हिदी की पढ़ाई और नेता दल पाठशाला
कारमेन सुयश्वी देवी जानकी
सूरीनाम एक गिरमिटया देश कहलाता है, क्योंकि हमारे पुरखें भारत से यहाँ लाए गए थे गिरमिट काटने के लिए। वे लोग 5 साल कॉन्ट्रेक्ट पर यहाँ खेतों में मजदूरी करके वापस भारत जा सकते थे या फ़िर से 5 साल कॉन्ट्रेक्ट पर काम कर सकते थे। बहुत से लोग वापस नहीं गए और यहाँ सूरीनामी बन कर अपने अपने घर बसा लिएरंगदीप्त साथ में जो अपनी भाषा और संस्कृति लाए थे, अपने बच्चो को भी दे गए। 5 जून 1924 में 151 साल हो गए कि यहाँ पर पहला जहाज़ लालारुक आया था हमारे पूर्वजों को लेकर। तभी से यहाँ पर वे लोग अपने अपने घर पर और अपने गाँव में हिंदी पढ़ाना शुरु कर दिया था। हर एक गाँव में अभी भी हिंदी पढ़ाने की कोशिश की जाती है। मैं जहाँ रहती हूँ वहाँ हम सबने कोशिश की और पढ़ लिया किसी तरह।
मैं हूँ कारमेन सुयस्विदेबी जानकी और मेरी विवाह परिवार सोमाई में हुआ था। आज मैं आप लोगों को हिंदी पाठशाला नेता दल के बारे में कुछ ऐसी बातें बताना चाहती हूँ, जो शायद आप लोग भी अपने अपने गाँव में कर सकते हो। मैं बच्चपन से ही हिंदी पढ़ती आई हूँ और हिंदी मेरी सबसे प्यारी भाषा है। इसलिए मैं अपनी गाँव में भी हिंदी पढ़ाना चाहती थी, जिस तरह मेरे मौसा-मौसी के द्वारा हमलोगों को हिंदी पढ़ाया गया था। शादी से पहले मैंने सर्वोदय पाठशाला में कुछ समय तक हिंदी पढ़ाया था, जो स्व पं रामदेव रघुबीरजी ने बनवाए थे, लेकिन अब वह पाठशाला नहीं रहा।
शादी के बाद जब बच्चे बड़े हो गए, तब हम सब अपने गाँव माख़ेनता वेख़ में एक ग्रुप बनाकर बहुत से कार्य करते थे, जैसै बुजुर्गों के दिन, बच्चो के दिन, गाँव पूजा, दीवाली उत्सव इत्यादि। और उसी समय मैंने लैला जी से कहा आओ हम दोनो यहाँ पर हिंदी भी पढ़ाएँ। जो हमारा ग्रुप था हमने उसे 3 भागों मे बाँट दिया और हम घर-घर जाकर पूछा कि कौन-कौन हिंदी पढ़ना चाहता है और अपने बच्चों को भी पढ़ाना चाहते हैं? खुशी की बात यह है कि कुल मिलाकर 80 लोगों ने अपने नाम लिखवाए। लेकिन जब अप्रैल 2005 में हमने रजिस्टर करवाया तब सिर्फ़ 60 विद्यार्थी ही आए। हमने उन सब को दो कक्षाओं में बाँट दिया : 30 लैला जी के कक्षा में गए और 30 मेरी कक्षा में। उस वक्त लैलाजी और मैं आई सी सी (ICC, अब SVCC) में कान्ता रानी जी की पास व्याकरण और परिचय की पढ़ाई करती थी।
जब कान्ता रानी जी ने भारत दूतावास की मदद से मंजूषा पुस्तक तैयार करवाया, जो सिर्फ़ सूरीनाम के विद्यार्थियों के लिए बनाया गया था, तो हम सब को भी 60 पुस्तकें मिली। लेकिन जगह नहीं थी, पढ़ाने के लिए। तब लैला जी के देवर यान लालारामजी ने हमें पढ़ाने के लिए अपने गैराज़ में हमें जगह दी। न कुर्सी न मेज़ थी, तब हमारे गाँव के आगे में जो रामगुलाम परिवार का लकड़ी की कारखाना है, उनलोगों ने स्कूल के लिए बेंच बनवाए और आर्तिस प्रिंटिंग का मालिक और उनकी पत्नी प्रकाश और सीता शिवरतन जी ने हमें कुछ पैसे दान में दिए और हरपाल परिवार ने उस पैसे से भी बहुत अच्छी तरह से कई बेन्च बनवाए, जो आज तक प्रयोग में लाए जाते हैं।
इसी तरह अपने ही गाँव में मैं और लैला जी हिंदी पढ़ाने लगे। हिंदी पाठशाला का नाम हम सबने मिलकर चुना था, क्योंकि हम सब नेता दल संस्था से मिल कर काम करते थे। श्रीमान प्रान हरपाल जी इस संस्था के सभापति थे और श्रीमान यान लालाराम जी उप सभापति। यह नाम नेता सुभास चन्द्र बोस जी की नाम से जुड़ा हुआ है। इस तरह से हमने पढ़ाना शुरु किया और आज तक वहाँ हिंदी पढ़ाई जाती है और नेता दल पाठशाला परीक्षा में भाग लेने के लिए हर साल विद्यार्थियों को तैयार करती है। लेकिन अब गैराज़ में नहीं, लेकिन उसी जगह पर हिंदी पढ़ाई जाती है। 2005 से आज तक लगभग 19 साल हो चुके हैं, तक से हम यहाँ हिंदी पढाते आ रहे हैं।
लैला जी अभी तक यहाँ पढ़ाती है और प्राण जी जो हमारे छात्र थे, यहाँ भी पढ़ाते हैं, प्रथमा से कोविद तक और अब इस साल से सुशान्तनी रघुबीर भी यहाँ पढ़ाती है। सुशान्तनी मेरी कोविद की विद्यार्थी है और खुद सरकारी हाई स्कूल में पढाई करती है। मैं कोरोना के बाद सिर्फ़ ऑन लाईन हिंदी पढ़ाती हूँ प्रथमा से कोविद तक। बस यही है मेरा संदेश आप सभ भी हिंदी पढ़ें आप भी कोशिश करें अगर अब तक आप के गाँव में हिंदी नहीं पढ़ाया जाता हो। आशा करती हूँ कि आप लोग भी सफ़लता प्राप्त करेंगे।
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