इस रास्ते पर सप्ताह में चार दिन जाते हुए लगभग आठ साल। रास्ता मानो रट-सा गया है। घर से निकलने पर आधे मील के बाद बाँयी तरफ मुड़ने पर एक बस स्टॉप है। वहाँ से लगभग डेढ़ मील पर बाँयी और एक कॉलेज और उसके सामने पादचारियों के लिये ट्रैफिक लाईट से नियंत्रित क्रासिंग की सुविधा। लगभग एक मील के अंतर पर एक राउंड अबाउट , फिर लगभग डेढ़-डेढ़ मील के अंतर पर चार राउंड अबाउटों के बाद हेगली रोड का जंक्शन, जहाँ अक्सर ट्रैफिक लाईट लाल होने से रुकना पड़ता है। कारों की लंबी उबाऊ कतारें। 5-6 मील के इस रास्ते पर दो जगह स्कूली बच्चे लॉली-पॉपमेन की सहायता से अपने माँ-बाप के साथ सड़क पार करते नज़र आते हैं। रास्ते का प्रथम चरण यहाँ समाप्त होता है।

इसके बाद लगभग 3 मील तक 40 मील प्रति घंटा की रफ्तारवाली दो लेनवाली सड़क। यहाँ भी एक जगह स्कूली बच्चे सड़क पार करते दिखाई देते हैं। चार ट्रैफिक लाईटें पार करने के बाद अचानक सामने देखने पर ऐसा लगता है कि पुल के उपरवाली आड़ी सड़क को किसी ने धीरे से उठाकर नीचेवाली सड़क पर ही रख दिया हो और गाड़ियाँ तीर की गति से नीचेवाली सड़क पर चलती सी दिखाई देती हैं। जिसे देखकर स्वतः ही गति 40 से भी कम हो जाती है। पर असल यह दृष्टिभ्रम नीचेवाली सड़क की ऊँचाई के कारण होता है। फिर आता है वह बड़ा सा ‘राउंड अबाउट’, जहाँ गाड़ियों का सैलाब ट्रैफिक लाईटों से नियंत्रित होता है। बावज़ूद इसके, गाड़ियों के इस महासमुद्र में कूदने से पहले चालक एक बार सोचने पर मजबूर हो जाता है। फिर उसी सैलाब का हिस्सा बनकर ‘स्लिप रोड’ से ‘एम-5 मोटर-वे’ पर आ जाती हूँ।

चार लेनवाली इस तेज रफ्तारवाली सड़क पर, जिस पर वाहन कम से कम 60 मील और अधिकतम 70-80 मील प्रति घंटा की रफ्तार से गाड़ी चलाते हैं, पूरा ध्यान अपने वाहन-कौशल कला पर केंद्रित कर करना होता है। क्योंकि कई उत्साही 100-110 मील की गति से उड़ते हैं।

गाड़ी में एम.एस. सुब्बलक्षमीजी की ‘भज गोविंदम्’ सुनते हुए अक्सर बार-बार ध्यान ”पुनरपि जन्मम्, पुनरपि मरणम्, पुनरपि जननी जठरे शयनम्” पर ही अटक जाता है।

लगभग 8-9 मील के इस द्रुत मार्ग पर लगभग 10 मिनिट के पश्चात ‘एम-6 मोटर-वे’ पर पदार्पण और एक मील के पश्चात ‘स्लिप रोड’ देखते ही जान में जान आती है। यहाँ से वॉलसॉल शहर के भीतर घुस कर मैं खुद को बड़ा महफ़ूज़ सा महसूस करती हूँ। वही सीधे हाथ पर एक बड़ा सा चम-चम करता इलैक्ट्रॉनिक विज्ञापन ‘स्पीड किल्ज़, ड्राइव सेफ़’ दिखाई देता है तो होठों पर सहज ही मुस्कान छा जाती है, क्योंकि यहाँ से 30 मील प्रति घंटे का मार्ग है। लगभग डेढ़ मील, तीन ट्रैफिक लाईटें पार कर फिर बाँयी ओर मुड़ती हूँ और पौन मील पर सीधे हाथ पर मेरी कर्म-स्थली, अर्थात कॉलेज आ जाता है। 35-45 मिनिट की इसी यात्रा की शाम को विपरीत दिशा में पुनरावृत्ति होती है।

अब आप सोच रहे होंगे भला यह भी क्या बात हुई? दुनिया के करोड़ों लोग इसी तरह किसी न किसी रास्ते पर हर रोज़ आते-जाते हैं। जी हाँ, बिल्कुल जाते होंगे और मैं आपकी बात से पूरा तरह सहमत हूँ। लेकिन जो बात मैं आपसे कहना चाह रही हूँ वह तो अब तक शुरु हुई ही नहीं है।

दरअसल, मैं इस यात्रा में अकेली होती हूँ। एक लंबे समय तक मैंने अर्जुन से भी अधिक एकाग्र होकर सिर्फ सड़क, राउंड अबाउट, मोड़, ट्रैफिक लाईट, लॉलीपॉप-मेन, गति-नियंत्रक साईन इत्यादि के अतिरिक्त कुछ देखा ही नहीं। मैं जिस रास्ते पर से रोज़ गुज़रती थी उसकी किसी चीज़ से मेरी कोई पहचान न थी। लेकिन जीवन में कभी कुछ ऐसा हो जाता है कि वह आपको जीना सिखा जाता है, जीवन की कद्र करना सिखा जाता है। कुछ ऐसा ही मेरे साथ हुआ कि इसी रास्ते पर किसी कार ने मुझे पीछे से ज़ोरदार टक्कर मारी और मेरे कंधे और गर्दन पर ज़ोर का धक्का लगा। और अब तक कंधे और गर्दन के जिस दर्द के साथ मैंने जीना सीख लिया था। वह अत्यधिक उग्र हो गया। ड्राइविंग बंद। काम पर जाना बंद। दर्द ही दर्द। डॉक्टर और फिज़ियोथेरेपिस्ट के पैदल दौरों ने क्या कुछ नहीं सिखा दिया। जब लगभग चार हफ्तों के बाद भी दर्द अपने रंग दिखाता रहा तो मैं अवसादग्रस्त हो गई थी। मुझे लगने लगा कि अब इस जीवन में तो यह दर्द ठीक होने से रहा। मैं सिर झुकाए, चुपचाप, सोच में डूबी, डॉक्टर के यहाँ यंत्रवत् पैदल-पैदल जा रही थी। अपने दर्द के लेकर मन बहुत निराश था। कि अचानक छोटे बच्चे के किलकने की आवाज़ से सिर उठाया। देखती हूँ कि, एक कमज़ोर-सी डेढ़-दो साल की एक नन्हीं-सी अंग्रेज़ बच्ची अपनी माँ का हाथ पकड़े उड़ती हुई-सी जा रही थी। हवा बहुत ही तेज़ चल रही थी। हवा के तीखेपन के कारण ही मैंने भी अपना मुँह शॉल में गड़ाया हुआ था। अब मैं उस बच्ची को देखने लगी। वह नन्हीं गुड़िया पतझड़ से जमीन पर गिरे पीले पत्तों के पीछे भाग रही थी। उस बच्ची की माँ उसका हाथ पकड़े उड़ती पत्तियों को पकड़ने के खेल में शामिल थी। पत्तियाँ पकड़ने का उस नन्हीं का उल्लास देखते ही बनता था। दोनों की प्रफुल्लता देखकर मैं भी आनंदित हो उठी। ”पुनरपि जन्मम्, पुनरपि मरणम्, पुनरपि जननी जठरे शयनम्”…पता नहीं, कब उसके इस प्रयास को देखते-देखते मन कहाँ का कहाँ पँहुच गया। सोचने लगी, ये पेड़ से टूटे, डाल से छूटे बेकार पत्ते। जिन्हें न जाने कितने पैरों ने कुचला होगा और उनके बारे में सोचा तक न होगा। एक बच्चे के असीम आनंद का साधन बन जाते हैं। क्यों? सारी बात तो अपेक्षाओं की है, कचरा किसे भाता है। सुंदर फूल हों तो फूलदान की शोभा बन जाएँ लेकिन सूखे, बदरंग

मुरझाए, फूलों ने किसको भरमाया है? सहसा अपनी ही एक कविता की चंद पंक्तियाँ याद आ गईं-

“अपने की चाहत में,पत्ते की आहट पर

पथराती आँखों से, सुबह से साँझ तक

खिड़की पर पोर्ट्रेट से जड़े

ज़िंदगी की शाम काटते ये बुड्ढे-बुड्ढियाँ “

मन फिर दार्शनिक होने लगा कि नन्ही की किलक ने फिर से वापस बुला लिया। इस बार उसने एक बदरंग पीली-भूरी पत्ती पकड़ ली थी। उसकी पुलक, उसकी विजय-किलक मुझे भीतर तक पुलकित कर गई। वह अनजान बच्ची पलभर में बहुत कुछ सिखा गई। मैं भी गुनगुनाने लगती हूँ, सौ बार जन्म लेंगे, सौ बार फ़ना होंगे….

माँ प्रकृति ने तो कितना कुछ रच रखा है, हमारा मन बहलाने को। हम ही धृतराष्ट्र बन बैठे हैं। न भावनाओं की क़द्र है, न इंसानों या रिश्तों की फ़िक्र! भौतिक सुखों के पीछे भागते -भागते हम कितने संवेदनहीन हो गये है कि हमारी संवेदना अब खुद हमें भी नहीं छूती। हो सकता है कि विलुप्त शब्दों की सूची में यह शब्द ‘संवेदना’ भी आ जाए!

हाँ तो, मैं बात कर रही थी मैं उस रास्ते की, जिस पर न जाने कितने वर्षों से मैं रोज़ सुबह-शाम जाती हूँ। अब इस रास्ते से मेरी पहचान बढ़ती जा रही है। रास्ते के प्रथम चरण में सड़क के दोनों ओर लंबे-लंबे विशाल वृक्ष हैं। सच कहूँ तो ये लंबे-लंबे विशाल वृक्ष मेरे बहुत अच्छे मित्र बन गये हैं। कभी ये तो कभी मैं, बस एकदूसरे से अपने दिल की बातें करते हैं, जी भरकर करते हैं। वस्तुतः इन वृक्षों के कारण ही जीवन को देखने की एक नई दृष्टि उत्पन्न हुई। सच, जीवन की आपाधापी में हम प्रकृति से कितने दूर हो चले हैं…

ऑटम, विंटर, स्प्रिंग और समर क्रमशः पतझड़, शीत, वसंत एवं गरमी। यही चार ऋतुएँ है इंग्लैंड में।

शीत ऋतु। दिसंबर का महीना। तापमान 2-3 डिग्री। सड़क के दोनों ओर कतारबद्ध वृक्ष एकदम निर्वसन खड़े हैं। उन्हें यों वस्त्रविहीन देखकर अपनी कार की हीटिंग शुरु करते मेरे बर्फीले हाथ सहम जाते हैं, क्षण भर को मेरी हड्डियाँ तक में ठंड का तीखापन भर जाता है। ये वृक्ष मुझे उन बुज़ुर्गों से लगते हैं जो अपना सबकुछ बच्चों को न्यौछावर कर देते हैं और निर्लिप्त भाव से जीवन की साँझ में सांसारिक व्यापारों के मौन साक्षी बन गये हैं। उनके निर्वसन शरीर को देख कर मन में आता है कि उनकी इस विशालता में भी अपनी छोटी सी शाल से कस के लपेट दूँ, मफ़लर पहना दूँ। टोपा पहनाकर कानों को ढँक दूँ। किंतु देखती हूँ मेरे इस भाव से उनमें कोई हलचल नहीं होती। शांत। शायद वक्त के थपेड़ों से इतने मज़बूत हो गये हैं कि योगियों की भाँति मौसम की तीव्रता उनपर असर नहीं कर पाती। वे मन से भी इतने विशाल हैं कि अपनी इस दरिद्रता में भी सैकड़ों पक्षियों और जीवों को आसरा देने में समर्थ हैं। ….इन्हीं निर्वसन वृक्षों को जब बर्फ से ढँका देखती हूँ तो एक नया ख्याल दस्तक देने लगता है। ऐसा लगता है प्रकृति ने मेरी इच्छा समझ ली और पहना दिया इन्हें शाल, मफलर, टोपा…..सफेद मफलर-कोट में सजा देख सहज ही मुस्कान छा जाती है होठों पर। बड़े तने हुए से नज़र आते हैं। अहंकार से नहीं, बल्कि कोट की गर्मी से। मन आश्वस्त हो जाता है।….

X X X                                                              X X X                                                  X X X

ट्रैफिक सिग्नल पर रुकेी हरी बत्ती होने का इंतजार करती हूँ। आँखें चार होती हैं, पत्रविहीन वृक्षों के तले में उझकते डैफ़ोडिलों से। वसंत की पहली आहट इन विशालकाय वृक्षों के तले में खिलखिलाते मुस्कुराते पीले-सफेद डैफ़ोडिल के यही फूल देते हैं। झप-झप पलकें झपकाते डैफ़ोडिलों को देखकर तन-मन बेवजह प्रफुल्लित हो उठता है। कौन कहता है कि बड़े की छाया में छोटे पनप नहीं पाते। ग़लत, बिल्कुल ग़लत! छोटे न केवल पनपते हैं बल्कि दम हो तो अपने अस्तित्त्व से जग-जहान को आह्लादित कर देते हैं। ऐसी चमक, ऐसी जिजीविषा! बस देखते ही बनती है। बड़ों के साये में पलते हैं, खिलते है, पूर्ण यौवन प्राप्त करते हैं, अपनी छोटी -सी ज़िंदगी का भरपूर आनंद लेते हैं और फिर जहाँ से जन्मे, उसी मिट्टी में विलीन हो जाते हैं। यह कह कर कि हम इन्हीं रास्तों पर, इन्हीं जगहों पर फिर मिलेंगे! उनकी खिलखिलाहट उनकी स्फूर्ति और उत्साह छा जाते हैं, कि जियें तो बस ऐसे जियें, भरपूर! छोटा ही सही किंतु अपनी संपूर्ण गरिना के साथ जिया गया जीवन! कोई अरमान बाकी नहीं, कोई चाह अधूरी नहीं!

इधर डैफ़ोडिलों के सम्मोहन से अभी मुक्त भी नहीं हो पाती, मंत्रमुग्ध मैं… कि देखते ही देखते नवकोंपलों से सजने लगते हैं वे विशाल वृक्ष। देखते ही देखते … पता ही नहीं चलता कि कब ये वृक्ष हरे-भरे जाते हैं। इनकी हरियाली देखकर ऐसा लगता है मानो परदेस गया एक-एक सदस्य घर में लौट रहा हो। जो वृक्ष कभी पत्रविहीन थे, गुलाबी- सफ़ेद ब्लॉसम्स से ऐसे लद जाते हैं मानो प्रियतम वसंत के आगमन से सारी प्रकृति लाज से गुलाबी हो उठी हो। दूर तक गुलाबी चुनरी ओढ़े यो वृक्ष अंग-अंग में एक अनोखी तरंग पैदा कर देते हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रकृति वधुएँ गुलाबी चूनर में सजी मुस्कुराते हुए आने-जानेवालों का स्वागत कर रही हैं। मैं भी मुस्करा कर कह ही देती हूँ, “कितनी प्यारी लग रही हो, जी चाहता है तुम्हारी एक तस्वार खींच लूँ “

सच, हर बार सोचती हूँ कि कि फूलों से लदे इन वृक्षों की एक सुंदर सी तस्वीर अपने कैमरे में कैद कर लूँ। मगर अफ़सोस! जब इन्हें देखती हूँ तो या तो गाड़ी चला रही होती हूँ अथवा किसी ट्रैफ़िक सिग्नल पर धीरे- धीरे सरकते हुए लाल बत्ती के जल्दी से हरे होने की प्रतीक्षा में रहती हूँ। लेकिन अब यह तसल्ली रहती है कि कमसे कम मैं इनसे बातचीत तो कर लेती हूँ। चारों तरफ हरियाली छा जाती है। कतारबद्ध नवपल्लवयुक्त वृक्ष, जो शीत ऋतु में योगियों की भाँति साधनारत थे, वे सहसा गृहस्थ बन जाते हैं और अपने परिवार के साथ होने की प्रसन्नता में खूब हरियाते है, लहलहाते हैं और खुशी से लहराते हैं।

जब प्रकृति अपने-आप इतना कुछ कर देती है तो फिर इंगलैंड के लोग भी ग्रीष्म ऋतु का बाँहे खोल कर स्वागत करते हैं और अब तक अपने दड़बों में छुपे लोग घर के बाहर बगीचा संवारते दिखाई पड़ने लगते हैं और सजाने लगते है अपने घर-आँगन को भाँति -भाँति के रंग-बिरंगे फूलों से। घर-आँगन ही क्या सड़कों के मध्य विभाजक रेखा रूपी गमले भी तरह-तरह के रंग-बिरंगे फूलों से सज जाते हैं। गर्मियों में नगरपालिकाएं अपने शहर के सौंदर्य को बढ़ाने में एकदम तत्पर रहती हैं। हर जगह गमलोंसे झाँकते फूल यत्र-तत्र- सर्वत्र नज़र आने लगते हैं। कई महीनों के अंधेरे, ठंड, बर्फीले और गीले मौसम के बाद जब धूप बड़ी गर्मजोशी से आकर मुस्कुराते फूलों के साथ स्वागत करती हैं तो मन उत्फुल्लित हो उठता है। जी करता है कि उसे कैद कर लो। बस जी करता है कि धूप पी लो, धूप पहन लो, धूप से ही बातों करो, धूप की बातें करो।

समय का चक्र चलता रहता है, प्रकृति भाँति- भाँति के रूप धर कर लुभाती है। हम उसे ही भूले जा रहे हैं जो हमें हँसना- रोना सिखाती है। जीना सिखाती है, हर हाल में खुश रहना सिखाती है। जो आया है उसे जाना है। कुछ नष्ट नहीं होगा। सिर्फ रूप बदल जाएगा।

मैं अपनी रोज़ाना वाली सड़क पर होती हूँ चालीस मिनिटों वाली इन यात्राओं के दौरान मैंने इतना कुछ सीखा है कि मैं हर तरह के परिवर्तन में शुभ खोजती हूँ। हर नये अनुभव को एक नयी यात्रा के रूप में लेकर उसका भरपूर आनंद लेने का प्रयत्न करती हूँ और हर छोटी-बड़ी यात्रा की समाप्ति पर प्रभु को धन्यवाद देती हूँ। कार का कैसेट तेज कर देती हूँ और फिर एम. एस सुब्बलक्ष्मीजी की मधुर आवाज़ कानों में पड़ने लगती है, .. “पुनरपि जन्मम्, पुनरपि मरणम्…..”

***

-वंदना मुकेश

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