1. बरगद

पुराने बरगद में भी,

इक नई चाह पैदा हुई,

तब नई पौध,

जड़ सहित नई जगह रोपी गई।

शाखाओं का रूप बदला,

चाल बदली, रंग बदला,

और फिर,

नस्ल ही बदल गई।

अफ़सोस,

अब न वे बरगद की संतान हैं।

न उनकी अपनी कोई

पहचान है।

            ***

2. पुल

उस पीढ़ी से इस पीढ़ी तक

कई पुल बनने हैं।

कुछ कदम तुम चलो,

कुछ मैं।

याद रखना,

बनाओ जब  पुल तो

इनमें सरकारी सीमेंट न हो,

दीवारों में सेंध न हो।

बनाना तुम, लोहे की नींव

लगाना तुम, प्यार की सीमेंट

विश्वास की थापी से।

फिर देखना, आहिस्ता-आहिस्ता

बनेगा जो पुल ,

उसी पर से देखेंगे हम

उगते सूरज को साथ-साथ।

            ***

3. धरती का रंग

कितनी बार

कितनी बार

मैंने बादलों में

चार मुखवाले ब्रहमा को देखा है

कुछ सोच में पड़े

असमंजस में खड़े

शायद,

हरी धरती

के सलेटी होते रंग

से चकित है।

      ***

4. शाम जिंदगी की

किसी डे-केयर सेंटर में,

ठहाके लगाते बुड्ढे-बुड्ढियाँ।

या कि अपनों से दूर…

ग़म को हँसी में भुलाते बुड्ढे-बुड्ढियाँ।

पोपले मुँह, बेकाबू हिलती गरदनें

रेशमी सलवटों भरे चेहरों में

खट्टी-मीठी, नौनी-कसैली यादों में

उतराते-लहराते बुड्ढे-बुड्ढियाँ।

जेनी की गु़ड़िया, जोएल की बाइक

एला की मुस्कान, नोएल की काइट

गीली कोरें, काले चश्मे, ठंडी चाय में

अपनी उदासी सु़ड़कते बुड्ढे-बुड्ढियाँ।

अपने की चाहत में,पत्ते की आहट पर

पथराती आँखों से, सुबह से साँझ तक

खिड़की पर पोर्ट्रेट से जड़े

ज़िंदगी की शाम काटते ये बुड्ढे-बुड्ढियाँ।

               ***

5. समाधान

चालीस साल ब्रिटेन में रहने के बाद

वो पूछने लगी मुझसे-

“हिंदू हो?”

मैं अचकचा-सी गई,

“मैंने पूछा- मतलब?”

बोलीं वे-

“परेशानियों से बचना है तो धर्म बदल लो!

क्रिस्तान बन जाओ! यीसू की गोद में शांति मिलेगी!”

मैं हँसी,

मैंने कहा-”यों यीसू से मुझे विरोध नहीं, उनकी पीर से वाकिफ़ हूँ मैं-

फिर भी अपने राम की गोद में भली हूँ

तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं के परिवार में पली हूँ”

प्रश्न यह है-

कि धर्म क्या बताशा या झुनझुना है कि

पकड़ा दिया रोते हुए बच्चे को

और कुछ पल शांति।

            ***

6. खेल सूरज-चाँद का

ग्रसने और डँसने के खेल ने

सदा ही किया है उन्मत्त।

ग्रसता और डँसता  रहा है सत्ताधारी ही सदा।

 लेकिन,

आज का खेल अनोखा  है

चाँद सूरज को ग्रसने आया है।

आनंदित जन समूह

फिर उमड़ आया है।

            ***

7. खग्रास सूर्यग्रहण

एक कौर सूरज भर लिया

चाँद ने

क्या गरम फुलका!

सुड़क चाँदनी की चाय

इंद्रधनुष की चटनी

हुआ कलेवा

अब बरखा में हाथ धो

चल पड़े हैं भाई।

       ***

8. सूरजमुखी

सिर नीचे कर खड़ा है सूरजमुखी

जिस सूर्य की चमक से

गर्व से दिपदिपाता था

उसका मस्तक।

सिर उठा, सूर्य को तकता

कभी नहीं थकता

उसका मुस्कराता चेहरा

कानों तक छाई मुस्कान।

वह सूरजमुखी

सिर नीचे किये खड़ा है

क्योंकि,

सूर्य काले बादलों से घिरा है।

सूर्य की उष्मा ही

लौटा सकती है

उसका तेज।

सूर्य, तुम सूर्य हो,

बादल की बातों में क्यों आ जाते हो?

तुम्हें देखकर ही खिल उठता है मेरा मन

बादलों को चीर कर

हे सूर्य

तुम फिर  लौट आओ

मैं  मस्तक उठाकर

तुम्हारे प्रकाश में

सराबोर होना चाहता हूँ।

            ***

9. समय का सच

हर सच, समय सापेक्ष होता है

कभी नेगेटिव रहना दोष था

पॉज़िटिव पर जोर था

अब नेगेटिव रहने पर मिलती है बधाई,

पोजिटिव होने पर अफसोस जताया जाता है

विश्व महामारी, भूमंडलीकरण का प्रताप है

कट गये पेड़, चीत्कार कर रहे हैं जंगल

हर तरफ हो रहा अमंगल ही अमंगल

प्रगति के स्वप्न में

गाँव देस छोड़ दिया

अच्छे के साथ बुरे ने भी

परदेस में भी घेर लिया।

अफ्रीकन, ब्रजीलियन

इंडियन, हवाइयन

नये नये वैरियेंट्स ने जीना

मुहाल किया।

अपने भी जाने लगे

सपने मुरझाने लगे

आक्सीजन मिलता नहीं

वृक्ष भी बचा नहीं

सिसक रहे है पौधे!

कब किसकी है बारी?

फिर भी,

कहाँ रुका है

हवाओं का चलना,

मन का मचलना

डैफोडिल का खिलना?

पॉजिटिव हो या नेगटिव

अपना राम न छोड़ना

नन्हा डैफोडिल पुकारता है

यही समय का सच है

            ***

10.  डैफोडिल्स

सुनो,

क्यों उदास हो तुम?

देखो तो सही, इधर

लो हम फिर आ गये।

क्या कल तुमने देखा था हमें?

हम मतवाले तो सूरज की सुनते हैं!

हमें खिलने से रोक नहीं पातीं,

संसद और सरकारें।

और वे कमज़ोर बुझदिल आतंकवादी!

कुचल तो सकते हैं लेकिन रोक नहीं पाते

हमारा यों खुलकर खिलखिलाना

न ही अनदेखा कर पाते हैं,

तुम्हारे जैसे, असमंजस में जीते कुछ लोग

तुम भी खिल उठो न!

हमारी ही तरह

सूरज की रोशनी में।

          ***   

वंदना मुकेश

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