आजकल दुनिया निरंतर सिमटती जा रही है और लोग बेहतर काम और जीवन की तलाश में न सिर्फ़, अपना गाँव और शहर बदलते रहते हैं हैं बल्कि देश और महाद्वीप भी। इन परिस्थितियों में पड़ने वाला प्रत्येक इंसान अपने जीवन के विभिन्न पड़ाव कई जगहों पर बिताता है और उसके लिए ‘पते’ नाम की अवधारणा बदलती रहती है। आजकल हम सब के न जाने कितने पते हो गए हैं – जन्म स्थान, स्थायी पता, सम्प्रति निवास वग़ैरह वग़ैरह। इन पतों के सिवाय भी ज़िन्दगी में हमारे कई और ठौर रहे होते है, हमने कुछ और घाटों का पानी पिया होता है और नित नयी मिट्टी ने हमें आकार दिया होता है। ऐसे समय में जब कोई पूछता है कि आप कहाँ से हैं तो इसका तर्कसंगत जवाब उस क्षण के लिए होता तो कोई और है पर मन किसी ऐसी जगह का नाम ले लेना चाहता है जहाँ से वर्तमान में भले ही बहुत कम रिश्ता रह गया हो पर मन वहीं अटका रह गया होता है। उसी जगह को हम अपना शहर अपना ठौर बुलाना चाहते हैं। मेरा मानना है कि ऐसी जगह हर किसी की ज़िन्दगी में कोई अवश्य होती होगी। अब अगर उस जगह को हम शहर बुला रहे हैं, तो सवाल उठता है कि शहर होता क्या है?

क्या शहर मात्र निर्धारित सीमाओं से बँधी कोई भौगोलिक इकाई या फिर विशिष्ट लक्षण रखने वाले गिनती के कुछ लोगों की रिहाइश होती है? या फिर वह एक ऐसी जगह होती है जिसके ज़िक्र के साथ इतिहास की कुछ घटनाएँ जुड़ी होती हैं और जो वहाँ के बाशिंदों के लिए गर्व या शर्म की बाइस होती हैं। देखिए घटनाएँ स्वयं तो घटित नहीं होतीं।  उनके होने के लिए कितनी ही शिराओं और धमनियों में रक्त को अविश्वसनीय गति से भागना होता है, अनेकों दिमाग़ों में उपजे विचारों को संयोजित कर सुसंगठित करना होता है, उसके क्रियान्वयन के लिए तत्पर हाथ जुटाने होते हैं, असंख्य पाँवों को धूल-धूसरित होना पड़ता है, इसके बावजूद भी अक्सर कई मंशाएँ अधर में लटकी रह जाती हैं। लेकिन घटनाओं का अंजाम पर पहुँचना निश्चित रूप से इस बात का प्रमाण होता है कि उसके कार्यान्वयन में जुटे लोगों के रक्त में घुले लोहे, उनके इरादे के इस्पात, उनके विचारों के उपजने की मिटटी को सींचने वाले पानी और हवा में ज़रूर कोई ख़ास बात थी। आप और हम मानें या न मानें, वहाँ के शहरी तो यही मानते हैं। अब यह अलग सवाल है कि उस घटना पर उन्हें फ़ख्र है या वे उसे अपनी जगह पर लगा कलंक मानते हैं। जब किसी जगह से वाबस्ता बातें और यादें हमारी मुस्कान की वजह बनती रहती हैं तो क्या इसे किसी जगह से अँधा-मोह कहा जा सकता है? हाँ, क्यों नहीं? लेकिन अगर हम यह सोचें कि वह वजह क्या होती है जिसके चलते लोग किसी स्थान-विशेष से ख़ुद को जुड़ा पाते हैं तो इसका उत्तर सिर्फ़ उस जगह के इतिहास और भूगोल में निहित न मिलेगा। मेरा मानना है किसी भी जगह के साथ आत्मीय सम्बन्ध बनने में अहम भूमिका वहाँ के लोगों की होती है। यह बात पूरब और पश्चिम दोनों ही दुनियाओं के लिए सच है। इनसानों के लिए बहुत ज़रूरी होते हैं सम्बन्ध। संबंध चाहें रिश्तों के हों, या फिर अपने घर, विद्यालय, कार्यालय से हों, चाहें कुछ गलियों, नुक्कड़ों आदि से। हमारे सम्बन्ध जिस जगह बनते हैं, जिस मिट्टी में पनपते हैं, जिसकी हवा, पानी पाकर फलते-फूलते हैं, उस जगह से भी हमारा विशेष नाता हो जाता है, वह एक ऐसी जगह हो जाती है जो हमारे अच्छे समय में तो कहीं पार्श्व में चली जाती है, याद तक नहीं आती है; और हम मौजूदा में ही व्यस्त और मगन रहते हैं। लेकिन नैराश्य, अवसाद, विषमताओं के घेरे जैसे ही हमारे चारों तरफ सघन होते हैं, न जाने कैसे उसकी कोई गली अथवा जगह या फिर उसमें हुई कोई बात हमारे मानसपटल की अग्रभूमि पर उभर कर गर्त में गिरते मन को पल भर के लिए थाम लेती है। और वह पल निर्णायक हो जाता है हमें आशा का हाथ थमा जाता है। इसलिए जिस जगह पर हमने जीवन का ककहरा सीखा होता है, वही जगह हमें आगे बढ़ने के सबक़ भी सिखाती रहती है। 

जीवन का ककहरा किसी किताब को बाँच कर तो नहीं सीखा जाता। मेरा घर जिस गली में था वहाँ सोलह फ़्लैट थे; इन गिनती के घरों में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई के घर तो थे ही, साथ ही इनमें मुख़्तलिफ़ महकमों – पत्रकारिता, वकालत, राजनीति, लेखन, अध्यापन, प्रशासन आदि में काम करने वाले परिवार रहते थे। ये सभी फ़्लैट पहली मंज़िल पर  थे और ज़मीनी मंज़िल पर थीं दुकाने – कुछ दर्ज़ी की दुकानें, बढ़ई की दुकान, वेल्डिंग की दुकानें, प्रिंटिंग प्रेस, टपरी पड़ी चाय की दुकानें, चाट वाले का खोमचा, ठेलों पर कुछ फल बिका करते थे, तो साईकिल ठीक करने वाला मिस्त्री और मोची भी कोई कोना तलाश कर बैठ ही जाते थे। यहीं रहकर मैंने देखा कि सर्दियों में छत पर बैठकर पसेरी भर मटर, मूँगफली कैसे बातों-बातों में छिल जाती है, कैसे कोई दूसरे की बुनाई को देखने के लिए लेता है और दोपहर की धूप सेंकते हुए उसका एक पल्ला पूरा कर देता है। कोई दीदी एक कोने में बैठकर किसी को गणित पढ़ा देती है, बच्चे खेलने के लिए बढ़ई की दुकान से बल्ला बनवा लाते हैं, दुकानों की छत पार करके दूसरे मोहल्ले के भैया की छत पर जाकर पतंग उड़ाने का हुनर ख़ुद भी सीखा और दूसरों को सीखते देखा है। हमने सर्दियों के उन छोटे दिनों और गर्मियों की छोटी रातों में छतों पर अपने बड़े-बुज़ुर्गों को किसी भी मुद्दे पर खुलकर बहस और बातचीत करते भी देखा, हर किसी के विचारों को सुना जाता था, समझने की कोशिश की जाती थी; विचार किसी भी राजनीतिक या धार्मिक ख़ेमे की नुमाइंदगी क्यों न कर रहे हों, बिना चर्चा उन्हें ख़ारिज नहीं किया जाता था।  ये सब काम होते रहते थे, रेडियो पार्श्व में बजता रहता था, विविध-भारती दिवसीय सभा तीन बजे दोपहर तक और संध्या-सभा रात के ग्यारह बजे समाप्त हो जाती थीं लेकिन जीवन-संगीत चलता रहता था, वह जोश और उल्लास कम नहीं होने देता था। यह बात नहीं कि सबका जीवन एक मधुर गीत था, पर लोगों के बीच आमतौर पर जो सरस और सुगम सम्बन्ध थे, उनकी धुनें ज़िन्दगी की कर्कशता को भी सौम्य कर देती थीं। मानसपटल पर उन दिनों की ऐसी छाप पड़ी कि ज़िन्दगी का मात्र एक तिहाई हिस्सा उस अपेक्षाकृत छोटी जगह पर बिताने के बाद भी एकांत में सोचने पर वही जगह अपनी लगती है।

अल्लामा इक़बाल के ये मिसरे इसी बात को बख़ूबी कहते हैं:

ग़ुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में

समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा

ऐसा कहना मात्र कपोलकल्पना नहीं है, ऐसा ही होता है। कोई भी भौगोलिक इकाई जब तक हमारे लिए मात्र नक़्शे का एक बिंदु होती है, यानी कुछ गलियों, कूचों, मकानों, मैदानों, नालों, नदियों के पते दर्ज कराती कोई जगह, तो वह हमारे लिए केवल एक भौतिक और निर्जीव-सी वस्तु ही होती है। लेकिन जैसे ही उन पतों से अपनों के कुछ नाम जुड़ जाते हैं तो गली हो जाती है फ़लाँ दोस्त की, मकान किसी चाचा का, मैदान के दाईं ओर से जाती सड़क किसी ख़ाला के घर की तो नदी किनारे की कॉलोनी में गणित के मास्टर का ठिकाना। कोई गली सरदार जी के भटूरों वाली, कोई नुक्कड़ हमारे मास्टर जी का, किसी चौराहे पर मम्मी का स्कूल, यहाँ बारादरी और उसके पीछे पापा का दफ़्तर। जब शहर की जगहों के नाम गूगल मैप्स कुछ बताता है और हमारे लिए वे कुछ और होते हैं, पूरी तरह से अपने होते हैं तो वह जगह, सिर्फ़ एक जगह नहीं रह जाती हमारी रूह का हिस्सा बन जाती है, हमारे लिए वह जी उठती है।

अक्सर हमें विस्थापन की प्रक्रिया से भी गुज़रना पड़ता है। कई बार यह बँटवारे के बाद लाखों की संख्या में लोगों के घरबार छुटने और गँवाने जैसी दर्दनाक होती है; काश! यह किसी के हिस्से कभी न आए! पर अक्सर अच्छे अवसरों की तलाश में हम एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं, वहाँ अपना आशियाना बनाते हैं। समय के साथ वहाँ भी सम्बन्ध बनते हैं, नाते जुड़ते हैं और वे जगहें भी अपनी-सी लगने लगती हैं। कर्मभूमि से अधिक पूज्य कोई जगह नहीं होती, यह और अन्य व्यावहारिक-से तर्क दिमाग़ समझ पाता है, दिल नहीं। अक्सर ऐसा भी होता है कि नई जगह के सम्बन्ध अधिक प्रगाढ़ और आत्मीय हो जाते हैं और वह हमारे मन में बस जाती है। ज़रूरी नहीं कि जिस जगह हमारा बचपन गुज़रे वही जगह हमें अपनी लगे। अपना तो वही शहर लगता है जो दिल के धड़कने का सबब होता है।

अब देखिए मणिकर्णिका विवाह के बाद झाँसी बतौर रानी पहुँची थीं, उनका शैशव बनारस में और बचपन बिठूर में गुज़रा था। मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी। रानी लक्ष्मीबाई की यह ललकार थी -भारत में तेज़ी से पाँव पसारती ईस्ट इण्डिया कंपनी को। यह अपनी स्वाधीनता को बचाए रखने की एक सच्ची और पुरज़ोर कोशिश थी। झाँसी की रानी अपने लोगों को अंग्रेज़ों के अधीन नहीं होने देना चाहती थीं, उन्हें अत्याचार का शिकार होने से बचाना चाहती थीं। उनकी लड़ाई अपनी प्रजा की भलाई के लिए थी, अपने लोगों और अपने संबंधों की अस्मिता बचाने की थी। झाँसी उनके लिए मात्र राज्य नहीं था, वह तो वह काया थी जिसमें उनकी प्रजा की ज़िन्दगी चहकती थी और रानी की साँसें अपनी प्रजा के लिए धड़कती थीं। उन्हें हर हाल में उस काया को बचाना था।  

अंग्रेज़ों से अपने राज्य, अपने शहर को न बचा रख पाने के ग़म में दिल्ली के बहादुरशाह ज़फर भी आख़िरी पल तक तारी रहे और लखनऊ के वाजिद अली शाह भी।  

बहादुरशाह ज़फर को प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के विफल हो जाने के बाद क़ैद करके रंगून भेज दिया गया था, जहाँ उनकी मौत हो गयी। दिल्ली के महरौली में दफ़्न न हो पाने का ग़म उन्हें आख़िरी पल तक सताता रहा:

कितना है बदनसीबज़फ़रदफ़्न के लिए

दो गज़ ज़मीन भी न मिली कूयार में

बहादुरशाह ज़फर बूढ़े हो गए थे, अंग्रेज़ों की सशक्त सेना के साथ लड़ने के लिए उनके द्वारा एकजुट किए गए  लगभग सभी भारतीय राज्यों के नवाबों, राजाओं की शक्ति थोड़ी कम पड़ गई और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हम हार गए। लेकिन देश की जनता और आज़ादी के उसके जज़्बे पर उन्होंने अपने बुढ़ापे और कमज़ोरी की झाईं न पड़ने दी थी। दिल्ली और देशवासियों के लिए लड़ कर ही हथियार डाले थे।  

वाजिदअली शाह लाख कोशिशों के बावजूद नहीं भुला पाते थे ख़ुद का शहर। यह महलों, गलियों, कूचों की याद की वजह से तो नहीं हो सकता। ज़ाहिर है कि कुछ रिश्ते ख़ास रहे होंगे – ज़ाती भी, अवाम के साथ भी।

हरचंद लाख तरह भुलाता हूँ याद को

अख़्तरपुकार उठता है दिल हाए लखनऊ

रिश्तों के बनते ही बनती हैं स्मृतियाँ। एक तरफ़ तो ये स्मृतियाँ उस चरखी की तरह होती हैं जिस पर चढ़ी डोर की हम पतंग होते हैं और जानते हैं कि कटने पर भी, दुनिया से हार जाने पर भी कोई हमें थामने के लिए तैयार है, और अगर हमारी क़िस्मत अच्छी रही तो वह चरखी अपने माँझे को तब तक ढील देती जाती है जब तक हम उड़ना चाहें, ऊपर चढ़ना चाहें। दूसरी तरफ़ ये स्मृतियाँ उस गठरी की तरह होती हैं जो हमारे साथ दुनिया के हर सफ़र पर जाती है। इस गठरी का न ही कोई बोझ होता है और न ही उसका कोई किराया लगता है, पर परदेस में ये होती हैं हमारा बेशक़ीमती सामान। अनजान जगह की कितनी भी तन्हाई, तल्ख़ी, तीरगी हम पर तारी न हो जाए, ये स्मृतियाँ दिल के क़रीब की जगह की, उस शहर की किसी गली में पहुँचा देती हैं और घने बादलों के पीछे से उम्मीद की किरण दिखला ही देती हैं।

अब आप ही बताइए कि उस जगह को क्या कहा जाए जिस तरफ़ उम्मीद के गलियारे खुलते हों, जहाँ जाने को पाँव में स्प्रिंग लग जाती हो और मन-पखेरू उमंग और उत्साह से बादलों को चीरता ऊपर और ऊपर बढ़ता जाता हो। 

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प्रगति टिपणीस

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