मेरी कविता
जब तुम्हें महसूस हो
कि दीपावली के दिये
चारों ओर फैले हुए अन्धकार को
मिटा देने के लिये पर्याप्त नहीं हैं,
कि रावण के दस सिर काट कर
गिरा देने वाला राम तुम्हें कहीं दिखाई नहीं देता,
तब तुम मेरी कविता पढ़ना, दोस्त !
तुम्हें दिखाई देंगे सैंकड़ों दीपक
तुम्हारे अपने ह्रदय में प्रज्वलित।
और दिखाई देगा पूरी ताकत से
लड़ता हुआ बलशाली राम
तुम्हारे भीतर।
रावण के सिर दस हों या सौ
क्या फ़र्क पड़ता है?
उन्हें कट कर गिरना है
यही शाश्वत सत्य है।
जब तुम्हें छोटे छोटे प्रश्न
बड़ी बड़ी परेशानियाँ देने लगें,
जीवन का तत्व-बोध धुन्धला दिखाई दे,
और यह अहसास हो कि
आज तक जिस धरातल को तुम ठोस समझकर
पाँव जमाए खड़े थे,
वह खिसक कर
तरल पदार्थ में परिवर्तित हो रहा है,
तब तुम मेरी कविता पढ़ना, दोस्त!
तुम्हें तुम्हारा मूल्य-बोध
अंगद की तरह पाँव जमाए सतर्क खड़ा मिलेगा।
तुम्हारा चरित्र, तुम्हारा अस्तित्व,
एक विशाल जड़ों वाले बरगद की तरह
झूम झूम कर मुस्कुरा रहा होगा।
और कह रहा होगा :
इस यात्रा में छोटे-मोटे तूफ़ान
मुझे नहीं गिरा सकते।
मैं अष्टावक्र का वंशज,
अपने मूल्यों के साथ ही धरती छोड़ू़ँगा।
जब तुम्हें महसूस हो
कि तुम वृद्ध होते जा रहे हो,
तुमने जीवन में सब कुछ देख लिया,
अब सीखने को, पाने को,
रह ही क्या गया है?
एक समतल सड़क है
जिस पर बेमानी चल रहे हो,
तब तुम मेरी कविता पढ़ना, दोस्त!
तुम्हारा बचपन तुम्हारी बाँह थाम लेगा
और चपलता से खिलखिलाकर कहेगा :
अभी तो जीना शुरु ही किया है।
कितने सफ़र, कितनी मन्ज़िलें तय करनी हैं।
क्या कुछ नहीं सीखना।
क्या कुछ नहीं पाना!
अभी अभी पर्वत से निकले झरने की तरह
बहते चले जाना है।
और जब रुकना है तो
महासमुद्र में शाँत भाव से विलीन हो कर।
थकान से रहित, पश्चाताप से रहित,
संघर्ष से रहित, उद्वेग से रहित,
लेकिन उत्साह से रहित नहीं।
क्योंकि जब तक उत्साह जीवित है,
जीवित हैं हम और तुम।
जीवित है बचपन हमारा।
और जीवित है मेरी कविता।
***
-हरप्रीत सिंह पुरी