं, खर-पतवार सामने वाले मकान में रहने वाले एशियन नौजवानों से लंबे हैं जो सुबह के निकले, रात को न जाने कब लौटते होंगे, अल्ल सुबह या सप्ताहांत पर उनकी परछाइयाँ भर दिखती हैं। बूढ़ा उन्हें देख कर अपने दाँत पीसने लगता है जैसे उसकी सारी परेशानयों की जड़ वे ही हों।      

सुबह दोनों देर तक बिस्तर में पड़े रहते हैं, निकल के भी क्या करें, रसोई में दूध तक नहीं है, बिजली बचाने की खातिर फ्रिज बंद है। रसोई की मेज़ पर बैठे बूढ़े दम्पत्ति के दिमाग में केवल एक ही बात घूम रही है – बीन्स का एक कैन बचा है, इसे नाश्ते में खा लें तो दोपहर के भोजन का क्या होगा? फ़ूड-बैंक या गुरुद्वारे वाले कई दिन से नहीं दिखे, शायद आज कुछ भोजन ले आयें; अभी तो कुछ पेट में जाए।

बुढ़िया ने इकलौते कैन को मेज़ पर रखा, गठियाई उंगलियों से उसे खोलना आसान नहीं था।

‘ब्लडडी ओपन इट, वुमन,’ बूढ़ा जानता है कि उसके सम्बोधन ‘वुमन’ से पत्नि मधुमक्खी की तरह भिनभिना उठेगी।

घृणा से पति की ओर देखते हुए बुढ़िया ने अपना सारा क्रोध कैन पर निकाला, जो खुलते ही वह हाथ से फिसला और फ़र्श पर बिखर गया।

‘बेवकूफ़ औरत, गरीबी में आटा गीला। एक काम भी ढंग से नहीं होता तुमसे,’ दाँत पीसते हुए बूढ़ा अपना सिर थामे आराम कुर्सी पर ढेर हो गया।

‘बेवकूफ़ होगे तुम, जानते हो कि मुझसे ढक्कन आसानी से नहीं खुलते, अब कभी तुमने मुझसे कैन या बोतल खोलने को कहा न तो मैं उन्हें तुम्हारे सिर पर दे मारूँगी, देखना,’ बूढ़ा जानता था कि गुस्से में वह ऐसा कर भी सकती है, अब तो वह उसे रोक भी नहीं सकता; अपनी इज़्ज़त अपने हाथ; वह भीगे बिल्ले सा अपनी कुर्सी में दुबक गया।

भूख से कुलबुलाते पेट, लचपचाती जीभ और धूल भरे फ़र्श पर बिखरी बेक्ड-बीन्स पर नज़र टिकाए बूढ़ी सोच रही थी कि यदि इसे न खाया तो संभवतः कल दोपहर तक भूखा रहना पड़े। तब भी कौन सी गारेंटी है कि डैरन उनकी पैंशन लेकर सीधा घर आएगा और आएगा भी तो कितनी उनके हाथ में धरेगा। शुरू-शुरू में तो वह बीस या पच्चीस पर फ़ी सदी काट कर पैंशन उनके हाथ में रख दिया करता था, बाकी के पैसे कभी उधार के रूप में रख लेता, तो कभी बीवी-बच्चों का रोना रोता, उधार चुकाने की उसने कभी सोची ही नहीं। धीरे धीरे उसका लालच बढ़ता चला गया। पिछले तीन महीनों से वह तीन या चार डबलरोटियाँ, छै दर्जन अंडे और एक दर्जन बेक्ड-बीन्स के कैन्स रसोई में रख कर गायब हो जाता था। ब्रैड-बीन्स खा खाकर वे उकता गए थे। बेकन, सौसेजस, टमाटर तो अब उनके सपनों में भी नहीं आते। क्या करें, किससे शिकायत करें? बूढ़ों की मार पिटाई और हत्या तक के वे कई किस्से सुन चुके थे, डैरन ही उनको ऐसे समाचार पढ़ कर सुना दिया करता था।

‘मेरा मोबाइल फ़ोन काम करता तो मैं परिषद से डैरन की बेईमानी की शिकायत कर देती, जो होता सो होता, कमबख्त ने हमें पैसे पैसे को मोहताज कर दिया है,’

‘हाथ-पैर तोड़ देगा तो ..’ बूढ़ा भयाक्रांत हो उठा। पिछली बार जब डैरन बूढ़े को पार्क में घुमाने ले गया था तो किसी से फ़ोन पर बातें करते हुए क्रोध में आकर उसने बूढ़े की व्हील-चेयर ढलान पर लुढ़क जाने दी थी। ‘हैल्प-हैल्प’ मिमियाते बूढ़े को देख कर दौड़ लगाती एक युवति उसकी ओर आई। दिखावे के लिए ‘सौरी-सौरी’ कहते हुए डैरन ने भागकर व्हील-चेयर पकड़ तो ली किंतु वह उलट चुकी थी। बूढ़े की रीढ़ की हड्डी में गहरी चोट आई थी, एक महीने तक वह अस्पताल में रहा। जितनी देर बुढ़िया पति के पास ठहर सकती, वह अस्पताल में ही रहती। जो खाना-पीना मिलता, वे मिल जुलकर खा लेते, बिजली-गैस का खर्चा बचता सो अलग। नर्सों की निगाह में अच्छा बने रहने की खातिर, डैरन आधी-अधूरी पैनशन उनके हाथ में धरने लगा। जिससे बुढ़िया अस्पताल की दुकान से फल दूध वगैरह खरीद लेती।

बुढ़िया ने डैरन को नर्सों और आस-पड़ोस के मरीजों से कहते सुना था कि बूढ़ा-बुढ़िया सठिया गए हैं, उन्हें कुछ याद नहीं रहता। जाने क्या मन में ठाने बैठा हो वो। उनके दस्तख़त तो वह आसानी से कर ही लेता है, उनका घर अपने नाम करवा ले। बूढ़े की हाय-तौबा मचाने और बुढ़िया के आग्रह के बावजूद, उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। उनके घर पहुंचते ही डैरन का खेल फिर से जारी हो गया।

बेक्ड-बीन्स का यह अंतिम कैन था, अलमारियाँ खाली हो चुकी थीं, रैक्स पर नमक और काली मिर्च की छोटी शीशियों के अलावा कुछ नहीं बचा था, चाय तक नहीं। नज़र चुराती कराहती हुई बुढ़िया अपने दुखते हुए घुटनों को अपने हाथों से थामें झुकी तो एकाएक उठ नहीं सकी, फ़र्श पर ही ढेर हो गई। एकाएक वह टमाटर के शोरबे में से बीन्स बीन-बीन कर खाने लगी, वितृष्णा से बूढ़े ने मुँह फेर लिया।

‘धूल केवल शोरबे में है, बीन्स साफ़ हैं,’ बुढ़िया ने मानो खुद को बहलाने के लिए कहा। उसे आठ दस बीन्स हलक से उतारने कठिन लग रहे थे। जब से विवाह हुआ था, बूढ़ी ने कभी अकेले नहीं खाया था; पहला निवाला वह हमेशा बूढ़े के भोजन आरंभ करने के बाद मुँह में डाला करती थी।

‘थोड़ी सा तुम भी खा लो,’ आँखे झुकाए बुढ़िया फुसफुसाई।

‘शेम ऑन यू,’ बूढ़ा डपटा किंतु उसकी आवाज़ में दम नहीं था।

‘सूट यौरसेल्फ,’

बूढ़ा पत्नि की उद्दंडता पर अचंभित था; उसमें ज़रा भी ताकत बची होती तो वह बुढ़िया की हेकड़ी निकाल देता। बुढ़िया उसके सामने से उठ जाना चाहती थी किंतु उसकी टांगों ने जवाब दे दिया, उसने कराहते हुए अपनी टाँगे आगे की ओर फैला लीं।

‘अब तो तुम्हें भगवान ही उठाने आएंगे,’ उसे तकलीफ़ में देख कर बूढ़े को तसल्ली हुई, क्या हुआ जो वह उसे खुद सज़ा न दे सका। 

तभी दरवाजे की घंटी बजी, बूढ़ी ने उठने की भी कोशिश नहीं की और जीवन में पहली बार बूढ़े ने अपनी व्हील-चेयर को घुमाया और दरवाज़े की ओर लपका।

बूढ़ी ने सोचा कहीं टिफ़िन वाला न आया हो; उसने यूँ ही फ़र्श से उठाकर बीन्स खाईं। बूढ़ा उसे अब जीवन भर कोसेगा। बूढ़ी अपनी टांगों की मालिश करते हुए अब अपने घुटनों के सहारे बैठ गई थी और अब धीरे धीरे उठने की कोशिश में लगी थी। 

‘किसका पत्र है?’ बूढ़े के हाथ में एक लिफ़ाफ़ा देख कर बुढ़िया की आँखों में चमक आ गई थी। कहीं यह लाना का तो नहीं!

‘लाड़ली बेटी के सिवा तुम्हें कुछ और भी सूझता है? वो हमें भूल चुकी है,’ बूढ़े की तमक लौट आई थी। 

‘सब तुम्हारी वजह से! न तुम उसे घर से निकालते, न हमें ये दिन देखने पड़ते,’ कहते हुए बुढ़िया ने अपना तमतमाया हुआ चेहरा घुमा लिया, जिस पर अनंत भावनाओं का अंबार था – कोफ़्त, नफ़रत, गुस्सा, द्वेष, वितृष्णा – दया उर प्यार के सिवा बहुत कुछ।

‘परले दर्ज़े की बेवकूफ़ हो तुम और अव्वल नंबर की ख़ुदग़रज़ है तुम्हारी लाड़ली, हमारे ठनठन गोपाल होते ही ऐसी गायब हुई कि जैसे गधे के सिर से सींग,’ 

‘तुम्हारे सींगों की वजह से ही उसने घर आना छोड़ दिया था,’

‘मुझसे नहीं, तुमसे मिलने तो आ सकती है। पहले भी तो शाम को तुमसे छिप छिप कर मिलती थी। मैं सब जानता हूँ कि एक एक कर के तुम्हारे सारे ज़ेवर कहाँ गायब हो गए?’ बुढ़िया तड़प कर रह गई। ज़ेवर बेच कर न वह उसे पैसे देती, न वह घर छोड़ कर जाती।

‘झैँ झैँ ही करते रहोगे या मुझे बताओगे कि लिफ़ाफ़े में क्या है?’ बुढ़िया ने पहली बार पलट कर बूढ़े की ओर नज़र घुमायी; उसकी गोद में एक पंजीकृत चेतावनी-पत्र खुला पड़ा था, दस दिन में बिल का भुगतान न हुआ तो बिजली और गैस काट दिए जाएंगे, उन्हें किसी बूढ़ा-घर भेज दिया जाएगा, जिसका खर्चा उनकी जायदाद को बेच कर पूरा किया जाएगा।

बुढ़िया इस घर को उपहार स्वरूप लाना के लिए छोड़ना चाहती है। कल ही सुपर-मार्केट में उसने लाइफ़टाइम लिविंग ट्रस्ट का एक इश्तहार देखा था, जो न केवल निजी संपत्ति की सुरक्षा के लिए डिज़ाइन किए गए हैं, बल्कि मृत्यु के बाद संपत्ति नामित व्यक्ति को सुरक्षित रूप से हस्तांतरित भी कर सकते हैं। वे उसकी लाना को अवश्य ढूंढ निकालेंगे; वह झट उठ खड़ी हुई, आज वह इस ट्रस्ट का दफ़्तर ढूंढ कर रहेगी।

कार्पेट ने बेक्ड-बीन्स का शोरबा सोख लिया है, अब केवल गिनती की कुछ बीन्स पड़ी हैं जो कुछ ही देर में सूख कर सख्त हो जाएंगी। काश कि वह झुक कर उन्हें खा सकता। बुढ़िया ने उठने से पहले उन बीन्स को भी खा डाला, बाहर जाने के लिए उसे तो कुछ ताकत चाहिए।

‘अब कहाँ चल दीं?’ बड़ी आशा से बूढ़े ने पत्नी को जूते और कोट पहनते देखा; शायद वह फ़ूड-बैंक या गुरुद्वारे जा कर कुछ खाना लाने जा रही हो। वह बाहर से लौटती है तो उसके लिए कुछ न कुछ लाती है, कई घंटे उसे इसी आशा के सहारे गुज़ारने हैं।

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