रुक्मिणी
द्वारिका के सारे राजकोष खाली कर
तराजू के एक पलड़े पर
रख दिये थे सत्यभामा ने।
इस आशा में कि तुल जाएंगे
दूसरे पलड़े में बैठे कृष्ण।
हो जाएगा उनके पक्ष का पलड़ा ऊँचा।
मगर बांसुरी वाले, भक्त-वत्सल,
गोपालक, सुदामा-सखा कृष्ण
कहाँ तुलने वाले थे सारे संसार की धन-संपदा से।
वह तो तुल गए तुम्हारे भेंट किये हुए
अन्न के एक दाने से।
ऐसी अद्भुत शक्ति की स्वामिनी हो, रुक्मिणी!
अनन्य भक्ति और निश्छल समर्पण का
अद्वितीय उदाहरण।
कहते हैं तुम्हें कृष्ण से संवाद के लिये
शब्द की आवश्यकता ही नहीं थी।
तुम उनके और वह तुम्हारे मन का भाव पढ़ लेते थे।
लक्ष्मी-स्वरूपा के नाम से सुशोभित हो।
फिर क्यों सारा संसार राधा-कृष्ण ही कहता है?
रुक्मिणी-कृष्ण क्यों नहीं कहता कोई?
हँस दीं रुक्मिणी प्रश्न सुनकर!
“सुनो ! राधा-कृष्ण कहलाने कि लिये
राधा का पृथक अस्तित्व चाहिये न!
रुक्मिणी तो विलीन हो चुकी है कृष्ण में।
जब-जब तुम कृष्ण का नाम लेते हो ,
समझो रुक्मिणी का भी स्मरण करते हो।
क्योंकि रुक्मिणी तो कृष्ण हो चुकी है।
राधरानी तो कान्हा की प्रेयसी हैं,
मानिनी हैं।
रूठ जाती हैं और हठ करती हैं
कि कान्हा को मनुहार करनी ही होगी।
कान्हा का ध्यान चाहती हैं हर समय,
अपने “स्व” का मान चाहती हैं।
इसीलिये तो उनके भाग्य में विरह है।
शत् शत् नमन
उनके अगाध प्रेम और विरह के निर्वाह को।
लेकिन रुक्मिणी तो धन्य हो चुकी है
कृष्ण के भक्ति -स्वीकार्य से ही।
भक्त भला रूठता है प्रभु से !
भक्ति में स्व का मान ही कहाँ?
द्वैत का स्थान ही कहाँ?
द्वारिका का राज्य-कार्य संचालित करने वाले,
अभिमन्यु को महायोद्धा बनाने वाले,
महाभारत की युद्ध भूमि पर
गीता का प्रवचन करने वाले
कृष्ण की अर्द्धांगिनी
तो रुक्मिणी ही हो सकती है।
राधिका नहीं।
प्रेम में चुनाव का अधिकार सब को है।
कृष्ण-प्रेम में तुम्हें राधिका वाला मान रखकर
विरह में रहना स्वीकार्य है,
या निसंकोच पूर्ण समर्पण कर
भक्ति-भाव से कृष्ण हो जाना।
यह निर्णय तुम्हें करना है।“
यह कहकर चली गई रुक्मिणी।
कृष्ण बन चुकी रुक्मिणी।
***
-हरप्रीत सिंह पुरी