कहाँ है मेरी पहचान?

(भारत की गौरवगाथा)

सात समंदर पार से मैं आया कंगारू के देश में
कुछ यादें, कुछ सपने, कुछ पुस्तक, कुछ तस्वीर लिए
जीवन की इस भागदौड़ में एक नया संसार बसाने
उधेड़बुन में वर्षों बीते, पर मेरी पहचान कहाँ है ?

जीवन का मन्दिर बना लिया, पर प्राण-प्रतिष्ठा बाकी है
‘हाउस वार्मिंग’ मना लिया, पर हवन यज्ञ बाकी है
मित्र पड़ोसी आते हैं, पर माँ का आना बाकी है l

जीने का संबल खोज लिया, पर मन का लगना बाकी है
‘लाइफ पार्टनर’ ढूँढ़ लिया, पर पत्नी पाना बाकी है l

देश-विदेश तो घूम लिया, पर बन्धु मिलना बाकी है
खाना-पीना बहुत किया, पर लिट्टी-चोखा बाकी है l

अंग्रेज़ी में हुआ प्रवीण, पर हिन्दी पढ़ना बाकी है
ग्रन्थों का सागर देख लिया, पर वेदों का ज्ञान अधूरा है

ऑक्सफ़ोर्ड कैंब्रिज हो आया, पर नालन्दा बाकी है
तक्षशिला भी देख लिया, पर विक्रमशीला बाकी है l

न्यू यॉर्क, बीजिंग घूम लिया, पर पटना- राँची बाकी है
मोटर पर तो बैठ लिया, पर रिक्शा चढ़ना बाकी है l

दुनिया को हमने ज्ञान दिया, पर आज मेरी पहचान नहीं
पूरब के प्रकाश को ढकना, पश्चिम का अधिकार नहीं l

धर्म- कर्म गीता का ज्ञान, ज्योति जलाना बाकी है
यही विरासत भारत की, याद दिलाना बाकी है l

आज मुझे कुछ कहने दो, अपनी पहचान सुनाने दो
भूली-बिसरी यादों को, फिर से आज सजाने दो l

जयहिन्द का अनुपम गुंजन, हमें सुनाई देता है
बीच-बीच में वंदेमातरम, रोमांच हमें दे जाता है l
भारत माता का फैला आँचल, हमें दिखाई देता है
पावन गंगा की लहरों का सन्देश सुनाई देता है l

यह गीत नहीं पहचान मेरी, गौरवगाथा की वाणी यही
सांस्कृतिक सौगात यही, उज्जवल भविष्य की दीप्ति यही !
यह गीत नहीं पहचान मेरी, गौरवगाथा की सोच यही
अंतर्मन की आवाज़ यही, भारतवंशी की राह यही !

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कौशल किशोर श्रीवास्तव

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